पीलिया झाडना या उतारना : कितना सही कितना गलत? सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

पीलिया झाडना या उतारना : कितना सही कितना गलत?

2. हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास?
-पंकज अवधिया
इस सप्ताह का विषय
पीलिया झाडना या उतारना : कितना सही कितना गलत?

यूँ तो देश के विभिन्न हिस्सो मे अलग-अलग प्रकार की विधियो का प्रयोग किया जाता है पर आम तौर पर जब कोई रोगी आता है तो उसे दूधिया पानी से भरे पात्र मे खडे होने के लिये कहा जाता है। उसके बाद उपचार करने वाला कुछ मंत्र पढकर रोगी के शरीर पर हाथ फेरता है। उसके बाद जब उसके सिर से पानी उडेला जाता है तो वह नीचे पात्र के दूधिया पानी से मिलकर गहरा पीला रंग पैदा करता है। रोगी को कहा जाता है कि अब उसका पीलिया (जाँडिस) ठीक हो गया है। रोगी जब पीले रंग को देखता है तो समझता है कि सचमुच मंत्र शक्ति या जडी-बूटी के उपचार से उसका पीलिया ठीक हो गया। यह प्रयोग बडा सरल है।
दूधिया पानी दरअसल चूने का पानी होता है। उपचार करने वाले हाथो मे आम की अंतर छाल का चूर्ण लगाये होते है। इसी चूर्ण को मंत्रोपचार के दौरान रोगी के शरीर पर फेरा जाता है। फिर जब पानी डाला जाता है तो यह चूर्ण पानी के साथ दूधिया पानी तक पहुँचता है और वह पीला हो जाता है। अमीर से लेकर गरीब और सभी तरह के लोगो मे आप इस उपचार के प्रति आस्था देख सकते है। आमतौर पर इसके लिये फीस नही ली जाती और रोगी को कहा जाता है कि स्वेच्छा से जितना देना चाहे दे दे। रोगी या आम जनो को यह राज पता नही होता। आइये अब इस उपचार पर चर्चा करे। इस उपचार का राज जानने वाले इसे अन्ध-विश्वास मानते है और इसे अपनाने वाले को ठग कहते है।
मुझे स्कूल के दिनो की एक घटना याद आ रही है। हमारा एक मित्र हर बार फेल हो जाया करता था। थकहार के उसके पिता उसे रायपुर इंजीनियरिंग काँलेज के एक प्राध्यापक के पास ले गये। उन्होने एक पत्थर दिया और कहा कि इसे रात मे पानी मे डुबो देना और सुबह पानी पी लेना। देखना तुम्हारी मेहनत रंग लायेगी। सचमुच वह पास हो गया। हम लोग भी पत्थर की आस मे उनके पास पहुँचे तो उन्होने राज खोला कि यह तो पीछे मैदान से लाया गया साधारण पत्थर है। इसने तो केवल विश्वास जगाया। पास तो वह अपनी मेहनत से हुआ।

आप अंतरजाल की इस कडी पर जाये तो आपको ऐसे शोध परिणामो की जानकारी मिलेगी जिसमे बिना दवा के लोग ठीक हो गये। उन्हे सादी गोलियाँ दवा वाली गोलियाँ बता कर दी गयी। एक शोध परिणाम बताता है कि इससे सिर दर्द ठीक हो गया। होम्योपैथी मे भी दवा रहित गोलियो के प्रयोग को बहुत महत्व दिया गया है।

आधुनिक चिकित्सा ग्रंथो मे इसे फेथ हीलिंग अर्थात विश्वास आधारित उपचार का एक अंग माना गया है। मानसिक रोगो के उपचार मे इसका काफी उपयोग होता है। इस प्लेसिबो ट्रीटमेंट (यानि दवा रहित गोलियो या इसी तरह का उपचार) का प्रयोग आधुनिक शोधो मे भी होता है। आधुनिक चिकित्सा पद्ध्तियो मे ऐसी गोलियाँ सफलतापूर्वक उपयोग की जाती है। यह बडे ही आश्चर्य की बात है कि कैसे बिना दवा के रोगी ठीक हो जाता है या उसे लाभ पहुँचता है। इसका मतलब यह हुआ कि उसका अपना विश्वास बहुत बडा काम करता है। आपने इसी विश्वास के असर की झलक मुन्ना भाई एमबीबीएस मे भी देखी होगी। कहा भी गया है कि विश्वासम फलदायकम।
तो फिर अब जरा पीलिया झाडने वाले की विधि पर ध्यान करे। अपने को रोगी मान रहा व्यक्ति इस सहज प्रक्रिया से स्वयम को रोगमुक्त समझने लगता है। यह विश्वास निश्चित ही उसकी हालत को ठीक करता होगा जैसे कि प्लेसिबो ट्रीटमेंट के इस लिंक मे बताया गया है। फिर आधुनिक विज्ञान सही और पारम्परिक विज्ञान अन्ध-विश्वास कैसे हुआ? पारम्परिक विज्ञान को तो ज्यादा महत्व मिलना चाहिये क्योकि इसने इस उपचार की महत्ता पीढियो पहले ही जान ली थी। हाँ उस समय विकिपीडीया नही था इस ज्ञान के प्रमाणिक दस्तावेजो को इतनी सरलता से प्रस्तुत करने के लिये।

बतौर सदस्य अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति, रायपुर मुझे कुछ वर्षो पहले छत्तीसगढ मे सरायपाली के भूथिया गाँव जाने का अवसर मिला। वहाँ ऐसे ही पीलिया झाडने वाले के पास बडी संख्या मे लोग जमा थे। हमेशा की तरह समिति ने इसे अन्ध-विश्वास ठहराया। बाद मे अखबारो मे इस दौरे की खबर सुर्खियो मे छपी और हमने खूब वाह-वाही लूटी। पर आज भी यह उपचार उसी रूप मे भूथिया मे जारी है। लौटते वक्त समिति के संस्थापक सदस्य माननीय चन्द्रशेखर व्यास जी से मैने चर्चा की और इसके विज्ञान को जानने की कोशिश की। मै यह जानने व्यग्र था कि यदि यह ठगी है तो सब कुछ जानकर भी सभी तरह के लोग क्यो इतनी बडी संख्या मे आ रहे थे और लाभांवित होने की बात कह रहे थे।
भूथिया के लोगो ने एक राज की बात बतायी कि कुछ समय पहले ब्रिटेन से डाक्टरो का एक दल आया और उसने पूरी प्रक्रिया का फिल्माँकन किया। इसपर ढाई घंटे की फिल्म बनी। दो वर्ष पहले जब मै कोलकाता मे एक अंतरराष्ट्रीय विज्ञान सम्मेलन मे शोध पत्र पढने गया तो विदेशी विशेषज्ञो ने इस उपचार मे गहरी रूचि दिखायी। वे हमारे लोगो की तरह हँसे नही और न ही इसे अन्ध-विश्वास का दर्जा दिया बल्कि भारतीयो के इस उपचार करने के ढंग की प्रशंसा की। ब्रिटेन के एक वैज्ञानिक से मुझे उस फिल्म के बारे मे जानकारी मिली और भूथिया से मिली जानकारी की पुष्टि हुयी। हमे आश्चर्य नही होना चाहिये कि जिस पारम्परिक उपचार को हम अन्ध-विश्वास कहकर उसका मजाक उडाते रहे और अपनी पीठ थपथपाते रहे, कल उसी उपचार को पश्चिम अपनाकर लाभ लेने लगे और हमे इस ज्ञान के पैसे देने पडे। अपने ही देश मे ठुकराये गये भारतीय योग के पेटेण्ट की खबरे तो अब आने ही लगी है।

मैने इस दृष्टिकोण से इस उपचार का विश्लेषण किया है। हो सकता है कि आने वाले समय मे इसकी अलग ढंग से वैज्ञानिक व्याख्या हो। उपचार के दौरान मंत्र पढे जाते है। मंत्रो की महत्ता तो पूरी दुनिया अब जान गयी है। पर चूँकि यह मेरा विषय नही है अत: इस पर मै टिप्पणी नही करना चाहूंगा। आज का विज्ञान चूने के पानी मे खडे होने और पीलिया मे सम्बन्ध को नही जोड पाया है। विज्ञान मे तो नित नयी प्रगति होती है। हो सकता है भविष्य मे इसकी भी व्याख्या हो। विज्ञान खुले दिमाग से काम करता है। पर जिस तरह धर्म के ठेकेदार आम आदमियो से धर्म को अलग कर देते है उसी तरह विज्ञान के भी ठेकेदार होते है जो विज्ञान को अपनी बपौती समझते है। यही दृष्टिकोण हमे आगे बढने और खुलकर सोचने से रोकता है। आप ही बताइये कि आज यदि आम लोगो के विश्वास को बिना वैज्ञानिक व्याख्या किये अन्ध-विश्वास घोषित कर दे और बाद मे आधुनिक शोध इसके महत्व को सिद्ध कर दे तो क्या विज्ञान के ठेकेदार इस अपराध को अपने सिर पर लेने तैयार होंगे?
आप भी अपने विचार बताये ताकि इस पर खुलकर चर्चा हो। मुझे लगता है कि ऐसे अनूठे उपचारो को समझने और बचाने की जरूरत है पर हाँ यदि कोई ठगी करे और बहुत पैसे वसूले तो उस पर कार्यवाही होनी चाहिये। पर यह नियम तो सभी पर लागू है।
चलते-चलते

हमारे देश मे पीलिया का इस तरह से उपचार करने वालो को रोकने के लिये एक कानून है जिसका हवाला देकर हम अपने अभियानो मे गाँव वालो को डराया करते थे। एक बार बेमेतरा मे जब मै अभियान के दौरान आम लोगो से बात कर रहा था तो एक वयोवृद्ध सज्जन ने कहा कि यह देश हमारा है और हमारे लिये ही कानून बना है। यदि देश के बहुसंख्यक इसमे सुधार करना चाहते है तो यह भी सम्भव है। संजीव जी इस पर कुछ प्रकाश डाल सकते है।
जब मैने इस लेख को अपने मित्र को पढाया और उनके विचार माँगे तो उन्होने कहा कि वे भी कई बार दवा रहित इंजैक्शन का प्रयोग करते है और पूरी फीस भी लेते है पर यह ठगी नही बल्कि चिकित्सा की एक कला है। इससे रोगी का भला होता है तो इसमे बुराई क्या है?
पंकज अवधिया
अगले सप्ताह का विषय
क्यो कहा जाता है कि अमली (इमली) के वृक्ष मे भूत रहते है?

नागा गोंड जो जादू से शेर बन जाता था

श्री के. सी. दुबे के पुस्तक में उपरोक्त संदभो पर बिन्द्रानवागढ़ के गांव देबनाई का नागा गोंड का उदाहरण दिया है जो कि शेर के रूप में आकर 08 लोगो को नुकसान पंहुचा चुुका है। और जिसे वर्ष 38 या 39 में ब्रिटिश शासन ने गिरफ्तार किया था। जादू टोना का गहन जानकार और वेश बदलने में माहिर था । और इस बात की प्रमाण तत्कालीन ब्रिटिश शासन के रिकॉर्ड में दर्ज़ भी है। तत्कालीन जॉइंट सेक्रेटरी गृह मंत्रालय भारत शासन श्री जी. जगत्पति ने भी 27/7/1966 को इस पुस्तक मे लिखा था की भिलाई स्टील प्लांट जैसे आधुनिक तीर्थ से 15 मील के भीतर के गावो तक में लोग बुरी आत्माओ की उपस्थिति को आज भी मानते है। जानकारी यहॉं पढ़ें

टिप्पणियाँ

  1. इसके अलावा भी पीलिया के कुछ इलाज है जो जानकार लोग बिना फीस लिए करते हैं ।
    शुद्ध पानी का इन्जेक्शन तो मैंने भी देते देखा है । बहुत से लोग, विशेृकर अनपढ़ लोग सोचते हैं कि इन्जेक्शन नहीं लगा तो वे ठीक नहीं होंगे ।
    घुघूती बासूती

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    1. पीलिया से सम्बंधित जानकारी प्राप्त करने के लिए आप निचे दिए गए लेख जरूर पड़ें, यहाँ पर पीलिया के बारे में साड़ी जानकारी दी गई हैं, जैसे लक्षण, उपचार, घरेलु इलाज, आयुर्वेदिक इलाज आदि इस रोग में क्या खाये क्या न खाये सब कुछ दिया गया हैं आप इनको एक-एक कर सभी पड़ें ताकि आपको पीलिया के बारे में पूर्ण जानकारी हो जाए.

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  2. सचमुच मुख्य बात विश्वास की है यह माना जाता है कि अगर रोगी के मन में यह बात बस गयी है कि वो ठीक नही हो सकता तो महँगे से महँगा इलाज भी उसे ठीक नही कर सकता...और उसका खुद यह विश्वास करना की वह ठीक है उसे कुछ नही हुआ यह विश्वास होना ही उसके लिये दवा है...

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  3. इस पर मेरा स्‍वयं का अनुभव रहा है विगत पांच – छ: वर्ष पूर्व मुझे भी पीलिया हुआ था और वह हेपेटाटिस में तब्‍दील हो गया था । मुझे गंभीर हालत में भिलाई के सेक्‍टर 9 हास्‍पीटल में भर्ती कराया गया था । वहां इलाज के दौरान ही मुझे एक दो जगह चोरी झिपे झाडने व अन्‍य पारंपरिक चिकित्‍सा के लिए ले जाया गया था किन्‍तु मुझे किसी भी प्रकार से फायदा नहीं हुआ था, लोगों नें कहा कि यह गंभीर पीलिया है इस कारण असर नहीं हो पाया । सेक्‍टर 9 से भी मैं साधारण रूप से ओके होकर मेरे पारिवारिक चिकित्‍सक से ईलाज करवाया जहां मुझे लगातार ग्‍लूकोज की मात्रा व अन्‍य दवाईयां दी गई । मेरा अनुभव यह रहा कि पीलिया में दूषित रक्‍त शोधन के लिए आर्युवेदिक औषधि, जडी बूटियों (हल्‍दी का फूल, अमरबेल का रस, पलक जूस) का प्रभाव व लौह तत्‍व से भरपूर खाद्य पदार्थों का सेवन अतिलाभकारी होता है एवं ग्‍लूकोज की मात्रा पेट व रक्‍त को शक्ति प्रदान करने के लिए मुख्‍य उपाय है । मुझे लगभग पांच माह लगे थे बिस्‍तर से उठने में किन्‍तु इलाज एलोपैथी व पारंपरिक दोनो चला था ।

    इन्‍हीं दिनों में मेरा पीलिया के अनेक रोगियों से बातचीत हुई कईयों झाड फूंक से सौ प्रतिशत ठीक होते देखा एवं कईयों को इसी चक्‍कर में देरी करने से उपर जाते भी देखा । मेरा मानना है कि प्रारंभिक तौर पर पारंपरिक झाड-फूंक मनुष्‍य के मन में आस्‍था के रूप में रोगप्रतिरोधक क्षमता को विकसित कर देता है जिसके कारण रोग दूर हो जाता है किन्‍तु रोग के बढ जाने पर बाह्य प्रयोग के अतिरिक्‍त पारंपरिक जडी-बूटियों का भी प्रयोग करना चाहिए ।

    कानून के संदर्भ में हमारे व्‍यावहारिक विधान के अनुसार भारतीय दण्‍ड प्रक्रिया संहिता में धार्मिक भावनाओं से खिलवाड के विरूद्ध उपचार प्राप्‍त हैं जिसमें व अन्‍य पूर्वनिर्णयों में ऐसे कृत्‍य को मान्‍यता व बढावा देने को अनुचित कहा गया है पर जन आस्‍था के सम्‍मुख हर नियम व कानून निष्‍फल हो जाते हैं ।

    अभी छ.ग. के जोगी शासनकाल में बैगाओं, ओझाओं एवं पारंपरिक चिकित्‍सकों को मान्‍यता दिलाने के लिए सार्थक प्रयास समाचारों में दृष्टिगोचर हुए थे जो सराहनीय कदम था । राज्‍य स्‍तर पर तथ्‍यों व भावनाओं को उचित परिभाषित करने के बाद कानून बनाया जा सकता है जैसे टोनही के संबंध में बनाया गया है । क्षेत्रीय आस्‍था व ज्ञान के विरल होने के कारण संपूर्ण राष्‍ट के लिए लागू कानूनों में संशोधन उचित नहीं है पर राज्‍य को प्राप्‍त विधिक अधिकारों का प्रयोग राज्‍य को अवश्‍य करना चाहिए एवं इसके लिए नये कानून बनाने के संबंध में विचार करना चाहिए ।

    संजीव

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  4. आपकी सशक्त टिप्पणी के लिये आभार। हम जानते है कि सभी चिकित्सा प्रणालियो के अपने गुण-दोष है। इसीलिये अब समन्वित चिकित्सा प्रणाली की बात हो रही है जिसमे सभी प्रणालियो के अच्छे गुणो को शामिल किया जाये। इससे निश्चित ही आम आदमी ही का भला होगा।

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  5. एक बहुत अच्छे मुद्दे पर सटीक लेख!!

    जब तक शिक्षा से वंचित रहेगी हमारी जनता तब तक ऐसी बातें ही ज्यादा हावी होती रहेंगी!!

    पढ़ा लिखा वर्ग इन बातों पर तभी यकीन करने की सोचता है जब वह वैज्ञानिक, चिकित्सा आदि के तरीकों से निराश हो चुका होता है!

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