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संदेश

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
हाल की पोस्ट

कला - ऋषि दाऊ रामचन्द्र देशमुख को याद करते हुए

सभी अलंकरणों से ऊपर विराजमान कला ऋषि दाऊ रामचन्द्र देशमुख का देहावसान 13जनवरी 1998 को रात्रि लगभग 11 बजे हुआ था । उनकी पार्थिव देह का दाह - संस्कार 15 जनवरी ( मकर संक्रांति के दूसरे दिन ) को हुआ था । हमारी परंपरा के अनुसार दाह - संस्कार वाले दिन को ही अवसान - दिवस मानते हैं और उसी दिन से तीज नहान और दशगात्र के दिन की गिनती करते हैं । कुछ लोग दाऊजी की पुण्यतिथि 14 जनवरी को मानते हैं और कुछ लोग 13 जनवरी को । मुझे दोनों ही तिथियाँ स्वीकार हैं । किसी एक पर उज़्र करने का कोई औचित्य मैं नहीं समझता । दाऊजी की पुण्यतिथि पर कुछ स्मृति - पुष्प अर्पित करने के नैतिक दायित्व के तहत मैं इस बार कुछ नितांत निजी प्रसंगों के साथ दाऊजी को याद करने की इजाज़त आप सबसे माँगता हूँ । चंदैनी गोंदा में मैंने अपनी एक बात सबसे छिपाकर रखी। अपने मित्रों से भी ज़िक्र कर सकने लायक साहस मैं कभी जुटा नहीं पाया। कारण - मेरा आत्मनाशक संकोच और आत्मघाती विनम्रता। मेरे मित्रगण - प्रमोद, लक्ष्मण, सन्तोष टांक, भैयालाल, केदार आदि किसी को भी भनक तक नहीं लगने दी मैंने। सुरेश भैया से साझा करने की तो सोच भी नहीं सकता था, क्योंकि

प्रवासी छत्तीसगढ़िया विभाग की स्थापना - एक परिकल्‍पना Establishment of Migrant Chhattisgarhia Department - a vision by Ashok Tiwari

प्रवासी भारतीय दिवस की शुरुआत विदेश में रहने वाले भारतीय मूल के लोगों और अनिवासी भारतीयों के साथ आर्थिक -सांस्कृतिक संबंध की स्थापना एवं संवर्धन के उद्देश्य के लिए किया गया है। इसकी शुरुआत के लिए भारत सरकार ने पिछली शताब्दी के अंतिम दशक में एक उच्च स्तरीय समूह का गठन किया था जिसके मुखिया पूर्व राजनयिक डॉ. लक्ष्मी मल्ल सिंघवी थे। उनके द्वारा तैयार प्रतिवेदन के आधार पर तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेई जी ने सन 2002 में इस दिवस को आयोजित किये जाने के बारे में घोषणा की और 2003 से इसे प्रतिवर्ष 9 जनवरी को मनाने की शुरुआत की गई। 9 जनवरी का दिन इसलिए चुना गया क्योंकि इस दिन महात्मा गांधी सन 1915 में दक्षिण अफ्रीका से वापस भारत लौटे थे। तब से अर्थात 2003 से प्रतिवर्ष 9 जनवरी को प्रवासी भारतीय दिवस का आयोजन देश के किसी न किसी शहर में किया जाता है जिसमें दुनिया भर में रहने वाले भारतीय मूल के लोग अर्थात पी आई ओ (PIO -Person of Indian Origin) और अनिवासी भारतीय अर्थात एन आर आई (NRI-Non Resident Indian) सम्मिलित होते हैं। आयोजन के अंतर्गत चयनित प्रतिभागियों को प्रवासी भारतीय सम्मान भ

पंथी का दैदीप्‍यमान सितारा: राधेश्याम बारले Dr R S Barle

विश्व के सबसे तेज नृत्य के रूप में प्रतिष्ठित छत्‍तीसगढ़ के लोक कला पंथी नृत्य के ख्‍यात नर्तक पंथी सम्राट स्व. देवदास बंजारे के साथ डॉ. आर.एस. बारले का नाम देश-विदेश में चर्चित है। सतनामी समाज के धर्म गुरू परम पूज्य गुरु बाबा घासीदास जी ने संपूर्ण मानव समाज को सत्य, अहिंसा, भाईचारा, सद्भावना, प्रेम, दया, करुणा, विश्व बंधुत्व के साथ-साथ 'मनखे-मनखे एक समान' जैसे अद्भुत संदेश दिया है। इन्‍होंनें छुआछुत भेदभाव को मिटाकर संपूर्ण मानव में सत्य का रास्ता दिखाया है। समाज नें बाबा के इन्‍हीं संदेशों को भावभक्ति से पंथीनृत्य के माध्यम से प्रचार प्रसार किया, कालांतर से यह नृत्य प्रदेश के लोकमंच का सिरमौर बना हुआ है। राधेश्याम बारले  लगभग साढ़े चार सौ साल पुरानी विधा, इस पारम्पारिक लोकनृत्य की साधना में विगत 40 वर्षो से साधना रत हैं एवं इसे आगे बढ़ाने हेतु कृतसंकल्पित हैं। राष्ट्रीय चेतना के विकास मे लोक गीतों उवं नृत्यों की अहम भूमिका रही है। छत्‍तीसगढ़ का पंथी लोक नृत्य गीत लोक जीवन का ऐसा महाकाव्य है जिसमें जीवन धारा के साथ ही अंलकारो की मधुर झंकार भी है। पंथी गीत नृत्य मे
  संतोष झांजी के ७५ वें जन्मदिन पर : हिरनी के पांव थमते नहीं हैं विनोद साव   वे हमेशा तरोताजा और प्रफुल्लित दिखाई देती हैं जैसी बरसों से दिख रही हैं. अकाल वैधव्य के बाद भी चार बेटियों और एक बेटे के साथ अपने मातृत्व-मय कर्तव्य को पूरा करते हुए अपने संघर्षमय जीवन को उन्होंने गाते गुनगुनाते हुए बिता दिया. गीत लेखन और मंचों पर गायन ने उनके व्यक्तिव को गीतमय बना दिया. जीवन रूपी गाडी के पहियों ने उनके सुर में अपना सुर मिलाया और उनके आसपास को गीत माधुर्य से भर दिया. साहित्य की समालोचना ने नहीं पर जीवन के दर्शन ने जीवन को एक कविता कहा है. यह काव्यमय अभिव्यक्ति संतोष झांजी के पोर पोर से फूटती है.. और यही बन जाती है उनकी शक्ति, हर झंझावात से निपट पाने की.   ऐसे ही हौसलों के साथ अब वे ७५ पार कर रही हैं लेकिन मैं फकत ३० बरस से उन्हें जानता हूं. वह भी उनकी बाहरी सक्रियता से. मुझे ठीक ठीक याद नहीं कि भिलाई के उनके मकानों में मेरी उपस्थिति कभी हुई हो. वे अक्सर हमारे साथ तब होती हैं जब हम किसी साहित्यिक कार्यक्रमों में जा रहे होते हैं - पहले अशोक सिंघई की कार में और बाद में रवि श्रीवास्तव की क

सुरता चंदैनी गोंदा - 3 Surata Chaindaini Gonda

चंदैनी गोंदा की स्मारिका के मुख-पृष्ठ की हालत जर्जर हो गई है। स्मृतियां भी धीरे-धीरे धुंधली होती जा रही हैं। ऐसे में नई पीढ़ी तक चंदैनी गोंदा की जानकारी को स्थानांतरित करना आवश्यक हो गया है। आज की श्रृंखला में डॉ हनुमंत नायडू (हिन्दी के प्रोफेसर और प्रथम छत्तीसगढ़ी फ़िल्म "कहि देबे संदेश" के गीतकार) के आलेख के कुछ अंश प्रस्तुत हैं, जिन्हें पढ़कर नई पीढ़ी को कुछ और नई जानकारियां मिलेंगी। श्रृंखला-1 में कुछ पात्रों के नाम का उल्लेख किया गया था। उन पात्रों की भूमिका, इस आलेख को पढ़ने के बाद कुछ और अधिक स्पष्ट होगी। साथ ही यह भी ज्ञात होगा कि चंदैनी गोंदा के पात्र, महज पात्र नहीं बल्कि प्रतीक हैं। तो लीजिए! डॉ. हनुमंत नायडू के आलेख - "छत्तीसगढ़ी लोक मंच-एक नया सांस्कृतिक संदर्भ", "छत्तीसगढ़ी आंसुओं का विद्रोह-चंदैनी गोंदा", इस शीर्षक से स्मारिका में प्रकाशित आलेख के कुछ अंश - "चंदैनी गोंदा" चंदैनी गोंदा यथार्थ में एक विशेष प्रकार के नन्हे नन्हे गेंदे के फूलों का नाम है जो छत्तीसगढ़ में बहुतायत पाए जाते हैं। चंदैनी गोंदा भी धरती की पूजा का फूल है।

सुरता चंदैनी गोंदा - 2 What is Chandaini Gonda

चंदैनी गोंदा क्या है ? इस प्रश्न को अनेक विद्वानों से अनेक आलेखों में उत्तरित किया है। सबके अपने अपने दृष्टिकोण हैं। चंदैनी गोंदा क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर स्वयं दाऊ जी के शब्दों में पढ़िए। अकाशवाणी द्वारा लिए गए साक्षात्कार को चंदैनी गोंदा स्मारिका में साभार प्रकाशित किया गया था। जिन्होंने यह स्मारिका नहीं पढ़ी है, उनके लिए यह पोस्ट महत्वपूर्ण और उपयोगी हो सकती है - चंदैनी गोंदा क्या है ? : श्रद्धेय रामचंद्र देशमुख के शब्दों में प्रश्न 1 - चंदैनी गोंदा क्या है ? उत्तर : चंदैनी गोंदा पूजा का फूल है।चंदैनी गोंदा छोटे-छोटे कलाकारों का संगम है। चंदैनी गोंदा लोकगीतों पर एक नया प्रयोग है। दृश्य प्रतीकों और संवादों द्वारा गद्दी देकर छत्तीसगढ़ी लोक गीतों के माध्यम से एक संदेश पर सांस्कृतिक कार्यक्रम का प्रस्तुतीकरण - यही चंदैनी गोंदा है। जिन्होंने इसे नाटक, नौटंकी या नाचा समझकर देखा होगा, वे अवश्य ही निराश हुए होंगे लेकिन जिन्होंने लोकगीतों पर एक नए प्रयोग के रूप में देखा होगा वे अवश्य ही हर्षित हुए होंगे। प्रश्न 2 - आपको इसके लिए प्रेरणा कहां से मिली? उत्तर : आपको स्मरण होगा कि भारत