विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
मैं यानि अहंकार ! अहंकार और प्रेम में क्या संबंध हो सकता है । प्रेम तो अहंकार का विसर्जन है. जब भी किसी के प्रति प्रेम उगमता है, तो उसके प्रति हम अपना अहंकार छोड़ देते हैं, हम उसके प्रति अपने को समर्पित कर देते हैं. फिर वह प्रेम साधारण जगत का हो या भगवान के प्रति हो. मौलिक प्रक्रिया तो एक ही है. जिस स्त्री को तुमने प्रेम किया, या जिस पुरुष को तुमने प्रेम किया, उस प्रेम में तुम्हें परित्याग क्या करना पड़ता है ? प्रेम मांगता क्या है ? प्रेम एक ही चीज मांगता है कि मैं को समर्पित करो !और जब भी कोई पुरुष या स्त्री एक दूसरे के प्रति अपने को समर्पित कर देते हैं, तो उनके जीवन में बड़ी हरियाली के फूल खिलते हैं, बड़ी सुवास उठती है, मगर यह बहुत मुश्किल से होता है. क्योंकि आखिर पुरुष, पुरुष है और स्त्री, स्त्री है ! दोनों के लिए अपने मैं को, अपने अहंकार को छोड़कर स्वयं को समर्पित करना कठिन कार्य है. और कभी यह समर्पण जीवंत हो भी जाए तो वह क्षणभंगुर ही होता है, उस क्षण में थोड़ी सी झलक मिलती है- रस की, मन थोड़ा सा मुग्ध हो जाता है, थोड़े प्राण आनंदित भी हो जाते हैं- मगर कुछ क्षणों के लिए, और फिर वही अंधेरी रात ।
इसलिए प्रेम में थोड़ा सुख भी और बहुत ज्यादा दुख है. जिन्होंने प्रेम को जाना उन्होंने सुख जाना ही नहीं, उन्होंने प्रेम में सुख से भी ज्यादा गहन दु:ख जाना ! इसीलिए तो बहुत से लोग प्रेम में पड़ते ही नहीं । छोटे सुख से तो वे वंचित रह रहते हैं । मगर बड़े गहन दु:ख से भी बच जाते हैं । इसीलिए तो कई लोग सदियों-सदियों तक जंगल में भाग गये हैं. संसार का क्या अर्थ होता है ? जहाँ प्रेम होने की संभावना हो . जहाँ प्रेम का अवसर हो. जहाँ दूसरा मौजूद हो । जहाँ न जाने कब किसी से मन मिल जाये. और न जाने कब किसी से राग जुड़ जाये ।
भाग जाओ ! सदियों-सदियों से साधु संत जंगलों में भागते रहे हैं, पहाड़ों में भागते रहे हैं. किससे भाग रहे हैं. वे कहते हैं संसार से भाग रहे हैं. मगर ऐसा होता नहीं. उनके मनोविज्ञान को समझो. वे संसार से नहीं प्रेम से भाग रहे होते हैं. संसार प्रेम का ही दूसरा नाम हैं. लेकिन भागे हुए ये लोग बहुत अधिक अहंकारी होते हैं. इसीलिए तुम साधु-संतों में जितना अहंकार देखोगे, वैसा अहंकार और कहीं नहीं दिखेगा. क्योंकि प्रेम जो मिटा सकता था उनके अहंकार को, उस प्रेम को तो वे छोड़कर चले गये, अब तो बीमारी ही रही, औषधी रही नहीं. मैं ऐसे सन्यास का समर्थक हूँ, जो प्रेम से भागता नहीं, वरन् प्रेम के सत्य में जागता है. ऐसा सन्यास जो प्रेम को शाश्वत सच्चाई की तरह स्वीकार करता है. जो संसार से, प्रेम से नहीं बल्कि अहंकार से भागता है, अहंकार को त्यागता है क्योंकि दु:ख प्रेम से नहीं आता,प्रेम से ही सुख आता है भले ही क्षणभंगुर ही सही, मगर प्रेम चला जाता है तो फिर अहंकार सिर उठाता है. इसीलिए मेरा सन्यास भिन्न है, जो तोड़ता नहीं बल्कि सबसे जोड़ता है..........
(आचार्य रजनीश के विचार)
इसलिए प्रेम में थोड़ा सुख भी और बहुत ज्यादा दुख है. जिन्होंने प्रेम को जाना उन्होंने सुख जाना ही नहीं, उन्होंने प्रेम में सुख से भी ज्यादा गहन दु:ख जाना ! इसीलिए तो बहुत से लोग प्रेम में पड़ते ही नहीं । छोटे सुख से तो वे वंचित रह रहते हैं । मगर बड़े गहन दु:ख से भी बच जाते हैं । इसीलिए तो कई लोग सदियों-सदियों तक जंगल में भाग गये हैं. संसार का क्या अर्थ होता है ? जहाँ प्रेम होने की संभावना हो . जहाँ प्रेम का अवसर हो. जहाँ दूसरा मौजूद हो । जहाँ न जाने कब किसी से मन मिल जाये. और न जाने कब किसी से राग जुड़ जाये ।
भाग जाओ ! सदियों-सदियों से साधु संत जंगलों में भागते रहे हैं, पहाड़ों में भागते रहे हैं. किससे भाग रहे हैं. वे कहते हैं संसार से भाग रहे हैं. मगर ऐसा होता नहीं. उनके मनोविज्ञान को समझो. वे संसार से नहीं प्रेम से भाग रहे होते हैं. संसार प्रेम का ही दूसरा नाम हैं. लेकिन भागे हुए ये लोग बहुत अधिक अहंकारी होते हैं. इसीलिए तुम साधु-संतों में जितना अहंकार देखोगे, वैसा अहंकार और कहीं नहीं दिखेगा. क्योंकि प्रेम जो मिटा सकता था उनके अहंकार को, उस प्रेम को तो वे छोड़कर चले गये, अब तो बीमारी ही रही, औषधी रही नहीं. मैं ऐसे सन्यास का समर्थक हूँ, जो प्रेम से भागता नहीं, वरन् प्रेम के सत्य में जागता है. ऐसा सन्यास जो प्रेम को शाश्वत सच्चाई की तरह स्वीकार करता है. जो संसार से, प्रेम से नहीं बल्कि अहंकार से भागता है, अहंकार को त्यागता है क्योंकि दु:ख प्रेम से नहीं आता,प्रेम से ही सुख आता है भले ही क्षणभंगुर ही सही, मगर प्रेम चला जाता है तो फिर अहंकार सिर उठाता है. इसीलिए मेरा सन्यास भिन्न है, जो तोड़ता नहीं बल्कि सबसे जोड़ता है..........
(आचार्य रजनीश के विचार)
ओशो के अनेकों प्रवचनों का संग्रह मेरे पास है. उनको सुनना और पढ़ना हमेशा आनन्दित करता है. आभार इस प्रस्तुति के लिये.
जवाब देंहटाएंसही है। इसीलिये कहा है- प्रेम गली अति सांकरी, जामे दुई न समाय!
जवाब देंहटाएंइ लो। सबसे पहले हम ही टिपियाए रहे और हम ही गायब हो गए इहां से, हम इ कहे रहे कि नही)))))))))) इ पोस्ट को हम अनदेखा कर रहे हैं उ का है ना कि अभी सन्यास वाली उमर अभी हमार नही हुई है !!
जवाब देंहटाएंबाकी आभार तो कहना ही है भैया!!
ओशो के विचार यहाह देने के लिए धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंपलायनवादी बनने से कुछ नहीं होता । प्रेम वो अनुभूति है जिसमें अहम नहीं
जवाब देंहटाएंसमर्पण की भावना प्रमुख है चाहे वो किसीसे भी किया जाये । सोने पर सुहागा
तब-जब प्रत्तयुतर की कामना ना हो ।
प्रेम ही परमात्मा है…।
जवाब देंहटाएंओशो का अपना व्यक्तित्व था कुछ पहलुओं को छोड़ उनका पक्ष हमेशा दर्शन से जुड़ा होता था…।