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जनवरी, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

उदंती.com मासिक पत्रिका वर्ष 1, अंक 6, जनवरी 2009

अनकही : जनता की आशाओं का कमल फिर खिला यात्रा कथा / वादियां :ऊष्मा से भर देने वाला सतपुड़ा - गोविंद मिश्र राजनीति / छत्तीसगढ़ : विकास की धमक और चावल की महक - परितोष चक्रवर्ती बातचीत / महेश भट्ट : पैसा कमाना फिल्म की बुनियादी शर्त है - मधु अरोड़ा   गजलें : नया साल हमसे दगा न करे - देवमणि पांडेय कला / चित्रकार : रंग मुझे अपनी ओर बुलाते हैं : सुनीता वर्मा - उदंती फीचर्स पर्यावरण / ग्लोबल वार्मिंग : संकट के भूरे बादल - प्रो. राधाकांत चतुर्वेदी यादें / पुण्य तिथि : जब गुलाब के फूल देख कर कमलेश्वर गदगद हुए - महावीर अग्रवाल लघुकथाएं 1. थप्पड़ 2. सार्थक चर्चा - आलोक सातपुते नोबेल पुरस्कार / साहित्य : भारतीय संस्कृति के उपासक क्लेजिओ - पी. एस. राठौर अंतरिक्ष / बढ़ते कदम : आओ तुम्हें चांद पे ले जाएं - प्रवीण कुमार क्या खूब कही : एक फोन से पूरी ..., बूढ़े बिल्ले ने पहने... अभियान / मुझे भी आता है गुस्सा :   इन्हें क्यों नहीं आती शर्म ? - वी. एन. किशोर   इस अंक के रचनाकार आपके पत्र / मेल बॉक्स रंग बिरंगी दुनिया - 1. सोलर कार में... 2. अनोखा क्लब 3. खोई अंगूठी का मिलना

मुक्तिबोध की मशाल जलती रहे

प्रसिद्ध आलोचक चिंतक डा. नामवर सिंह ने इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ रायपुर के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित बारहवें मुक्तिबोध नाट्य समारोह एवं कला उत्सव में १० जनवरी को चित्रकार स्व. आसिफ की कला प्रदर्शनी का उद्घाटन किया । इसी क्रम में मंच पर दीप प्रज्वलित कर नौ दिवसीय नाट्य समारोह का शुभारंभ करते हुए कहा , '' असल चीज है नाटक । भरत वाक्य के रूप में भाषण होना चाहिए , इसलिए दिल पर पत्थर रखकर आपका आदेश स्वीकार करता हूँ । मैं अपने आपको धन्य मानता हूँ कि मुक्तिबोध जी की स्मृति में हो रहे इस समारोह को देखने के लिए जिंदा हूँ । इप्टा और प्रलेसं के साथ मुक्तिबोध को छत्तीसगढ़ की राजधानी ने जिंदा रखा है । मुक्तिबोध ने ` अंधेरे में ' कविता लिखी । अंधेरा आज और गहरा हो गया है , इस अंधेरे के कई रूप हैं । यह सब कुछ मुक्तिबोध ने पहले देख लिया था। जो बारात अंधेरे में दिखती थी वह अब दिन दहाड़े दिखती है । यह दूर द्यिष्ट जिस कहानीकार या कवि में मिल सकती है वह मुक्तिबोध है । अंधेरा गहरा होता जा रहा है , जिस अंधेरे का जिक्र उन्होंने अपनी रचनाओं में किया था , उस लड़ाई से संघर्ष की ताकत और जीतने का व

हबीब का योग्‍य शिष्‍य : अनूप रंजन पांडेय

छत्‍तीसगढी लोक नाट्य विधा तारे नारे के संरक्षक छत्‍तीसगढ के ठेठ जडों से भव्‍य नागरी रंगमंचों तक सफर तय करने वाले रंगमंच के ऋषि हबीब तनवीर को कौन नहीं जानता उन्‍होंनें न केवल छत्‍तीसढी संस्‍कृति और लोक शैलियों को आधुनिक नाटकों के रूप में संपूर्ण विश्‍व में फैलाया वरण एक पारस की भांति अपने संपर्क में आने वाले सभी को दमकता सोना बना दिया । इन्‍हीं में से माटी से जुडा एक नाम है अनूप रंजन पाण्‍डेय जिन्‍होंने 'नया थियेटर` के साथ ही 'पृथ्वी थियेटर` मुंबई, 'सूत्रधार` भोपाल, 'रंगकर्मी` कोलकता, जैसी नाटय संस्थाओं और पदम भूषण हबीब तनवीर, ब.व.कारन्त, रतन थियम, के.एन.पन्निकर, मारिया मूलर, बी.के.मुकर्जी, उषा गांगुली, तापस सेन, बी.एम.शाह जैसे विभूतियों से जुड़कर नाटक के क्षेत्र में नित नये प्रयोग किए और रंगमंचीय अभिनय को अपनी प्रतिभा और मंजे हुए अभिनय से नई उंचाइयां दी । रंगमंच और अभिनय अनूप के जीवन का अभिन्न हिस्सा है। जन्मजात प्रतिभा से युत श्री पांडेय विद्यार्थी जीवन में ही छत्तीसगढ़ी लोक नाटय 'नाचा` में जीवंत अभिनय कर अपनी योग्यता से स्‍थानीय कला जगत को परिचित करा दिया था इन प्

`सापेक्ष' के सपने सच होने लगे हैं (Sapeksh)

संपादक महावीर अग्रवाल से संजीव तिवारी की बातचीत हिन्दी की साहित्तिक लघु पत्रिकाओं में शीर्षस्थ ‘पहल’ के साथ-साथ साहित्यकारों एवं पाठकों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता सिद्ध करते हुए ‘सापेक्ष’ नें एक लम्बी‍ यात्रा तय की है, जिसमें अनेक लब्धतप्रतिष्ठित साहित्यकारो पर केन्द्रित अंकों के साथ ही दर्शन, विधा एवं वाद पर केन्द्रित सराहनीय अंक ‘सापेक्ष’ के प्रकाशित हुए हैं । अब तक के प्रकाशित 50 अंकों में से प्रत्ये,क अंक संग्रहणीय हैं । वर्तमान में ‘सापेक्ष’ का पचासवां अंक प्रकाशित हुआ है जो आलोचना एवं आलोचक पर केन्द्रित एतिहासिक व महत्वपूर्ण विशोषांक है, इसमें हिन्दी साहित्य के 50 आलोचकों एवं साहित्यकारों पर सामाग्री संग्रहित है । इसका अवलोकन करने के उपरांत हमने ‘सापेक्ष’ के संपादक श्री महावीर अग्रवाल जी से एक मुलाकात की, मुलाकात के समय हुए संक्षिप्ते चर्चा सुधी पाठकों के लिए प्रस्तुत है - संजीव तिवारी - किसी भी लघु पत्रिका के 50 अंक छपना एक बड़ी घटना है । सापेक्ष का 50 वां अंक छपकर आया है । आप कैसा महसूस कर रहे हैं ? महावीर अग्रवाल - अभी `सापेक्ष' 49 `विज्ञान का दर्शन : फ्रेडरिक एंगेल्

तुकबंदी व्‍यक्ति को कवि न सहीं भावनात्‍मक तो बनाती ही है

आरकुट में मेरे नगर के मित्र हैं एक्‍साईज इंसपेक्‍टर श्री सूर्यकांत गुप्‍ता जी, जब से इनसे आरकुट में मुलाकात हुई है तब से, गुप्‍ता जी बराबर मुझे तुकबंदी में ही स्‍क्रैप भेज रहे हैं, भेजे गये स्‍क्रैपों में ‘कविता जैसा कुछ’ विद्यमान रहता है इस कारण उसे पढने में आनंद आता है और तुकबंदी में मिश्रित हास्‍य का पुट गुदगुदाता है । गुप्‍ता जी यदि ऐसे ही स्‍क्रैप लिखते रहे तो निश्चित है एक दिन वे कवि हो जायेंगें । आप यूं ही अगर मुझसे मिलते रहें ..... की तर्ज पर । हमारी शुभकामनायें, मित्र हमारी बिरादरी में शीध्र ही आयें, ताकि हिन्‍दी ब्‍लागजगत हिन्‍दी दस्‍तावेजों से समृद्व हो, इन्‍हीं शुभकामनाओं सहित । आप भी गुप्‍ता जी द्वारा मुझे भेजे गये स्‍क्रैपों का आनंद लेवें - महराज पाय लगी. कैसे हस जी तय संगवारी नाव हे तोर संजय तिवारी इसने रहिबो बिन बात चीत के तौ कैसे चलही दोस्ती यारी कम से कम आवव तो हमर दुआरी 0000 आ रहा है नया साल सबको रखे खुशहाल जश्न भी हो जोश भी हो उत्साह हो उमंग तत्पर हों लड़ने को जीवन में हर जंग (किसी भी समस्या से जूझने को) भूलें बीती बातों को प्रभु की दी हुई सौगातों को संजो के

नये वर्ष का धूम धडाका और फोन की घंटी

अंग्रेजी नये वर्ष के उत्‍साह और उमंग में संपूर्ण विश्‍व के साथ साथ भारत भी मुम्‍बई धमाकों के टीस को दिल में बसाये 31 दिसम्‍बर की रात को झूमता गाता रहा । हमारी परम्‍परा एवं परिपाटी चैत्र प्रतिपदा से नये वर्ष की रही है किन्‍तु "चलन" नें इसे बिसरा दिया है । दुनियॉं के साथ कदम पे कदम मिलाते हुए आगे बढने के लिए एवं कुछ व्‍यवसायगत आवश्‍यकताओं के कारण बडे व प्रतिष्ठित होटलों  को भी 'नये वर्ष' के आगमन में ऐसे ही आयोजनों का प्रबंध करना पडता है और मन रहे न रहे प्रतिस्‍पर्धा में ताल ठोंकना पडता है । 15 दिसम्‍बर से समाचार पत्रों के विज्ञापन प्रतिनिधियों के फोन एवं उनके मिलने आने का सिलसिला बढ जाता है, आजकल समाचार पत्रों में भी व्‍यावसायिकता इस कदर हावी है कि विज्ञापन विभाग के कर्मचारी बाकायदा पीछे लग जाते हैं बीमा कंपनी या नेटवर्क मार्केटिंग कम्‍पनी के एजेंटों की तरह । चलन एवं इनको उपकृत करने (यह भी एक प्रकार की व्‍यावसायिक आवश्‍यकता है)  के कारण इनकी इच्‍छाओं के चलते विज्ञापन भी छापे जाते हैं । जैसे तैसे पेलते ढकेलते सजावट, डीजे, आर्केस्‍ट्रा, इनामों व कूपनों के इंतजाम के साथ

नहीं बिखरा, अधिक निखरा, बस सघन हूं मैं .....

शब्‍द तो सभी बोलते हैं छापते हैं मूल्‍यवान होते हैं शब्‍दकोश में तो शब्‍दों की सर्वाधिक भीड ही होती है लेकिन कवि के द्वारा प्रयुक्‍त कविता के शब्‍द कुछ भिन्‍न ही हुआ करते हैं क्‍योंकि समय आने पर कवि तो मर जाता है परन्‍तु कविता के शब्‍द अनन्‍त काल तक मुखर बने रहते हैं । नारायण लाल परमार 01.01.1927 - 27.04.2003 कोई अफसोस नहीं बीत गई रात का  मुझको विश्‍वास बहुत इस नये प्रभात का   गत पांच दशकों में हिन्‍दी गीत की परम्‍पराओं के साथ समकालीन भावबोध का कुशल संयोजन करके अपार सफलता एवं प्रतिष्‍ठा अर्जित करने वाले प्रदेश के वरिष्‍ठ गीतकार आदरणीय स्‍व.नारायण लाल परमार जी को नमन, वंदन ... श्रद्धासुमन  .. संजीव तिवारी