विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
मानक छत्तीसगढी व्याकरण एवं छत्तीसगढी शव्दकोश छत्तीसगढ राज्य के निर्माण के साथ ही छत्तीसगढी भाषा को राजभाषा का दर्जा भी दे दिया गया । अब इस भाषा के विकास के लिये सरकार की सुगबुगाहट के साथ ही स्वैच्छिक रूप से क्षेत्र के विद्वानों के द्वारा सहानुभूतिपूर्वक सक्रियता दिखाई जा रही है । भाषा के मानकीकरण के लिये ख्यात भाषाविद डॉ.चित्तरंजन कर एवं प्रदेश की एकमात्र नियमित छत्तीसगढी भाषा की पत्रिका ‘लोकाक्षर’ नें अपने प्रयास आरंभ कर दिये हैं । छत्तीसगढ में भाषा के विकास के लिये ‘व्याकरण’ एवं ‘शव्द कोश’ पर निरंतर गहन शोध व संशोधन हुआ है एवं समय समय पर छत्तीसगढी व्याकरण व शव्द कोश का प्रकाशन भी होते रहा है । व्याकरण के लेखक चाहे जो भी हों किन्तु प्रत्येक प्रकाशन के साथ ही इसमें निखार आता गया है । छत्तीसगढ में छत्तीसगढी सहित अन्य कई बोलियां बोली जाती है, छत्तीसगढी भाषा में भी स्थान स्थान के अनुसार से किंचित भिन्नता है इस कारण छत्तीसगढी के मानक व्याकरण की बहुत समय से प्रतीक्षा थी । इस प्रतीक्षा को दूर किया चंद्र कुमार चंद्राकर जी की कृति ‘मानक छत्तीसगढी’ नें । छत्ती