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15 December, 2007
Disqus Comments
वाह! उर्वशी और पुरुरवा की याद आ गयी।
ReplyDeleteप्रेम और सौन्दर्य से परिपूर्ण काव्य... प्रेम अन्धा होते हुए भी अंर्तमन के चक्षुओं से देखता है...
ReplyDeleteबहुत सुंदर लयबद्ध रचना…गुनगुनाने को मन हो उठा।
ReplyDeleteआभार
संजीव, बहुत बढ़िया लिखा है भैया...सचमुच...वाह!
ReplyDeleteबहुत बढिया संजीव भाई ॥
ReplyDeleteअच्छी! बहुत अच्छी!
ReplyDeleteअति सुंदर कविता. गहरे भाव और सुंदर शब्दों का अद्भुत सम्मिश्रण.
बधाई.
प्रेम मूक, अँधा ही सजीव होता है.....मूक प्रेम का सजीव वर्णन ,बहुत सुन्दर .........
ReplyDeleteवाह क्या बात है!! सुंदर!!
ReplyDeleteतो अब आपका खजाना धीरे-धीरे सामने आ रहा है।
बधाई!
वाह क्या लिखते है। मजा आ गया। वाह, वाह।
ReplyDeleteसंजीव भैया,
ReplyDeleteअच्छी कविता है, आपसे सदा ही कुछ न कुछ सिखाने को मिलता है.
बहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता, सब्द सब्द भावों को प्रकट करता हुआ और भाव ह्रुदय में उतरते हुए। पहले भाग की आखरी लाइन देखिये, सृजन होना चाहिये न श्रृजन के बदले।
ReplyDeleteसंजीव जी,
ReplyDeleteआपके ब्लाग को अक्सर देखता हूं। हम सभी के साथ समस्या यह है कि हिन्दी जानने और इंटरनेट पर देखने की इच्छा रखने वाले करोड़ों लोग आपस में कैसे जुड़े रहें। हमारा लिखा एक दूसरे तक कैसे पहुंचे।
आपकी कोशिश जारी रहे, शुभकामनाएं।
आप मेरे ब्लाग sarokaar.blogspot.com पर समय निकालकर जाने का कष्ट करें।
सादर
राजेश अग्रवाल
स्थानीय सम्पादक
प्रतिदिन
बिलासपुर
Rakesh Khandelwal
ReplyDeleteबहुत बढिया भाव, शुक्रिया ।