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फ़रवरी, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

हुसैन: अभिव्यक्ति और नागरिकता

शीर्ष कलाकार मकबूल फिदा हुसैन अपने जीवन के अंतिम वर्षों में फिर विवाद और सुर्खियों के घेरे में हैं। उन्हे कतर जैसे छोटे से देश ने नागरिकता देने का प्रस्ताव दिया है। संविधान के अनुसार यदि हुसैन वह नागरिकता कुबूल करते हैं तो वे भारत के नागरिक नहीं रह जाएंगे। हुसैन पिछले कुछ वर्षों से उग्र हिन्दुत्व के हमलों से परेशान होकर विदेशों मे ही रह रहे हैं लेकिन अपनी कला साधना से विरत नहीं हैं। यह भी कहा जा रहा है कि नागरिकता का यह शिगूफा इसलिए विवादग्रस्त हो जाएगा क्योकि समझा तो यही जाएगा कि हुसैन उन पर हुए पिछले हमलों को देखते हुए भारत में अपनी जान को जोखिम में नहीं डाल सकते। यह भी चखचख बाजार में है कि भारत सरकार को चाहिए कि वह ऐलान करे कि वह हुसैन की रक्षा करेगी और उन्हे घबराने की जरूरत नहीं है। हुसैन और देश के सामने फिलहाल शाहरुख खान का ताजा मामला है। उसे देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि भारत सरकार या राज्यों की सरकारें पूरी तौर पर हुसैन को संभावित हमलों से बचा ही लेंगी। यदि माहौल में तनाव भी रहा तो एक 95 वर्षीय वृद्ध व्यक्ति पर हमला ही तो होगा। लेकिन इसके बावजूद यह हुसैन को भी सोचना होगा कि

मन मतंग मानय नहीं जब लगि धका न खाय ...........

फागुनी बयारों में कबीर के दोहों के साथ वाचिक परम्परा के सुमधुर फाग गीत गांव-गांव में गाये जा रहे हैं. नगाडे और मादर की थाप पर समूह में गाये जा रहे पुरूष स्वर रात को कस्बो-गांवों से गुजरजे हुए दूर तक कानों में मिश्री घोल रहे हैं और हम हिन्दी ब्लागजगत से दूर कार्यालयीन कार्यों से यहां-वहां भटक रहे हैं, फाग और डंडा गीतों को गुनगुनाते हुए. इस बीच दो चार पोस्टो पर ही नजर पड पाई है उसमें पिछले रात को राजकुमार सोनी भईया के बिगुल के पोस्ट 'ढाई हजार मौतें ...' नें झकझोर सा दिया, मौतों पर होते खेलों के बीच 'छत्तीसगढिया' और 'बिहारी' के सत्य नें तो हृदय में और करारा वार किया, इस 'ढाई हजार मौतें ...' पर शरद कोकाश भईया नें कहा कि '.....दुष्यंत याद आ रहे हैं .. गिड़गिड़ाने का यहाँ कोई असर होता नहीं / पेट भर कर गालियाँ दो आह भरकर बद्दुआ'   हालांकि उन्होनें अपनी टिप्पणी में बद्दुआ देने से भी मना किया पर इसके सिवा और कोई चारा बचता ही नहीं, यही आत्मसंतुष्टि है. हम जानते हैं कि बद्दुआ देने से लोगों के मानस में बैठा शैतान मर नहीं जायेगा फिर भी ...., जैसे हम स्वां

मेरी माँ ने मुझे प्रेमचन्द का भक्त बनाया : गजानन माधव मुक्तिबोध

एक छाया-चित्र है । प्रेमचन्द और प्रसाद दोनों खड़े हैं । प्रसाद गम्भीर सस्मित । प्रेमचन्द के होंठों पर अस्फुट हास्य । विभिन्न विचित्र प्रकृति के दो धुरन्धर हिन्दी कलाकारों के उस चित्र पर नजर ठहरने का एक और कारण भी है । प्रेमचन्द का जूता कैनवैस का है, और वह अँगुलियों की ओर से फटा हुआ है । जूते की कैद से बाहर निकलकर अँगुलियाँ बड़े मजे से मैदान की हवा खा रही है । फोटो खिंचवाते वक्त प्रेमचन्द अपने विन्यास से बेखबर हैं । उन्हें तो इस बात की खुशी है कि वे प्रसाद के साथ खड़े हैं, और फोटो निकलवा रहे हैं । इस फोटो का मेरे जीवन में काफी महत्व रहा है । मैने उसे अपनी माँ को दिखाया था । प्रेमचन्द की सूरत देख मेरी माँ बहुत प्रसन्न मालूम हुई । वह प्रेमचन्द को एक कहानीकार के रूप में बहुत-बहुत चाहती थी । उसकी दृष्टि से, यानी उसके जीवन में महत्व रखने वाले, सिर्फ दो ही कादम्बरीकार (उपन्यास लेखक) हुए हैं - एक हरिनारायण आप्टे, दूसरे प्रेमचन्द । आप्टे की सर्वोच्च मराठी कृति, "उनके लेखे, पण लक्षान्त कोण देती है", जिसमें भारतीय परिवार में स्त्री के उत्पीड़न की करूण कथा कही गयी है । वह क्रान्तिकारी

पंडवानी की पुरखिन दाई श्रीमती लक्ष्मी बाई

छत्तीसगढ़ की मंचीय कला के विविध रूपों से आज हम सब खूब परिचित है। भरथरी की विख्यात गायिका सुरूजबाई खांडे, पंथी के अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के कलाकार देवदास बंजारे तथा पंडवानी के चमकते सितारों में पद्मभूषण तीजनबाई , श्रीमती ऋतु वर्मा ने खूब यश प्राप्त किया है। इनसे छत्तीसगढ़ की कीर्ति बढ़ी है। पंडवानी विधा के कलाकार दुर्ग जिले में विशेष रूप से पनपे। पंथी के शीर्ष कलाकार देवदास बंजारे भी इसी जिले के धनोरा ग्राम के निवासी है। लेकिन पंडवानी के प्रथम यशस्वी पुरूष कलाकार स्व. झाडूराम देवांगन और प्रथम चर्चित पंडवानी गायिका श्रीमती लक्ष्मीबाई ने इस जिले का गौरव पहले पहल बढ़ाया। झाडूराम देवांगन की प्रस्तुति देखकर पूनाराम निषाद आगे बढ़े। ठीक उसी तरह 60 वर्षीय लक्ष्मीबाई का प्रभाव महिला कलाकारों पर रहा। जब लक्ष्मीबाई कीर्ति के शिखर पर थीं तब तीजनबाई मात्र आठ नौ वर्ष की रही होगी। अपने कई साक्षात्कार में पद्मभूषण तीजनबाई ने इस तथ्य को स्वीकारा है कि लक्ष्मीबाई से उन्हे भी प्रेरणा मिली। लेकिन लक्ष्मीबाई मंच की पहली पंडवानी गायिका नहीं है। उनसे पहले सुखियाबाई पंडवानी गाती थी। रायपुर के पास स्थित &

ब्लॉगर्स सम्मेलन और भाषा साहित्य सम्मेलन

"एक समय था जब हिन्दी साहित्य सम्मेलन भारत में आयोजित होता था तब सम्मेलन के पूर्व रैली निकाली जाती थी जिसमें भारी संख्या में हिन्दी प्रेमी ढोल बैंड बाजों के साथ आगे चलते थे और राजनीति से जुडे लोग उनका समर्थन करते हुए पीछे चलते थे. प्रशासन व जनता दोनो, उत्साह के साथ हिन्दी सम्मेलनों में अपनी व्यक्तिगत रूचि से सम्मिलित होते थे. जिसमें हिन्दी पाठकों का लेखकों के प्रति सम्मान देखते बनता था. आज के समय में यह सम्मान खो गया है. ....... "   केंद्रीय ललित कला अकादमी के अध्यक्ष और वरिष्ठ कवि, अशोक वाजपेयी नें पिछले दिनो यह कहा. वे पं. रविशंकर शुक्ल व्याख्यानमाला के अंतर्गत बुधवार को कल्याण महाविद्यालय भिलाई के सभागार में आयोजित व्याख्यान "आज का समय" पर बोल रहे थे. प्रमुख वक्ता के रूप में विचार व्यक्त करते उन्होने असम के क्षेत्रीय भाषा के एक ऐसे सम्मेलन के संबंध में बतलाया जिसमें वे असमिया के प्रसिद्ध साहित्यकारों के साथ मंच में उपस्थित थे. "गुवहाटी से 35 किलोमीटर दूर हाजो शहर में मुझे साहित्य सभा के सम्मेलन उध्दाटन करने आमंत्रित किया गया, वहां मैंने अपने जीवन का सबसे बड़

कभी खुद पे कभी हालात पे रोना आया ......

भिलाई में इन दिनों नगर पालिक निगम द्वारा अवैध कब्‍जा हटाओ अभियान चलाया जा रहा है. इस अभियान में पूरी की पूरी बस्‍ती को उजाड कर करोडो की जमीन अवैध कब्‍जों से छुडाई जा रही है. लोगों से पूछो तो ज्‍यादातर का कहना है कि निगम द्वारा व्‍यवस्‍थापन कर इन्‍हें दूसरा मकान दे दिया गया है पर ये निगम द्वारा दिये गये मकान को उंची कीमत में बेंचकर यहां कब्‍जा जमाए हुए है. यह सच भी है कि भिलाई में कई ऐसे झुग्‍गी झोपडी में रहने वाले करोडपति हैं. और इन्‍हें अवैध कब्‍जा करने के जहां भी मौके मिलते हैं जमीन कब्‍जा कर लेते हैं और पहले कब्‍जा की गई जमीन को उंची दाम में बेच देते हैं. अब सही कुछ भी हो, घर से बेघर होने के कुछ चित्र मेरे मोबाईल कैमरे की नजर से ----  अपने टूटते घर को देखकर बिलखती एक बालिका बेधरबार हुए एक वृद्ध महिला से टीवी वाले ने लिया साक्षात्‍कार झपटता रहा तोडक मशीन नगर निगम के डंडा छाप सुरक्षा कर्मचारियों के साथ अपने अंतिम समय में वसीयत में अब क्‍या लिखवायें पुलिस तो है प्रशासन का मौसेरा भाई नेताओं नें भी इससे अपनी राजनीति चमकाई और मुहल्‍ले का अंतिम घर भी टूटा साहब का आदेश पूरा हुआ : नगर निगम

लघु भारत भिलाई का आभार

मैंनें छत्तीसगढ के असुरों के संबंध में एक लंबे आलेख में भारत और छ्त्तीसगढ  के लोहे के विश्वव्यापी उपयोग के इतिहास के सम्बन्ध मे लिखा है जो आज के संदर्भ में आवशयक है इसलिये इसे यहां सन्दर्भित कर रहा हूं. भिलाई स्टील प्लांट  के  पूर्व के इतिहास को खंघालने से हमे पता चलता है कि सन् 1930 में सर दाराबजी टाटा को नागपुर पुरातत्व संग्राहालय में एक पुराना भौगौलिक नक्शा मिला और उससे उन्हें ज्ञात हुआ कि नागपुर के उत्तर पूर्वी क्षेत्र छत्तीसगढ के तरफ भारी मात्रा में लौह अयस्क भंडार है.  इसके चलते वे छत्तीसगढ के दुर्ग नगर तक आये और इसके डौंडी तहसील के लौह अयस्क भंडार को देखकर आश्चर्यचकित हो गए. उन्होंनें प्रारंभिक तौर पर ठाना कि यहां वृहद स्टील प्लांट का निर्माण किया जाए किन्तु मौजूदा लौह भंडार के अनुपात में जल व कोयले की पर्याप्त मात्रा नजदीक में नहीं होने की वजह से उन्होंनें यहां वृहद स्टील प्लांट के निर्माण का इरादा बदल दिया और वे बिहार के जमशेदपुर में तद्समय के वृहद स्टील प्लांट का निर्माण कर टाटानगर बसा दिया.  यहां छत्तीसगढ में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की दूरदृष्टि से भिलाई में सोव

सरकारी फाइलों का सूअरबाड़ा और इतिहास का कूड़ादान

लेखन और संस्कृति की बेहाली जो लोग सरकारी फाइलों में अपना बायोडाटा गोपनीय तरीके से चुस्त-दुरुस्त करने में जुटे हुए हैं, उन्हें अगले पद्म पुरस्कार जरूर मिल सकते हैं। पद्म पुरस्कार प्राप्त लोग यदि खुद अपने हाथ में मिठाई के डिब्बे लिए बार-बार घूम रहे हों तो उससे पद्म पुरस्कारों की विश्वसनीयता बढ़ती है। साधुवाद देना चाहिए शीर्ष लेखिका कृष्णा सोबती और श्रेष्ठ नाटककार बादल सरकार को जिन्होने पद्म पुरस्कार लेने से इंकार कर सरकारों के मुंह पर तमाचा मारा है। हाथ तमाचा मारने के लिए भी बनाए गए हैं - उन्हें खुशामदखारों की तरह जोडऩे के लिए नहीं-यह इन बुजुर्ग लेखकों ने अपनी रीढ़ की हड्डी पर सीधे खड़े होने का सबक भी तो सिखाया है। राजनीति यदि नर्क है तो साहित्य रौरव नर्क- ऐसा एक लेखिका का कहना है। इधर कोरिया की सेमगंग कंपनी देश में टैगोर पुरस्कारों की स्थापना कर रही है। विष्णु खरे और मंगलेश डबराल जैसे बहुत से लेखक उसका विरोध कर रहे हैं और संभवत: शंभुनाथ जैसे लेखक विरोध का विरोध। कमला प्रसाद की पत्रिका 'वसुधा’ को यदि कहीं से विदेशी संस्थान से संबंधित सहायता मिली तो ज्ञानरंजन जैसे लेखक ने उसकी आलोचना

1411 बाघो के संरक्षण व संवर्धन के लिये क्या कर सकते है हम ?

इन दिनो टीवी से गम्भीर आवाज मे बाघो के संरक्षण व संवर्धन के लिये प्रतिदिन अंतरालो के बाद सन्देश प्रसारित हो रहा है. जिसमे बाघो के संरक्षण व संवर्धन के लिये ब्लाग लिखने के लिये भी प्रेरित किया जाता है. हम प्रत्यक्षत:  बाघो के संरक्षण व संवर्धन के किसी कार्यक्रम से जुडे नही है इस कारण इस पर कुछ लिख नही पा रहे है. जो चीज हमारे बस मे है वह  यह है कि हम इस सन्देश को आगे बढाये. इसी हेतु से हमने ब्लाग मे लगाने के लिये एक टिकट इमेज बनाया है.  नीचे दिये गये कोड को कापी कर अपने ब्लाग के एचटीएमएल गैजेट मे पेस्ट कर के अपने ब्‍लाग मे लगा सकते है और भारतीय बाघो के संरक्षण व संवर्धन मे भावनात्मक रूप से अपना सहयोग बना सकते है. <br /> <a href="http://www.aarambha.blogspot.com/" target="_blank" com=""><img border="0" alt="CG Blog" src=" https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEitppesAoqwAzA6IWH8FxIiuw5nNFesIG08AtBE_QTboMi9zd8PQg0uxAmdNAtVIqvJvnMn2xG4_T-EMVsDXc8_qFKU5dFdf_-MmTigpVv7OGWLwAykZiIrXXVP1Aw5nzdAAgccLYnWsQ

प्रख्यात पंडवानी गायिका रितु वर्मा छुटपन में कीर्तिमान

10 जून 1979 को भिलाई की श्रमिक रूआबांधा में जन्मी कु. रितु वर्मा ने अगस्त 1989 में विदेशी मंच पर अपना पहला कार्यक्रम दिया। मात्र दस वर्ष की उम्र में जापान में अपना कार्यक्रम देकर रितु ने वह गौरव हासिल किया जो बिरले कलाकारों को मिलता है। रितु छतीसगढ़ की पहली ऐसी प्रतिभा संपन्न कलाकार है जिसने इतनी छोटी उम्र में ऐसा विलक्षण प्रदर्शन दिया। घुटनों के बल बैठकर और एक हाथ में तंमूरा लेकर रितु ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कार्यक्रम दिया। कार्यक्रम में आये जापानी दर्शक गोरी चिट्टी छुई हुई सी लगने वाली इस पंडवानी विधा की गुडिय़ा के प्रदर्शन पर देर तक तालियां बजाते रहे। संगीत नाटक अकादमी नई दिल्ली द्वारा महोत्सव के लिए जापान प्रवास का यह सुअवसर रितु को लगा। तब से वह लगातार विदेश जा रही है। 1991 में आदिवासी लोक कला परिषद भोपाल ने उसे जर्मनी एवं इंग्लैंड भेजा। तब तक रितु की कला और निखर चुकी थी। वहां उसे खूब वाहवाही मिली। 1995 में जुलाई माह में रितु को पुन: परिषद की पहल पर इंग़्लैंड जाने का अवसर लगा। अक्टुबर 1996 में वह बंगलौर एशिया सोसायटी की ओर से 50वीं स्वर्ण जयंती समारोह में अमरीका गई। जुलाई 2003 म

कबीर हँसणाँ दूरि करि, करि रोवण सौ चित्त । बिन रोयां क्यूं पाइये, प्रेम पियारा मित्व ॥

प्रेम दिवस पर जन्मी भारतीय सिनेमा जगत की अद्वितीय अभिनेत्री मधुबाला जीवन भर प्यार के लिए तरसती रही. उन्हें जब सच्चा प्यार किशोर कुमार के रूप में तब मिला तब तक वह मौत के काफी करीब आ चुकी थी और अपने जन्मदिन के महज कुछ ही दिन बाद उनकी मृत्यु हो गई। उनका मूल नाम मुमताज बेगम देहलवी था उनका जन्म दिल्ली के एक मध्यवर्गीय मुस्लिम परिवार में 14 फरवरी 1933 को हुआ था। उनके पिता अताउल्लाह खान दिल्ली में रिक्शा चलाते थे। अताउल्लाह खान को जब एक भविष्यवक्ता ने बताया की कि मधुबाला का भविष्य उज्ज्वल है और वह बड़ी होकर बहुत शोहरत पाएगी। तब वह मधुबाला को लेकर मुंबई आये। और संघर्षों के बाद वर्ष 1942 में फिल्म बसंत में मधुबाला को बतौर बाल कलाकार बेबी मुमताज के नाम से काम करने का मौका मिला। तद्समय की अभिनेत्री देविका रानी बेबी मुमताज के सौंदर्य को देखकर काफी मुग्ध हुई और उन्होंने उनका नाम मधुबाला रख दिया था। जिन्दगी भर प्रेम को तरसती मधुबाला के लिये आज प्रेम दिवस पर प्रेम के बहुविद आयामो को सामान्य जन तक पहुंचाने वाले कबीर के कुछ प्रेम दोहों के साथ हमारी श्रद्धांजली- साधु कहावत कठिन है, लम्बा पेड़ खजूर । चढ़

कब तक ? कब तक होता रहेगा यह प्रयोग .. ?

चलती है बुलडोजर कांपती है जिन्दगी बिखरती है सासें और ... बिरजू की रोटी पिस जाती है धूल मे धूल. नाक में गिर आये एनक को फिर से अपने जगह में स्थापित करने के लिए मैं अपनी उंगली बढाता हूं. कंपनी का बुलडोजर फिर मंगत की रोटी की ओर झपटता है. रूकती है एक कंटेसा मुस्कुराता हूं मैं अपनी टोपी उतार सलाम करता हूं उसे, वह ... मशीनी शक्ति से समतल हुए टूटती सासों को देखता है उसे उपलब्धियॉं नजर आती है बहुमंजिला नायाब इमारत के रूप में वह आयाति‍त हम पर हावी भाषा में मुझे बधाई देता है और कंटेसा सूखे जुबान वालों की भीड को चीरती हुई निकल जाती है . मैं धूल से भर आये अपने बालों को झाडता हूं ... मनहूस धूल. आंखों में उड/पड आये कंकड को रूमाल के कोने से निकालने का भरसक प्रयत्नं करते हुए फिर बुलडोजर चालक को इतनी सहजता से आदेश देता हूं जैसे मैनें बुधारो के बढे पेट और संतू के कटे हांथ को देखा ही नहीं है जैसे मैं उस कंटेसा वाले का भाई हूँ/बेटा हूं कब तक ? कब तक होता रहेगा यह प्रयोग .. ? मेरे शक्ति का/मेरे साहस का मेरे मानस का .. ? कब तक सोता रहेगा मेरा मन इन झूठे मायावी अइयासी के आवरणो

कमाई नहीं धन का एकतरफा प्रवाह है यह

पिछले दिनों छत्तीसगढ के एक आईएएस के घर आयकर विभाग को मिली अनुपातहीन सम्पत्ति  और भोपाल के आईएएस दम्पत्ति के घर के कोने कोने से मिले करोडो के नोटों को देखकर, सुनकर, पढकर मन कुछ अशांत रहा है इसी बीच आज अनिल पुसदकर जी के पोस्ट नें मन में एक जोरदार भूचाल उठा दिया है बडे भाई अनिल पुसदकर जी नें अपने पोस्ट में एक लडकी का उल्लेख किया है जिसके पिता की सडक दुर्घटना में चार दिन पहले ही मृत्यु हो चुकी है और उसके भाई का दोनों गुरदा खराब है, वह लडकी सुबह लोगों के लिये टिफिन बनाकर अपनी पढाई कर रही है. बीमार भाई का इलाज पिता के निजी संस्थान में हाड-तोड नौकरी के बूते हो रही थी और जब पिता की मृत्यु दुर्घटना से हुई तब भी वे अपने बेटे के लिए दवाई लेने जा रहे थे. ..................  अनिल भाई नें अपने पोस्ट पर अनेकों अनसुलझे सवाल प्रस्तुत किये हैं. धन का एकतरफा प्रवाह बार बार हमें बेचैन करता है एक तरफ ऐसे आईएएस है जिनके पास नोटों का अंबार है, बिस्तर मे नोट, किचन के डिब्बो मे नोट, कचरा पेटी मे नोट, नोट ही नोट.  दूसरी तरफ ऐसे लोग हैं जो दाने दाने को मोहताज हैं. यै ईश्वर तेरा कैसा न्याय है जिसके पास धन है

लोहिया पर सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, बालकवि बैरागी व अन्य सात की कालजयी कविताएं

राम मनोहर लोहिया जी पर आधरित मेरे पिछले पोस्ट पर भाई अनुनाद सिंह जी ने टिप्पणी की, कि लोहिया जी की इस कडी का लिंक  हिन्दी विकि के "राम मनोहर लोहिया" वाले लेख पर दे रहा हूं. और बडे भाई गिरीश पंकज जी ने भी बतलाया कि यह वर्ष लोहिया जी का जन्म शताब्दी वर्ष है(23 मार्च 1910), तो हमे लगा इस पर और सामग्री अपने ब्लाग पर प्रस्तुत की जाये. इसी क्रम मे लोहिया जी पर  सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, बालकवि बैरागी व अन्य सात की कालजयी कविताएं हम यहा प्रस्तुत कर रहे है -     1. शेष जो था बालकृष्ण राव कुछ भी न कहा, जब तक सह सका बिन बोले सहा- और जब सहा न गया, कहना तब चाहा पर कहा न गया। जो जितना जान सका उतना ही बखान सका- कौन भला नीचे जा, चेतना के निम्नतम छोर से कर सका पीड़ा का तल स्पर्श भाषा की अधबटी डोर से? माना गया वही जो जान गया, कहा गया वही जो सहा गया, शेष जो था अनदेखा सपना था किन्तु वही पूरी तरह अपना था। 1. लोहिया  नरेश सक्सेना (मृत्यु से लगभग एक वर्ष पूर्व लिखी गई) एक अकेला आदमी गाता है कोरस खुद ही कभी सिकन्दर बनता है कभी पोरस (युद्घ से पहले या उसके बाद या उसके

" बने करे राम मोला अन्धरा बनाये " यह गीत छत्तीसगढ से ट्रेन से गुजरते हुए आपने भी सुना होगा

कल के मेरे पोस्ट पर शरद कोकाश भैया की टिप्पणी प्राप्त हुई कि रामेश्वर जी से सम्पर्क करो और उनकी कविता " बने करे राम मोला अन्धरा बनाय " की रचना की प्रष्ठ्भूमि सहित प्रस्तुत करो .. उनसे पूछना ज़ोरदार किस्सा सुनयेंगे । तो हम रामेश्वर वैष्णव जी की वही कविता आडियो सहित यहॉं प्रस्तुत कर रहे है - भूमिका इस प्रकार है कि एक बार रामेश्वर वैष्णव जी रेल में रायपुर से बिलासपुर की ओर यात्रा कर रहे थे तो रेल में एक अंधा भिखारी उन्हे गीत गाते भीख मांगते हुए मिला. वह अंधा भिखारी रामेश्वर वैष्णव जी द्वारा लिखित 'कोन जनी काय पाप करे रेहेन' गीत गा रहा था; रामेश्वर वैष्णव जी को आश्चर्य हुआ और उन्होनें उस अंधे भिखारी को अपने पास बुलाकर बतलाया कि जिस गीत को तुम गा रहे हो उसे मैनें लिखा है यह मेरा साहित्तिक गीत है इसे गाकर तुम भीख मत मांगो भईया. पहले तो अंधे भिखारी को खुशी हुई कि तुम ही रामेश्वर वैष्णव हो. फिर भिखारी नें कहा कि इस गीत को गाते हुए बहुत दिन हो गए है और वैसे भी अब इस गीत से ज्यादा पैसे नहीं मिलते इसलिए आप मेरे लिए कोई दूसरा गीत लिख दीजिये. अंधे भिखारी नें गीत में चार आवश्यक त

रामेश्वर वैष्णव की अनुवादित हास्य कविता मूल आडियो सहित

रामेश्वर वैष्णव जी  छत्तीसगढ के जानेमाने गीत कवि है, इन्होने हिन्दी एव छत्तीसगढी मे कई लोकप्रिय गीत लिखे है. कवि सम्मेलनों मे मधुर स्वर मे वैष्णव जी के गीतो को सुनने में अपूर्व आनन्द आता है. वैष्णव जी का जन्म 1 फरवरी 1946 को खरसिया मे हुआ था. इन्होने अंग्रेजी मे एम.ए. किया है और डाक तार विभाग से सेवानिवृत है. इनकी प्रकाशित कृतियो मे पत्थर की बस्तिया, अस्पताल बीमार है, जंगल मे मंत्री, गिरगिट के रिश्तेदार, शहर का शेर, बाल्टी भर आंसू, खुशी की नदी, नोनी बेन्दरी, छत्तीसगढी महतारी महिमा, छत्तीसगढी गीत आदि है.  मयारु भौजी, झन भूलो मा बाप ला, सच होवत सपना, गजब दिन भइ गे सहित कई छत्तीसगढी फिल्मो का इन्होने लेखन किया है. वैष्णव जी छत्तीसगढ के कई सांसकृतिक संस्थाओ से भी सम्बध है. इनकी छत्तीसगढी हास्य कविताओं के लगभग 20 कैसेट्स रिलीज हो चुके है . आज भी रामेश्वर वैष्णव जी निरंतर लेखन कर रहे है.  इन्हे मध्यप्रदेश लोकनाट्य पुरस्कार, मुस्तफ़ा हुसैन अवार्ड 2001, श्रेष्ठ गीतकार अवार्ड और अनेक सम्मान व पुरस्कार प्राप्त हो चुके है.  वैष्णव जी की एक छत्तीसगढी हास्य कविता का आडियो अनुवाद सहित हम यहा प्रस्तुत