आरंभ Aarambha सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

2008 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

भाषा के लिये आवश्‍यक है योग्‍य व्‍याकरण (Grammer) का होना

मानक छत्‍तीसगढी व्‍याकरण एवं छत्‍तीसगढी शव्‍दकोश छत्‍तीसगढ राज्‍य के निर्माण के साथ ही छत्‍तीसगढी भाषा को राजभाषा का दर्जा भी दे दिया गया । अब इस भाषा के विकास के लिये सरकार की सुगबुगाहट के साथ ही स्‍वैच्छिक रूप से क्षेत्र के विद्वानों के द्वारा सहानुभूतिपूर्वक सक्रियता दिखाई जा रही है । भाषा के मानकीकरण के लिये ख्‍यात भाषाविद डॉ.चित्‍तरंजन कर एवं प्रदेश की एकमात्र नियमित छत्‍तीसगढी भाषा की पत्रिका ‘लोकाक्षर’ नें अपने प्रयास आरंभ कर दिये हैं । छत्‍तीसगढ में भाषा के विकास के लिये ‘व्‍याकरण’ एवं ‘शव्‍द कोश’ पर निरंतर गहन शोध व संशोधन हुआ है एवं समय समय पर छत्‍तीसगढी व्‍याकरण व शव्‍द कोश का प्रकाशन भी होते रहा है । व्‍याकरण के लेखक चाहे जो भी हों किन्‍तु प्रत्‍येक प्रकाशन के साथ ही इसमें निखार आता गया है । छत्‍तीसगढ में छत्‍तीसगढी सहित अन्‍य कई बोलियां बोली जाती है, छत्‍तीसगढी भाषा में भी स्‍थान स्‍थान के अनुसार से किंचित भिन्‍नता है इस कारण छत्‍तीसगढी के मानक व्‍याकरण की बहुत समय से प्रतीक्षा थी । इस प्रतीक्षा को दूर किया चंद्र कुमार चंद्राकर जी की कृति ‘मानक छत्‍तीसगढी’ नें । छत्‍ती

दण्‍डक वन का ऋषि : लाला जगदलपुरी

बस्‍तर के लोक जीवन का चित्र जब जब हमारे सामने आता है तब तब एक शख्‍श का नाम उभरता है और संपूर्णता के साथ छा जाता है वह नाम है लाला जगदलपुरी का । साहित्‍य और संस्‍कृति के क्षेत्र में बस्‍तर के पहचान के रूप में लाला जी बिना हो हल्‍ला के पिछले पचास वर्षों से लगातार इस पर अपना छाप छोडते रहे हैं । उनके लेख व किताबें बस्‍तर के एतिहासिक दस्‍तावेज हैं । बस्‍तर के अरण्‍य वनांचल के गोद में छिपे लोक जीवन, साहित्‍य व संस्‍कृति के संबंध में सर्वप्रथम एवं प्रामाणिक जानकारी संपूर्ण नागर जगत को लाला जी के द्वारा ही प्राप्‍त हो सका है । इसके बाद तो लाला जी के सानिध्‍य एवं लेखनी व उनके सूत्रों का उपयोग कर अनेकों लोगों नें रहस्‍यमय और मनोरम बस्‍तर को जनता के सामने लाया और अपनी राग अलापते हुए अपने ढंग से प्रस्‍तुत भी किया जो आज तक बदस्‍तूर जारी है ।   बस्‍तर की लोक संस्‍कृति, लोक कला, लोक जीवन व लोक साहित्‍य तथा अंचल में बोली जाने वाली हल्‍बी–भतरी बोलियों एवं छत्‍तीसगढी पर अध्‍ययन व इन पर सतत लेखन करने वाले लाला जी निर्मल हृदय के बच्‍चों जैसी निश्‍छल व्‍यक्ति हैं । सहजता

सत्‍य की जीत या हार ... ?

 छत्‍तीसगढ का जनादेश आ चुका है, रमन सिंह के नेतृत्‍व वाली भाजपा पूर्ण बहुमत के साथ प्रदेश में सरकार बनाने की क्षमता हासिल कर चुकी है । इस चुनाव परिणाम के पीछे विकास एवं रमन की छबि है । कांग्रेस नेतृत्‍व में आपसी कलह व भितरधात नें भी इस परिणाम को भरपूर प्रभावित किया है । पूरा राज्‍य रमन के तीन रूपिया किलो चांउर में तुलता हुआ प्रतीत होता है एवं उनकी वर्तमान व भविष्‍य की योजनाओं को जनता की स्‍वीकृति मिलती दीख पडती है ।  इस परिणाम में चौकाने वाला तथ्‍य यह हैं कि प्रदेश में सत्‍ता का समीकरण तय करने वाले आदिवासी क्षेत्रों में भी भाजपा नें अपनी बढत कायम रखी है जबकि समझा यह जा रहा था कि भाजपा सरकार के ‘सडवा जूडूम’ की योजना से आदिवासी त्रस्‍त हैं । सर्वोच्‍च न्‍यायालय में प्रस्‍तुत याचिका एवं दुनिया भर के तथाकथित विचारकों द्वारा यही प्रचारित भी किया जा रहा था । इसके बावजूद आदिवासी क्षेत्रों में भाजपा की बढत यह सिद्ध करती है कि ‘सडवा जूडूम’ प्रदेश के हित में है । प्रचारित यह भी किया जा रहा था एवं कुछ हद तक हमें भी यह लगता था कि इससे आदिवासियों के प्राकृतिक आवास से उन्‍हें विलग कर अन्‍यत्र शरणा

राजीव काला जल और शानी

उस दिन दौंडते भागते दुर्ग रेलवे स्टेशन पहुचा । गाडी स्टैंड करते ही रेलगाडी की लम्बी सीटी सुनाई देने लगी थी । तुरत फुरत प्लैटफार्म टिकट लेकर अंदर दाखिल हुआ । छत्तीसगढ एक्सप्रेस मेरे स्टेशन प्रवेश करते ही प्लेटफार्म नं. 1 पर आकर रूकी । चढने उतरने वालों के हूजूम को पार करता हुआ मैं एस 6 के सामने जाकर खडा हो गया । राजीव रंजन जी और अभिषेक सागर जी मेरे सामने खडे थे । साहित्य शिल्पी और छत्तीसगढ के साहित्यकारों पर संक्षिप्त किन्तु महत्वपूर्ण चर्चा के बीच ही राजीव जी नें सागर जी को सामने की पुस्तक दुकान से शानी का ‘काला जल’ पता करने को कहा, पुस्तक वहां नहीं मिली । तब तक गाडी की सीटी पुन: बज गई और राजीव जी एवं सागर जी से हमने बिदा लिया देर तक हाथ हिलाते हुए बब्बन मिंया स्मृति में आ गए । राजीव जी से क्षणिक मुलाकात उनका व्यक्तित्व‍ मेरे लिए उनके बस्तर प्रेम के कारण बहुत अहमियत रखता है तिस पर शानी की याद । शानी नें तो बस्तर को संपूर्ण हिन्दी जगत में अमर कर दिया है, सच माने तो हमने भी बस्तर को शानी से ही जाना । उनकी कालजयी कृति ‘काला जल’ नें तो अपने परिवेश से प्रेम को और बढा दिया । ‘काला जल’

'पहल' के बंद होने पर महावीर अग्रवाल जी की त्‍वरित टिप्‍पणी

"पहल के प्रवेशांक से लेकर अभी-अभी प्रकाशित 90 अंक तक का एक-एक शव्‍द मैंने पढा है । पहल मेरे लिए एक आदर्श पत्रिका प्रारंभ से लेकर आज तक रही है । पहल के संपादक ज्ञानरंजन से प्रेरणा लेकर ही मैंने 'सापेक्ष' पत्रिका प्रारंभ की थी जिसके अभी तक 50 अंक छप चुके हैं ।  पहल का बंद होना मेरे लिए सिर्फ एक दुखद घटना नहीं है वरण मैं यह मानता हूं कि पहल के बंद होने से सुधी पाठकों की दुनियां में एक शून्‍यता और निराशा आयेगी । मेरी ज्ञानरंजन जी से दूरभाष पर चर्चा हुई उन्‍होंनें कहा - अब लिखेंगें पढेंगें और मित्रों से भेंट मुलाकात करेंगें । मुझे लगता है नई पीढी में कोई न कोई आयेगा और ''पहल'' के काम को आगे जरूर बढायेगा । " डॉ. महावीर अग्रवाल  संपादक - सापेक्ष सापेक्ष 47 - हबीब तनवीर का रंग संसार, सापेक्ष 48 - उत्‍तर आधुनिकता और द्वंदवाद, सापेक्ष 49 विज्ञान का दर्शन (फ्रेडरिक एंगेल्‍स का योगदान), सापेक्ष 50 - हिन्‍दी आलोचना पर इस ब्‍लाग पर कल पढें - 'राजीव रंजन, शानी और काला जल'     

सरखों में श्याम कार्तिक पूजा : प्रो. अश्विनी केशरवानी

छत्‍तीसगढ आदि काल से अपनी परम्परा, समर्पण की भावना, सरलता और उत्सवप्रियता के कारण पूरे देश में आकर्षण का केंद्र रहा है। यहां के लोगों का भोलापन और प्रकृति का निश्छल दुलार का ही परिणाम है कि यहां के लोग सुख को तो आपस में बांटते ही हैं, दुख में भी विचलित न होकर हर समय उत्सव जैसा महौल बनाये रखते हैं। किसी प्रकार का दुख इनके उत्सवप्रियता में कमी नहीं लाता। झूलसती गर्मी में इनके चौपाल गुंजित होते हैं, मूसलाधार बारिश में इनके खेत गमकते हैं और कड़कड़ाती ठंड में इनके खलिहान झूमते हैं। ''धान का कटोरा'' कहे जाने वाले इस अंचल के लोगों के रग रग में पायी जाने वाली उत्सवप्रियता, सहजता और वचनबद्धता कई तरीके से प्रकट होते हैं। ''श्याम कार्तिक महोत्सव ' उनमें से एक है जो छत्‍तीसगढ में अपनी तरह का अनूठा आयोजन है। नवगठित जांजगीर-चांपा जिले का एक छोटा सा गांव सरखों में मुझे यह अनूठा आयोजन देखने को मिला। जांजगीर जिला मुख्यालय के नैला रेल्वे स्टेशन से मात्र ३-४ कि.मी. की दूरी पर एक छोटा सा गांव सरखों स्थित है। पक्की सड़क और निजी बस इस गांव को अन्य गांवों से जोड़ती है। सड़क के दो

नया मेहमान

कल रात  को घर आकर फ्रेश होकर बैठा तो मेरा बालक नारियल हाथ में लेकर खडा हो गया ।  अगरबत्‍ती लगाकर इसे तोडे, हमने बिना त्‍यौहार कारण पूछा तो उसनें बतलाया । हमारे कालोनी के मकानों में गार्डनिग के लिए भरपूर जगह दिये गये हैं जिसमें कईयों नें बागवानी के अपने शौक को पूरा किया है जिसमें से किसी के गार्डन में एक बिल्‍ली नें चार बच्‍चे दिये थे और बच्‍चों के आंख खुलने के बाद से वह पूरे कालोनी में कभी यहां तो कभी वहां अपने बच्‍चों को छोड कर घूमती रही है । अब खबर यह थी कि बिल्‍ली अपने एक एक बच्‍चों को अलग अलग घरों के गार्डन में छोड आयी है और बच्‍चे दिन भर अपनी मॉं से मिलने की आश में चिल्‍ला रहे हैं ऐसा ही एक बच्‍चा पिछले दो दिन से हमारे घर के बाउंड्री में रखे कबाडों के पीछे छुपा चिल्‍ला रहा था, मेरा बालक इससे अतिआकर्षित व उत्‍साहित हो रहा था वहीं मेरी श्रीमतीजी को इस आवाज से काफी गुस्‍सा आ रहा था पर उसे बंद कराने का जरिया मात्र उसे उसकी मॉं से मिलाना था जो संभव नहीं दिख रहा था, अब उसके क्रोध नें भक्ति का सहारा लिया जो स्‍वाभाविक तौर पर महिलाओं में देखी जाती है, उसके मॉं से उसे मिलाने की मन्‍नत स्

लोक गाथा : दशमत कैना

भोज राज्य का राजा भोज एक दिन अपनी सात सुन्दर राजकन्याओं को राजसभा में बुलाकर प्रश्न करता है कि तुम सभी बहने किसके भाग्य का खाती हो । छ: बहने कहती हैं कि वे सब अपने पिता अर्थात राजा भोज के भाग्य का खाती हैं और सब पाती हैं । जब सबसे छोटी बेटी से राजा यही प्रश्न दुहराता है तब, अपनी सभी बहनों से अतिसुन्दरी दशमत कहती है कि, वह अपने कर्म का खाती है, अपने भाग्य का पाती है । इस उत्तर से राजा का स्वाभिमान ठोकर खाता है और स्वाभाविक राजसी दंभ उभर आता है । राजा अपने मंत्री से उस छोटी कन्या के लिए ऐसे वर की तलाश करने को कहता है जो एकदम गरीब हो, यदि वह दिन में श्रम करे तभी उसे रोटी मिले, यदि काम न करे तो भूखा रहना पडे । राजा की आज्ञा के अनुरूप भुजंग रूप रंग हीन उडिया मजदूर बिहइया को खोजा गया । वह अपने भाई के साथ जंगल में पत्थर तोडकर ‘पथरा पिला-जुगनू’ निकालते थे जिसे उनकी मॉं, साहूकार को बेंचती थी जिससे उन्हें पेट भरने लायक अनाज मिल पाता था । बिहइया से दसमत कैना का विवाह कर दिया गया । दशमत अपने पति के साथ पत्थर तोडने का कार्य करने लगी जिसे उन्होंने अपना भाग्य समझकर स्वीकार कर लिया । पत्थर से निकलने

रचनाओं की महक

प्रिय एबीसी, काफी लम्‍बे अरसे के बाद आज तुम्‍हें फिर पत्र लिख रहा हूं, पिछले तीन माह से तुम्‍हें पत्र लिखना चाह रहा था किन्‍तु लिख नहीं पा रहा था । हंस में 'विदर्भ' कहानी पढने के बाद से ही, पर ...... तुम्‍हारा पता वहां नहीं था । सिर्फ ई मेल एड्रेस था वो भी याहू का जो हिन्‍दी मंगल फोंट को सहजता से स्‍वीकार नहीं करता इस कारण की बोर्ड पर खेलते मेरे हाथ रूक गये थे । उस कहानी एवं वहां दिये तुम्‍हारे परिचय से मुझे तुम्‍हारे संबंध में कुछ और जानकारी मिली और मुझे खुशी हुई कि तुम अब कम्‍प्‍यूटर से घोर नफरत करने वाली अपनी प्रवृत्ति बदल चुकी हो इसी लिए तो अपना स्‍थाई पता ई मेल का दिया है । चलो वक्‍त नें सहीं तुम्‍हें बदला तो ...., नहीं तो बदलना तो तुम्‍हारी तासीर में नहीं था । तुममें क्‍या क्‍या बदलाव आया है यह मैं जानना चाहता हूं, पर मैं यह भी जानता हूं कि इसके लिये मुझे तुमसे मिलना पडेगा, तुम यूं ही अपने राज खोलती भी तो नहीं हो । मैं तुम्‍हें तुम्‍हारी कहानियों से ही जान पाता हूं या फिर जब तुम मुझसे, आमने सामने बैठकर बातें करती हो ।  इन दिनों किस नगर में बसेरा है तुम्‍‍हारा, परिवार

पागल हो गया है क्या ….?

ठांय ! ठांय ! ठांय !, बिचांम ! करती हुई वह बच्ची मेरे बाईक के आगे बैठी सडक से गुजरने वालों पर अपनी उंगली से गोली चलाने का खेल खेल रही थी । अपनी तोतली बोली में उन शव्दों को नाटकीय अंदाज में दुहराते जा रही थी । मैंनें उससे पूछा- ‘क्या कर रही हो ?’ ‘गोली चला रही हूं !’ ‘किसे ?’ ‘तंकवादी को !’ उसने अपनी तोतली जुबान में कहा । मैं हंस पडा, ‘ये तंगवादी कौन हैं ?’ ‘जो मेरे पापा को तंग करते हैं !’ उसने बडे भोलेपन से कहा । मैं पुन: हंस पडा । तब तक चौंक आ गया, चौंक में उसके मम्मी-पापा खडे थे । मैं उसे उनके पास उतारकर आगे बढ गया, वो दूर तक मुझे टाटा कहते हुए हाथ हिलाते रही । आज लगभग चार साल बाद उससे मेरी मुलाकात हई थी, वह रिजर्व पुलिस बल के मेन गेट पर सडक में टैम्पू का इंतजार करते अपनी पत्नी व चार साल की बच्ची के साथ खडा था । मैं अपनी धुन में उसी रोड से आगे बढ रहा था, दूर से ही मुझे पहचान कर वह हाथ हिलाने लगा, ‘सर ! सर !’ मैं उसे अचानक पहचान नहीं पाया । हमेशा गार्ड की वर्दी में उसे देखा था, यहां वह टी शर्ट व जींस में खडा था । मैं किसी परिचित होने के भ्रम में उसके पास ही गाडी रोक दिया । उसने

सलवा जूडूम पार्टी : चुनाव हेतु तैयार

राष्‍ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा पिछले दिनों सर्वोच्‍च न्‍यायालय में प्रस्‍तुत जांच रिपोर्ट के अनुसार न्‍यायालयीन सत्‍य के रूप में प्रस्‍तुत नौ अध्‍यायों की कथा व्‍यथा के अनुसार छत्‍तीसगढ में ‘स्‍वस्‍फूर्त’ जागृत जन आंदोलन ‘सलवा जूडूम’ का बीज तब अंकुरित हुआ जब बीजापुर के भैरमगढ विकासखण्‍ड के गांम कुटरू के आदिवासियों नें नक्‍सली जुल्‍म व तानाशाही से मुक्ति पाने हेतु गांव में बैठक कर अपने आप को संगठित किया एवं नक्‍सलियों का प्रतिकार करने का निश्‍चय किया । इस जन आन्‍दोलन को पूर्व में भी सहयोग कर चुके नेता प्रतिपक्ष महेन्‍द्र कर्मा नें इसे नेतृत्‍व प्रदान किया । धीरे धीरे यह आंन्‍दोलन गांव गांव में बढता गया जो लगभग 644 गांवों तक बढता चला गया । वर्तमान में इस आंन्‍दोलन का स्‍वरूप शरणार्थी शिविर के अतिरिक्‍त और कुछ नहीं रह गया है किन्‍तु जब सन् 2005 में महेन्‍द्र कर्मा नें इसे जन आन्‍दोलन का स्‍वरूप दिया एवं आदिवासियों के भाषा के अनुरूप ‘सलवा जुडूम’ का नाम दिया। तब आदिवासियों में जागरूकता फैलाने का कार्य वहां के कुछ व्‍यक्तियों नें आगे बढकर मृत्‍यु फरमान का परवाह किये बिना लम्‍बी भागदौड व

रावण का आकर्षण

9 अक्टूबर की संध्या दुर्ग के स्टेडियम से रावण दहन के बाद बाहर निकला । मुख्य दरवाजे के पास ही पीछे आ रहे परिवार के कुछ और सदस्यों का इंतजार करने लगा । भीड में से दस पंद्रह पुलिस वाले अचानक प्रकट हुए और सीटी बजाते हुए भीड में जगह बनाने लगे । सायरन की आवाज गूंजने लगी, मैंनें सोंचा कार्यक्रम में आये मंत्री हेमचंद यादव जी या मोतीलाल वोरा जी निकल रहे होंगें । सो अनमने से सायरन की आवाज की दिशा की ओर देखने लगा । नेताओं के लिये बनाई गई खुली जीप में रावण का श्रृंगार किये एक विशालकाय व भव्य शरीर का पुरूष हाथों में तलवार लहराते खडा था । जीप में राक्षसों का मुखौटा पहने व राजसी वस्त्र पहनें लगभग दस युवा भी थे जो लंकापति रावण की जय ! और जय लंकेश ! का जयघोष कर रहे थे । हूजूम का संपूर्ण ध्यान उस पर ही केन्द्रित हो गया । पलभर के लिए शरीर उस कृत्तिम आकर्षण व भव्यता  को देखकर रोंमांचित हो गया । गोदी में उठाए अपने भतीजे को उंगली के इशारे से रावण को दिखाया । मेरा पुत्र भी उस दृश्य व परिस्थितियों को देखकर रोमांचित हो रहा था । समूची भीड जो रास्ते के आजू बाजू खडी थी समवेत स्वर में जय लंकेश ! का घोष कर रही थ

कविता : छ.ग.के पुलिस प्रमुख के नाम एक खत

विश्‍वरंजन ! नहीं जानना चाहते हम कि तुम कवि हो, नहीं आत्‍मसाध होते भारी भरकम संवेदनाओं के गीत साहित्‍य में आपकी उंचाई कितनी है यह भी हम नहीं जानना चाहते जानना चाहते हैं तो बस एक सिपाही के रूप में आपकी उंचाई कितनी है नहीं जानना चाहते हम कि तुमने कितनी संवेदना बटोरी है हमारे लिए, अपनी कविताओं में हम जानना चाहते हैं कि तुमने कितनी संवेदना बिखेरी है बस्‍तर में नहीं जानना चाहते हम कि तुम्‍हारी दर्जनों किताबें छप चुकी हैं, कविताओं की हम जानना चाहते हैं कि तुमने कितने सिपाहियों के दिलों पर परित्राणाय साधुनाम् का ध्‍येय वाक्‍य अंकित कराया है हम नहीं जानना चाहते कि तुम किस कुल या वंशज से हो हम जानना चाहते हैं कि तुम मानवता के परिवार में संविधान के सच्‍चे पालक हो हम नहीं जानना चाहते कि तुम्‍हारे गीत कितनों नें गाया है हम नहीं जानना चाहते कि आप समकालीन या पूर्वकालीन कविता के बडे हस्‍ताक्षर हो हम जानना चाहते हैं कि तुमने ऐसी कोई कविता लिखी है जिसे बस्‍तर के जनमन नें गाया है हम यह भी नहीं जानना चाहते कि तुम्‍हारा बोरिया बिस्‍तर पल भर में यहां से जाने के लिए

एक सेमीनार की ऐसी बर्बादी देखने का मेरा यह अनोखा मौका था

. . . . . इस नौजवान नें हिंसक अंदाज में मुझसे कहा – ‘तुम्ही एक युद्ध अपराधी को कई-कई किश्तों में छापते हो ।‘  एक पल को उस भरे हुए हॉल के एक सिरे पर खडे हुए भी मुझे लगा कि यह नौजवान हमला कर सकता है, लेकिन फिर डर को खारिज करते हुए मैंनें पूछा – ‘कौन युद्ध अपराधी ?‘  ‘विश्वरंजन !’  ‘मैं नहीं जानता कि वे युद्धअपराधी हैं !’  ‘इसने सैकडों हत्यायें की है !’  ‘मेरी जानकारी में तो एक भी हत्या नहीं की है !’  ‘इसकी पुलिस नें सैकडों हत्यायें की है !’  ‘मुझे ऐसी हत्याओं की जानकारी नहीं है !’ वार्ता के यह अंश हैं बर्कले विश्वविद्यालय में आयोजित उस सेमीनार में उपस्थित एक प्रदर्शनकारी छात्र एवं दैनिक छत्तीसगढ के संपादक श्री सुनील कुमार जी के । विगत दिनों भारतीय लोकतंत्र पर केन्द्रित दो दिन के सेमीनार जिसमें एक सत्र बस्तर का भी था, में वक्ता के रूप में छत्तीसगढ से पुलिस महानिदेशक श्री विश्वरंजन जी व सुनील कुमार जी गए थे । इस विश्वविद्यालय की गरिमा इस बात से आंकी जा सकती है कि एक अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन में अभी इसे विश्व का महानतम विश्‍वविद्यालय पाया गया है । यहां 19 नोबेल व तीन पुलित्जर पुरस्कार विजेता

गणतंत्र और कानून साथ में टैंडर

  गणतंत्र और कानून पर कल रवीवार को रायपुर के प्रेस क्‍लब में छत्‍तीसगढ के पुलिस प्रमुख श्री विश्‍वरंजन जी नें अपना प्रभावी वक्‍तव्‍य दिया जिसे हम आज विभिन्‍न समाचार पत्रों के माध्‍यम से एवं आवारा बंजारा जी के पोस्‍ट से पढ पाये । भविष्‍य में हम आशा करते हैं कि उक्‍त कार्यक्रम में उपस्थित ब्‍लागर्स भाईयों के प्रयास से संपूर्ण वक्‍तव्‍य  पढने को मिल पायेगा ।  आज के समाचार पत्रों में इस खबर के साथ ही पुलिस विभाग का यह टैंडर भी प्रकाशित हुआ है जिसे पढने के बाद हमें लगा कि कम से कम इसे तो हमारे ब्‍लागर्स भाईयों के बीच पहुचाया जाए । तो भाईयों मत चूको चौहान .........

आर्य अनार्यों का सेतु : रावण

परम प्रतापी एवं शास्‍त्रों के ज्ञाता ब्राह्मण कुमार रावण का स्‍मरण आज समीचीन है क्‍योंकि आज के दिन का वैदिक महत्‍व उसके अस्तित्‍व के कारण ही है । हमारे पौराणिक ग्रंथों में रावण को यद्धपि विद्वान, नीतिनिपुण, बलशाली माना गया है किन्‍तु सभी नें उसे एक खलनायक की भांति प्रस्‍तुत किया है । एक कृति की प्रकृति एवं उसके आवश्‍यक तत्‍वों की विवेचना का सार यह कहता है कि, कृति में नायक के साथ ही खलनायकों या प्रतिनायकों का भी चित्रण या समावेश किया जाए । हम हमारे पौराणिक ग्रंथों को सामान्‍य कृति मानकर यदि पढते हैं तो पाते हैं कि रावण के संबंध में विवेचना एवं उसके पराक्रम व विद्वता का उल्‍लेख ही राम को एक पात्र के रूप में विशेष उभार कर प्रस्‍तुत करता है । चिंतक दीपक भारतीय जी अपनी एक कविता में कहते हैं - रावण तुम कभी मर नहीं सकते  क्योंकि तुम्हारे बिना राम को लोग कभी समझ नहीं सकते. . . खलनायक प्रतिनायक एवं सर्वथा सामान्‍य पात्रों को भी अब महत्‍व दिया जा रहा है उनके कार्यों का विश्‍लेषण कर उनके उज्‍जव पन्‍नों पर रौशनी डाली जा रही है । वर्तमान काल नें रावण के इस चरित्र का गूढ अध्‍ययन किया है, पौराण

डॉ.रत्‍ना वर्मा की पत्रिका उदंती .com अंक 2, सितम्‍बर 2008 नेट में उपलब्‍ध

अंक 2, सितम्‍बर 2008 इस अंक में - अनकही : ...पीने को एक बूंद भी नहीं संस्मरण / उफनती कोसी को देख याद आई शिवनाथ नदी की वह बाढ़ - संजीव तिवारी पर्यावरण/ सिक्के का दूसरा पहलू प्लास्टिक का कोई विकल्प है? - नीरज नैयर बदलाव / स्वास्थ्य छत्तीसगढ़ के अनूठे कल्याणी क्लब - स्वप्ना मजूमदार कला / अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता समाज का हिस्सा है कलाकृति - संदीप राशिनकर समाज / मैती आंदोलन जहां प्रेम का पेड़ लगाते हैं दूल्हा दुल्हन -प्रसून लतांत रिश्ते / जैसे को तैसा वसीयत में ठेंगा - डॉ. रत्ना वर्मा सपने में / बस्तर का सच यह केवल स्वप्न नहीं था - राजीव रंजन प्रसाद आपके पत्र / इन बाक्स उदंती.com का विमोचन उत्पादन / फलों का सरताज हिमाचल का काला सोना - अशोक सरीन कविता : जीवन का मतलब - बालकवि बैरागी रंग बिरंगी दुनिया रमन सरकार की कामयाबी पर विशेष पृष्ठ

दुर्ग में दुर्गोत्सव की धूम और उसकी जातीय चेतना

विनोद सा व रायपुर और राजनांदगांव गणेशोत्सव मनाने के लिए प्रसिद्ध हैं तो दुर्ग में हर साल दुर्गोत्सव की धूम होती है। कहा नहीं जा सकता कि दुर्ग में दुर्गोत्सव को इतनी धूमधाम से मनाने की ललक कहां से पैदा हुई। आरंभ में यहां गुजरातियों द्वारा दुर्गा पूजा मनायी जाती थी। हिन्दी भवन में भी दुर्गा प्रतिमा रखी जाती थी। दुर्गा का पेंडाल रेलवे स्टेशन में दिखा करता था रेल वे के कुछ बंगाली बाबुओं के सौजन्य से। पर बाद में यह दुर्गा पूजा दुर्ग में बहुत तेजी से चलन में आया। और यह दुर्गा पूजा गुजराती या बंगला प्रभाव से भिन्न भी रहा। चाहे दुर्गा निर्माण की मूर्तिकला हो या पूजा स्थल व इसके पेंडाल की सजावट हो या इसकी पूजा पद्धति हो यह पूरी तरह से अपनी मौलिकता और स्थानीयता बनाए हुए है। ऐसे लगता है कि दुर्ग में दुर्गा पूजा का जो चलन बढ़ा वह इस शहर से देवी के नाम का साम्य रहा। दुर्ग और दुर्गा नाम की समानता। यद्यपि एक वस्तु वाचक नाम है और दूसरा