सरखों में श्याम कार्तिक पूजा : प्रो. अश्विनी केशरवानी सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

सरखों में श्याम कार्तिक पूजा : प्रो. अश्विनी केशरवानी

छत्‍तीसगढ आदि काल से अपनी परम्परा, समर्पण की भावना, सरलता और उत्सवप्रियता के कारण पूरे देश में आकर्षण का केंद्र रहा है। यहां के लोगों का भोलापन और प्रकृति का निश्छल दुलार का ही परिणाम है कि यहां के लोग सुख को तो आपस में बांटते ही हैं, दुख में भी विचलित न होकर हर समय उत्सव जैसा महौल बनाये रखते हैं। किसी प्रकार का दुख इनके उत्सवप्रियता में कमी नहीं लाता। झूलसती गर्मी में इनके चौपाल गुंजित होते हैं, मूसलाधार बारिश में इनके खेत गमकते हैं और कड़कड़ाती ठंड में इनके खलिहान झूमते हैं। ''धान का कटोरा'' कहे जाने वाले इस अंचल के लोगों के रग रग में पायी जाने वाली उत्सवप्रियता, सहजता और वचनबद्धता कई तरीके से प्रकट होते हैं। ''श्याम कार्तिक महोत्सव ' उनमें से एक है जो छत्‍तीसगढ में अपनी तरह का अनूठा आयोजन है। नवगठित जांजगीर-चांपा जिले का एक छोटा सा गांव सरखों में मुझे यह अनूठा आयोजन देखने को मिला।

जांजगीर जिला मुख्यालय के नैला रेल्वे स्टेशन से मात्र ३-४ कि.मी. की दूरी पर एक छोटा सा गांव सरखों स्थित है। पक्की सड़क और निजी बस इस गांव को अन्य गांवों से जोड़ती है। सड़क के दोनों ओर खेत और खेतों में कटने के लिए तैयार धान की फसल। धान की सोंधी महक मेरे मन को प्रफुल्लित कर रही थी.. और हमारी मोटर सायकल धीरे धीरे प्रकृति के इस आनंद उत्सव का आनंद लेती जा रही थी। शंकर भाई गाड़ी चला रहे थे और बीच बीच में मेरे उल्टे सीधे प्रश्नों का उत्‍तर भी देते जा रहे थे। दिन भर के इंतजार के बाद शाम को सरखों जाने का संयोग बना था। कार्तिक पूर्णिमा का दिन वैसे भी छत्‍तीसगढ वासियों के लिये महत्वपूर्ण होता है। श्याम कार्तिक महोत्सव का अंतिम दिवस होने के कारण सड़कों में जबरदस्त भीड़ थी-औरत, मर्द, बच्चे, बूढ़े और मनचले युवकऱ्युवतियां पैदल, साइकिल, भैंसा गाड़ी, बस, टे्रक्टर और जीप में बैठकर जा रहे थे। सबकी एक ही मंजिल थी- सरखों। मेरी उत्सुकता बढ़ती ही जा रही थी, मन में कई प्रकार के प्रश्न उठ रहे थे...।

जांजगीर जिला कृषि के क्षेत्र में अत्यंत समृद्ध है और उनकी समृद्धतता यहां के खेतों में दो बार फसल होने के कारण है। यही नहीं बल्कि इस जिले में सरखों, जर्वे, सिवनी आदि गांवों में अनेक प्रतिभाएं छत्‍तीसगढ को गौरवान्वित करती रही है। उच्च शिक्षा, भारतीय प्रशासनिक सेवा, चिकित्सा आदि महत्वपूर्ण पदों पर यहां की प्रतिभाएं पदस्थ रही है। इससे यह गांव शुरू से चर्चित रहा है। ये बात अलग है कि ये प्रतिभाएं अपने गांव की ओर मुड़कर नहीं आये और उनकी उपेक्षा भाव माता पिता की बूढ़ी आंखों को जी भरकर रूलाया है और बूढ़ेपन में बिना सहारे जीने को मजबूर कर दिया है। इसे विडंबना नहीं तो और क्या कहें....?

शंकर भाई ने मोटर सायकल अचानक रोक दी- सरखों आ गया भई ! मेरी विचार श्रृंखला अचानक टूट गयी और मैं अपने को सरखों के भीड़ में पाया। शाम गहराती जा रही थी और रोशनी के बावजूद अंधेरापन महसूस हो रहा था। मुझे लगा दिन में आते तो अच्छा होता ? हम लोग एक भीड़ भरे घर में दाखिल हुए। लोगों ने वहां हमारा बड़ा आत्मीय स्वागत किया। एक महिला आगे आकर हमारा स्वागत करती हुई साधिकार बैठक में ले गई और मना करने के बावजूद जलपान करने के लिए ले आयी। शंकर भाई मेरा उनसे परिचय कराते हैं- ये अश्विनी केशरवानी हैं, चांपा के कालेज में पढ़ाते हैं और पेपर में लिखते भी हैं...श्याम कार्तिक महोत्सव देखने आये हैं..और ये इस गांव की सरपंच हैं- श्रीमती कुमारी बाई राठौर। मैंने हाथ जोड़कर उनका अभिवादन किया। उनकी सहजता, सादगी और आत्मीयता देखकर मैं अभिभूत हो गया। आज के स्वार्थी दुनियां में ऐसे लोग भी हैं जो नि:स्वार्थ होते हैं। पूरा गांव इसी भाव से से बाहर से आये मेहमानों, रिश्तेदारों के स्वागत सत्कार में लगा हुआ था। गांव में त्योहार जैसा माहौल था। गांव का ऐसा कोई भी घर नहीं था जहां मेहमान न आया हो ? वैसे भी कार्तिक मास सनातन धर्मी लोगों के लिए महत्वपूर्ण मास है। इस मास में सार्वाधिक व्रतोत्सव होते हैं। कार्तिक मास की कथाओं या पौराणिक प्रसंगों के कारण ही नहीं बल्कि भौगोलिक, पर्यावरण, वैज्ञानिक और ज्योतिष कारणों से भी महत्वपूर्ण है। कृतिका नक्षत्र जिस पूर्णिमा को होता है वह मास कार्तिक का होता है। चंद्रमा उच्च का होता है अर्थात् पितर प्राण पृथ्वी पर दूरी पर होते हैं और सौर प्राण पृथ्वी के करीब होता है। मास का प्रत्येक दिन, प्रत्येक क्षण महत्वपूर्ण होता है।

...और हम जब गांव के गुड़ी में पहुंचे तब श्री श्याम कार्तिक महाराज की शोभायात्रा निकल चुकी थी और गांव के बड़े बुजुर्ग इस आयोजन में सहभागी बने गुड़ी में उपस्थित थे। इस गांव का गुड़ी गांव के बीच में स्थित है। सामने पंचायत भवन है। गांव के चारों ओर छोटे बड़े तालाब हैं। तालाबों की उपादेयता पहले दैनिक उपभोग, स्नान-ध्यान और खेतों की सिंचाई आदि के लिए थी। छत्‍तीसगढ के गांव तालाबों के मामले में जरूर सम्पन्न है। लेकिन इन तालाबों से सिंचाई अब नाम मात्र को होता है। अब उसमें नहाने भी कोई नहीं जाता बल्कि उसमें मछली की खेती होती है। इससे ग्राम पंचायत की आमदनी होती है। शायद खेत इसीलिए सूखते जा रहे हैं? उसकी निर्भरता या तो वर्षा के पानी अथवा बिजली की मदद से बोरिंग पर है। बहरहाल, सरखों में नहर से सिंचाई होती है। यहां एक से पांच एकड़ खेत वाले किसान अधिक हैं और चांपा जमींदारी से जुड़े मालगुजार लाल अमीरसिंह जी का परिवार और कुछ ''पोठ किसान'' हैं। सभी सुसम्पन्न और तन, मन और धन से इस महोत्सव में अपनी भागीदारी देते हैं। गांव के बड़े बुजुर्ग श्री दादूराम साव, श्री झाड़ूराम साव, पूर्व सरपंच श्री भरतलाल राठौर ने मुझे बताया कि सब गांव की तरह हमारे गांव में भी दीपावली में गौरी पूजा किया करते थे। बरसों की इस परंपरा में एक बार ऐसा मोड़ आया कि श्री सोनाऊ केंवट का प्रस्ताव-'' हमारे गांव में क्यों न श्याम कार्तिक महाराज की मूर्ति स्थापित करके पूजा-अर्चना किया जाये..'' को गांव वालों ने आज से लगभग ४०-४२ साल पहले मान लिया था। तब से आज तक श्री श्याम कार्तिक महाराज की पूजा हम करते आ रहे हैं। बहुत दिनों तक श्री श्याम कार्तिक महाराज को एक लोहार के दुकान में बैठाते थे। कुछ ही वर्ष पहले सबकी सहमति से अब गांव के गुड़ी में श्री श्याम कार्तिक महाराज को बिठाने लगे हैं। एक वर्ष सरखों में तो दूसरे वर्ष बोड़सरा में यह महोत्सव होता है। जिस वर्ष सरखों में यह महोत्सव होता तो बोड़सरा में नवधा रामायण होता है। इसी प्रकार जिस वर्ष बोड़सरा में यह महोत्सव होता है तो सरखों में नवधा रामायण होता है। लेकिन सरखों में ही केवल श्री श्याम कार्तिक महाराज की मूर्ति स्थापित करके पूजा अर्चना की जाती है। कार्तिक मास के दूसरे पाख के छट से पूर्णिमा तक नौ दिन तक श्री श्याम कार्तिक महाराज की मयूर में विराजित छ: सिरों और बारह हाथ वाले मनमोहक मूर्ति की स्थापना की जाती है। साथ में शिव पार्वती और उसकी परिक्रमा करते श्री गणेश जी की प्रतिमा स्थापित करते हैं। अन्य झांकी में श्री कृष्ण जी की माखन खिलाते यशाोदा जी की मूर्ति होती है। ये मूर्तियां गांव के ही मूर्तिकार स्व. श्री शिवलाल श्रीवास, घासीराम आदि बनाते थे। वर्तमान में बलराम साव बनाते आ रहे हैं। इस उत्सव में नवयुवकों की पर्याप्त हिस्सेदारी होती है। श्री श्याम कार्तिक महोत्सव के अध्यक्ष श्री अजय सिंह राठौर, ने बताया कि इस महोत्सव मंे पूरा गांव एकजूट होकर कार्य करता है। स्वस्फूर्त होकर नवयुवक वालिंटरी करते हैं। घर की औरतें बाहर से आये बहू-बेटियों, रिश्तेदारों और मेहमानों की खातिरदारी करने में पूरा सहयोग करती हैं। इतने बड़े आयोजन में पुलिस की बिल्कुल आवश्यकता नहीं होती।

इस गांव में श्री श्याम कार्तिक महाराज की पूजा का प्रथम अधिकार पूर्व मालगुजार लाल अमीरसिंह के परिवार को प्राप्त है। नौ दिन तक चलने वाले इस महोत्सव में आप-पास के गांवों के सभी नागरिकों को सम्मिलित होने का निमंत्रण भेजा जाता है और सरखों में उनका आत्मीय स्वागत किया जाता है, जो अमूमन दूसरी जगह देखने को नहीं मिलता। चार वार्डो में निवासरत अनुसूचित जाति की बस्ती में स्वजातीय बंधुओं की मेहमान नवाजी भी उल्लेखनीय है। छोटे-बड़े हर प्रकार के दुकान, होटल आदि यहां लगता है। कार्तिक पूर्णिमा इस उत्सव का अंतिम दिन होता है। दोपहर में पूजा, हवन आदि के बाद श्री श्याम कार्तिक महाराज की शोभायात्रा निकलती है जो पूरे गांव की गलियों में भ्रमण करके पुन: गुड़ी में लायी जाती है और नवा तालाब में नाव खेलने के बाद रात्रि में उसे विसर्जित कर देते हैं। इस दृश्य को हजारों-लाखों आंखें अपलक निहारते हैं। पंचायत द्वारा जल ग्रहण मिशन के सहयोग से इस तालाब को बंधाने का कार्य किया गया है। लेकिन चारों ओर से सर्च लाइट लगाकर नांव खेलने के दृश्य को फोकस किया जाये तो यह दृश्य और आकर्षक बन सकता है। लेकिन प्रशासन, दैनिक समाचार पत्रों और मीडिया की नजरों से दूर इस गांव की यह अनूठी परंपरा स्वस्फूर्त रूप से बदस्तूर जारी है। शोभायात्रा के दौरान हर घर के सामने उनकी पूजा-अर्चना कर आरती उतारी जाती है। सबके सहयोग से श्री श्याम कार्तिक महाराज की शोभायात्रा निर्विघ्न सम्पन्न होती है। कवि किशोर पांडेय गाते हैं :-

जय स्कंद कारतिक स्वामी। चराचरन के अंतर जामी।।
सकल परानी के हिय कंदर। बइठे नित गुह बनके उज्जर।।
कउनो आरो तब नहिं पावैं। नांव ठांव सब गुपुत बतावैं।।
तैं हस स्वयं गुपुत के ज्ञाता। जय जय हे गनपति के भ्राता।।
मइहन परम अनु ले जादा। हव महान तुम कतका गादा।।
जानकार करन कारज के। तन अवतरिस पझरिहा रज के।।
गरभ ले खसल परै उमा के। पाय सरूप परम अतमा के।।

स्कंद पुराण के अनुसार श्री गणेश के अग्रज कार्तिक महाराज आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने और शिव भक्ति का दक्षिण भारत में प्रचार करने के लिए जप तप करने लगे। दक्षिण भारत में कार्तिक भगवान को ''श्री मुरगुन स्वामी'' के रूप में पूजा जाता है। कवि किशोर की बानगी पेश है :-

देउता तीरिथ रिसि अउ मुनी। दउड़य करौंच कातिक पुन्नी।।
दक्खन परमुख देव कहावैं। मुरगुन स्वामी नाव धरावैं।।
ब्रह्मचर्य के शक्ति देवैया। शुभदानी अउ पाप हरैया।।
हवै मंजुर के तुंहर सवारी। जै शिखि ध्वज अखंड ब्रह्मचारी।।

ब्रह्मचर्य, शक्ति और श्री रूद्रायामल तंत्र के अन्नो बढ़ाने वाले श्री श्याम कार्तिक महाराज के बखान इन शब्दों में सुनिये :-
छह मुखमंडल कमल हे प्रमुदित। बारह विशाल नयन आनंदित।।
बाजू बारह उठे अकाशा। बारह धरय अस्त्र अघनाशा।।
शांत चतुरभुज रूप तव सुघरा। हाथ अभय वर शक्ति अउ कुकरा।।
तैं उन मंगलवार के राजा। बाधा नाश तुंहर हे काजा।।
परम पबित हे तोर सरूपा। जय जय सुर सिरमोर युधूपा।।

दक्षिण भारत में पूजित श्री श्याम कार्तिक स्वामी यूं अचानक जांजगीर क्षेत्र में कैसे पूजे जाने लगे यह प्रश्न आज भी अनुत्‍तरित है। लेकिन इनकी पूजा की अनूठी परंपरा से सरखों, बोड़सरा और खोखरा और इस क्षेत्र के लोगों में आपसी भाईचारा का संदेश लोकहित में उचित भी है। मुझे सरपंच काकी की बात ''...कारतिक महराज के दरसन करा, घर में खाहा-पीहा, रथिया मा गम्मत देखिहा अउ बिहना जाहा..। में महोत्सव का सारा निचोड़ दिखता है। उन्हें मेरा साधुवाद।

रचना, आलेख, फोटो एवं प्रस्तुति -

प्रो. अश्विनी केशरवानी
''राघव'' डागा कालोनी,
चांपा-४५६७१ ( छत्‍तीसगढ )

टिप्पणियाँ

  1. कार्तिक पूजा का वर्णन सुंदर गीत के साथ बहुत अच्छा लगा/इस प्रस्तुती के लिये धन्यवाद/

    जवाब देंहटाएं
  2. पहली बार आपके ब्लॉग पर आया। बहुत शानदार । साधुवाद

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

भट्ट ब्राह्मण कैसे

यह आलेख प्रमोद ब्रम्‍हभट्ट जी नें इस ब्‍लॉग में प्रकाशित आलेख ' चारण भाटों की परम्परा और छत्तीसगढ़ के बसदेवा ' की टिप्‍पणी के रूप में लिखा है। इस आलेख में वे विभिन्‍न भ्रांतियों को सप्रमाण एवं तथ्‍यात्‍मक रूप से दूर किया है। सुधी पाठकों के लिए प्रस्‍तुत है टिप्‍पणी के रूप में प्रमोद जी का यह आलेख - लोगों ने फिल्म बाजीराव मस्तानी और जी टीवी का प्रसिद्ध धारावाहिक झांसी की रानी जरूर देखा होगा जो भट्ट ब्राह्मण राजवंश की कहानियों पर आधारित है। फिल्म में बाजीराव पेशवा गर्व से डायलाग मारता है कि मैं जन्म से ब्राह्मण और कर्म से क्षत्रिय हूं। उसी तरह झांसी की रानी में मणिकर्णिका ( रानी के बचपन का नाम) को काशी में गंगा घाट पर पंड़ितों से शास्त्रार्थ करते दिखाया गया है। देखने पर ऐसा नहीं लगता कि यह कैसा राजवंश है जो क्षत्रियों की तरह राज करता है तलवार चलता है और खुद को ब्राह्मण भी कहता है। अचानक यह बात भी मन में उठती होगी कि क्या राजा होना ही गौरव के लिए काफी नहीं था, जो यह राजवंश याचक ब्राह्मणों से सम्मान भी छीनना चाहता है। पर ऊपर की आशंकाएं निराधार हैं वास्तव में यह राजव

क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है?

8 . हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास? - पंकज अवधिया प्रस्तावना यहाँ पढे इस सप्ताह का विषय क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है? बैगनी फूलो वाले कंटकारी या भटकटैया को हम सभी अपने घरो के आस-पास या बेकार जमीन मे उगते देखते है पर सफेद फूलो वाले भटकटैया को हम सबने कभी ही देखा हो। मै अपने छात्र जीवन से इस दुर्लभ वनस्पति के विषय मे तरह-तरह की बात सुनता आ रहा हूँ। बाद मे वनस्पतियो पर शोध आरम्भ करने पर मैने पहले इसके अस्तित्व की पुष्टि के लिये पारम्परिक चिकित्सको से चर्चा की। यह पता चला कि ऐसी वनस्पति है पर बहुत मुश्किल से मिलती है। तंत्र क्रियाओ से सम्बन्धित साहित्यो मे भी इसके विषय मे पढा। सभी जगह इसे बहुत महत्व का बताया गया है। सबसे रोचक बात यह लगी कि बहुत से लोग इसके नीचे खजाना गडे होने की बात पर यकीन करते है। आमतौर पर भटकटैया को खरपतवार का दर्जा दिया जाता है पर प्राचीन ग्रंथो मे इसके सभी भागो मे औषधीय गुणो का विस्तार से वर्णन मिलता है। आधुनिक विज्ञ

क्या कौरव-पांडव का पौधा घर मे लगाने से परिवार जनो मे महाभारत शुरु हो जाती है?

16. हमारे विश्वास , आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक , कितने अन्ध-विश्वास ? - पंकज अवधिया प्रस्तावना यहाँ पढे इस सप्ताह का विषय क्या कौरव-पांडव का पौधा घर मे लगाने से परिवार जनो मे महाभारत शुरु हो जाती है? आधुनिक वास्तुविदो को इस तरह की बाते करते आज कल सुना जाता है। वे बहुत से पेडो के विषय ने इस तरह की बाते करते है। वे कौरव-पांडव नामक बेलदार पौधे के विषय मे आम लोगो को डराते है कि इसकी बागीचे मे उपस्थिति घर मे कलह पैदा करती है अत: इसे नही लगाना चाहिये। मै इस वनस्पति को पैशन फ्लावर या पैसीफ्लोरा इनकार्नेटा के रुप मे जानता हूँ। इसके फूल बहुत आकर्षक होते है। फूलो के आकार के कारण इसे राखी फूल भी कहा जाता है। आप यदि फूलो को ध्यान से देखेंगे विशेषकर मध्य भाग को तो ऐसा लगेगा कि पाँच हरे भाग सौ बाहरी संरचनाओ से घिरे हुये है। मध्य के पाँच भागो को पाँडव कह दिया जाता है और बाहरी संरचनाओ को कौरव और फिर इसे महाभारत से जोड दिया जाता है। महाभारत मे इस फूल का वर्णन नही मिलता है और न ही हमारे प्राचीन ग्रंथ इसके विषय मे इस तरह क