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अक्तूबर, 2007 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

मॉं : एक कविता

मॉं तुम्‍हारी गोद, तुम्‍हारा ऑंचल कितना सुकून देता था मेरा जिद, रोना, वह दुलार, वह क्रोध वह नि श् ‍छल प्रेम, तुम पर वह सर्वस्‍व अधिकार, मेरा फूट फूट कर तेरे आंचल को पकडकर रोना । आज जब मैं भी एक पिता हूँ तुम्‍हारी अंतिम सत्‍य का सामना करते हुए मेरे मानस में वही दायित्‍वहीन बचपन कौंध रहे हैं जब तुम मुझे छोडकर चली गई थी और मैं पहली बार तुम्‍हें न पाके फूट फूट कर रोया था आज वही आंसु फूट पडते हैं रूकते ही नहीं क्‍यों चली गई मां मुझे छोडकर तेरे न होने का अर्थ दु:सह है । मैं जीना चाहता हूँ उसी तरह जिस तरह से मेरा बचपन था तुम थी और तुम्‍हारा प्रेम था सबसे सुरक्षित स्‍थान तेरी गोद । तेरी बातें, वो लोरी वो कहानी सुनाते हुए मुझे सुलाना सब मुझे याद आ रहे हैं तेरी नश्‍वर काया के साथ साथ पंडित के उच्‍चारित गीता की पंक्तियां मुझे लोरी सी लग रही है सो जाना चाहता हूँ मॉं तुम्‍हारी गोद में अनंत के आगोश में । संजीव तिवारी (13.12.2001)

हममें होकर गुजरता है वक्त, बेवक्त : यादें सुब्रत बसु

अशोक सिंघई जी द्वारा सुब्रत दा को अर्पित श्रद्धासुमन अखबार ज़िन्दगी की बड़ी जरूरी और गैरजरूरी ज़रूरत है। खबरें अच्छी हों या बुरी, एक ही पन्ने पर सजकर आती हैं। अखबार से ही जाना कि जाने में आना हो या न हो पर आने पर जाना ही होता है। अमूमन मुझे सुबह अच्छी नहीं लगती। वह सुबह, शायद २८ सितम्बर की, तो खास तौर पर नाकाबिले-बरदाश्त लग रही थी। सूरज भी आँखें चुरा था। मुझे क्या पता था कि यह सुबह एक सूरज के अस्त होने की खबर से शुरू हो रही है। गरम चाय कब ठंडी हो गई, भनक ही नहीं लगी। सुबह की ताज़ी हवा, चिड़ियों की चहचहाहट, काम पर जाने की तिश्नगी - सब का स्वाद जाता रहा। अखबारों ने बताया कि सुब्रत बोस ज़िन्दगी के रंगमंच को अलविदा कह गये हैं और मैं सोचता रहा अब क्या गुनगुनायेंगे कि, 'बम्बई से आया मेरा दोस्त.........।` आठवें दशक में भारत के नये तीर्थ भिलाई में दाना-पानी के लिये यह पंछी भी हज़ारों की तरह जोशखऱोश से बलबलाता उतरा। छत्तीसगढ़ के त्रिवेणी संगम, राजिम की संस्कृति साथ थी, साहित्य और संस्कृति के आकर्षण में पहले ही मुब्तिला था। वैसे ही साथियों को ढूँढती आँखों को एक बड़ी बिरादरी नज़र आई। साहित्य

दुर्लभ दर्शन और मौन सम्वाद : अशोक सिंघई की दो कवितायें

दुर्लभ दर्शन दिखता नहीं अब चाँद पूरा साफ-साफ आँखें हो चलीं बूढ़ीं अपने मन से बह रही हो हवा ऐसी दिखती नहीं अब खुश़बू हो गई लापता बातें हो चलीं झूठीं कहाँ है अब कोई जो चल रहा हो कारवाँ ऐसा दिखता नहीं अब मंज़िल हो गये किस्से तिलस्मी रातें हो चलीं जूठीं सदी की सदी / सरक रही है व्यग्रता ऐसी प्रयासों की दिखती नहीं अब साक्षात्कार सूरज का कहाँ नसीब साँसें लग रहीं रूठीं मौन सम्वाद तुमने कहा मुझसे मत टोको मुझे, मत रोको मुझे कह-कह कर ऐसा की अपनी मनमानी मेरे हिस्से आया मौन कल तक बँधी थी पट्टी आँखों पर अब ताला है मुँह पर कुछ सुन लेतीं मेरी भी नहीं, कुछ खास नहीं है कहने को तुमको ही टाल नहीं पाता कभी तुम्हारा कहना जरा सा बड़ा भारी लगता है जैसे हो बारिश सीने पर दिसम्बर के कम भासती है लू, मई के महीने में मत कहो, कम से कम तुम तो मत ही कहो अँगुली उठाती हो हवा की इस थिरकन से मैं लगता हूँ समाने धरा की कोख में गिर जाता हूँ उस नज़र से देखता हूँ खुद को जिस नज़र से प्रेम ने ही बाँधी थी कभी आँखों पर सम्बन्धों में भी कुछ शर्त होती है कितनी भी ठोस क्यों न हो जिन्दगी सिद्धान्त, विचार, आदर्श और अनुभूतियाँ सब में पर

समीक्षा “संभाल कर रखना अपनी आकाश गंगा” (काव्य संग्रह) कवि- अशोक सिंघई

अपने समय का सच उलीचती कवितायें एक बार रूस के महान कथाकार दोस्तोवस्की अपने भाई इवान के साथ ईश्‍वर पर बहस कर रहे थे । दोस्तोवस्की ने इवान को ईश्‍वर के अस्तित्व तथा उसके द्वारा रचित समस्त ब्राम्हाण्ड के सूर्य, पृथ्वी, सागर, चंद्रमा, आकाशगंगा तथा सभी ग्रहों की महत्ता समझाते हुए इसबात पर जोर दिया कि इवान ईश्‍वर पर विस्त्रास करने पर राज़ी हो गया लेकिन इवान ने दोस्तोवस्की को एक छोटी से घटना बताई - दस वर्ष की उम्र का एक बालक पत्थरों से खेल रहा था । उसकी माँ धनाढ्य मालिक के यहाँ काम करती थी । दुर्घटनावश बच्चे का एक पत्थर मालिक के कुत्ते को जा लगा । मालिक ने बच्चे को नंगा कर दौड़ने को कहा और उस पर कुत्ता छोड़ दिया गया । माँ की आँखों के सामने बालक को कुत्ते ने मार डाला । इवान ने आगे कहा कि किसी बड़े व्यक्ति, जिसने बहुत से पाप अपने जीवन में किए हों, को यदि दण्ड मिले और तुम्हारा ईश्‍वर मौन रहे यह मेरी समझ में आ सकता है किंतु उस दस वर्ष के बच्चे ने ऐसा कौन-सा पाप किया था जो तुम्हारा ईश्‍वर चुप रहा ? दोस्तोवस्की निरूत्तर हो गया । हमारे चारों ओर इसी प्रकार ऐसा बहुत कुछ फैला पड़ा है जिसका कोई उचित उत्त

बोलियों की दुनिया में छत्‍तीसगढी बोली

आलेख : रामहृदय तिवारी प्रकृति बोलती है , कभी क्रोध से , कभी करूणा से , कभी दुत् ‍ कार से तो कभी दुलार से । भौंचक मनुष् ‍ य समझ नहीं पाता , सिर्फ महसूस करता है प्रकृति की अनंत बोलियों को । मनीषी कहते हैं प्रकृति की सारी ध् ‍ वनियॉं अज्ञात अनंत सत् ‍ ता की सांकेतिक अभिव् ‍ यक्तियॉं है । तत् ‍ व दर्शियों ने इन् ‍ हें अनहद नाद कहा , कभी अल् ‍ लाह कहा , कभी यहोवाह , कभी आमेन तो कभी ओम । कहते हैं कि स्रष्टि की सारी ध् ‍ वनियों का , सारी बोलियों और भाषाओं का स्रोत यह उँ ही है । यह अनहद नाद समूचे ब्रम् ‍ हाण् ‍ ड में परिव् ‍ याप् ‍ त है । मनुष् ‍ य का शरीर भी इस नाद का केन् ‍ द्र बिन् ‍ दु है , जहां से नि : स्रत होती है । विभिन् ‍ न घ् ‍ वनियां । मनुष् ‍ य ने इस घ् ‍ वनियों को शब् ‍ दों में ढालकर ग्राहा और संप्रेषणीय बना दिया है । संसार की सारी बोलियां मनुष् ‍ य के सतरंगी मनोभावों की उद्दाम परिणतियां हैं । विश् ‍ व की तमाम बोलियां हमारी उत् ‍ कट भावनाओं के प्रतिफलन