विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
हिन्दी साहित्य को जानने समझने वालों के लिए ‘छायावाद’ एक ऐसा विषय रहा है जिसकी परिभाषा एवं अर्थ पर आरंभ से आज तक अनेक साहित्य मनीषियों एवं साहित्यानुरागियों नें अपनी लेखनी चलाई है एवं लगातार लिखते हुए इसे पुष्ट करने के साथ ही इसे द्विवेदी युग के बाद से पुष्पित व पल्लवित किया है । छायावादी विद्वानों का मानना है कि, सन. 1918 में प्रकाशित जयशंकर जी की कविता संग्रह ‘झरना’ प्रथम छायावादी संग्रह था । इसके प्रकाशन के साथ ही हिन्दी साहित्य जगत में द्विवेदीयुगीन भूमि पर हिन्दी पद्य की शैली में बदलाव दष्टिगोचर होने लगे थे । देखते ही देखते इस नई शैली की अविरल धारा साहित्य प्रेमियों के हृदय में स्थान पा गई । इस नई शैली के आधार स्तंभ जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, सुमित्रानंदन पन्त और महादेवी वर्मा थे । कहा जाता है कि इस नई शैली को साहित्य जगत में परिभाषित करने एवं नामकरण करने का श्रेय पं.मुकुटधर पाण्डेय को जाता है । सन् 1918 से लोकप्रिय हो चुकी इस शैली के संबंध में सन् 1920 में जबलपुर से प्रकाशित पत्रिका ‘श्री शारदा’ में जब पं. मुकुटधर पाण्डेय जी की लेख माला का प्रकाशन आरंभ हुआ तब इस