लोहिया पर सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, बालकवि बैरागी व अन्य सात की कालजयी कविताएं सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

लोहिया पर सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, बालकवि बैरागी व अन्य सात की कालजयी कविताएं

राम मनोहर लोहिया जी पर आधरित मेरे पिछले पोस्ट पर भाई अनुनाद सिंह जी ने टिप्पणी की, कि लोहिया जी की इस कडी का लिंक  हिन्दी विकि के "राम मनोहर लोहिया" वाले लेख पर दे रहा हूं. और बडे भाई गिरीश पंकज जी ने भी बतलाया कि यह वर्ष लोहिया जी का जन्म शताब्दी वर्ष है(23 मार्च 1910), तो हमे लगा इस पर और सामग्री अपने ब्लाग पर प्रस्तुत की जाये. इसी क्रम मे लोहिया जी पर  सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, बालकवि बैरागी व अन्य सात की कालजयी कविताएं हम यहा प्रस्तुत कर रहे है -
   
1. शेष जो था
बालकृष्ण राव

कुछ भी न कहा,
जब तक सह सका
बिन बोले सहा-
और जब सहा न गया,
कहना तब चाहा
पर कहा न गया।
जो जितना जान सका
उतना ही बखान सका-
कौन भला नीचे जा,
चेतना के निम्नतम छोर से
कर सका पीड़ा का तल स्पर्श
भाषा की अधबटी डोर से?
माना गया वही जो जान गया,
कहा गया वही जो सहा गया,
शेष जो था
अनदेखा सपना था
किन्तु वही
पूरी तरह अपना था।

1. लोहिया 
नरेश सक्सेना
(मृत्यु से लगभग एक वर्ष पूर्व लिखी गई)

एक अकेला आदमी
गाता है कोरस
खुद ही कभी सिकन्दर बनता है
कभी पोरस
(युद्घ से पहले या उसके
बाद या उसके दौरान)
जिरह-बख्तर पहन कर घूमता है अकेला
और बोलता है योद्घाओं की बोलियाँ
खाता है गोलियाँ
भाँग की या इस्पात की?
देश भर में होती है चर्चा
(अपनी ही जेब से चलाता है देश भर का खर्चा)
एक पेड़ का जंगल
शिकायत करता है वहाँ जंगलियों के न होने की।

3.
उमाकान्त मालवीय

कोई चाहे जितना बड़ा हो,
उसका अनुकरण
उसका अनुसरण
तुम्हारी गैरत को गवारा नहीं,
तुम्हारा अनुकरण
तुम्हारा अनुसरण
कोई करे ऐसी हविस भी नहीं।
अनुकरण
अनुसरण
की बैसाखियाँ तुम्हें मंजूर नहीं
इसलिये,
जब तुम्हें मिले सन्देश
उस पार दूर गाँव के।
तुम चल दिये छोड कर आग पर
निशान पाँव के।

4. किताब का एक पृष्ठ 
प्रदीप कुमार तिवारी

एक पृष्ठ कम है
उस किताब का
जिसके कि-
हम, आप सब
एक अलग अलग पृष्ठ हैं,
उस किताब से
वह पृष्ठ तो निकल गया
किन्तु-
निकलते निकलते छोड़ गया
अपने दर्शन की
अपने विचारों की
अपनी शैली की
एक अमिट, रुपहली छाप
उन सभी पृष्ठों पर
जो हम और आप सबके
रूप में वर्तमान हैं।

5. लोहिया के न रहने पर
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

यह कविता आदरणीय अफलातून जी के ब्लाग यही है वह जगह मे प्रकाशित है, पाठक इसे यहां से पढ सकते है.

6. हमारी धमनियों के तुम मसीहा थे
बालकवि बैरागी

ओ बगावत की प्रबल उद्दीप्त पीढ़ी के जनक!
हम तुम्हें कितना जियेंगे कह नहीं सकता!
न जाने क्या समझ कर आँख मूँदे चल दिये तुम
हलाहल जो बचा है हम उसे कितना पियेंगे कह नहीं सकता।
तुम्हें देखा, तुम्हें परखा तुम्हें भुगता, सुना,
समझा तुम्हें हर रोज पढ़ते हैं तुम्हारा ढंग
अपना कर कभी हम बात करते हैं
तो वे मूरख समझते हैं कि लड़ते हैं-
मुबारक हो उन्हे उनकी समझ।
नयी भाषा, नई शैली नये रोमांच के सर्जक!
तुम्हारी हर अदा भरसक सहेजेंगे,
अमानत है शिराओं में तुम्हारे स्वप्न
ऐसे छलछलाते हैं कि हर बेजान गुम्बज को
हमारे स्वप्न से गहरी शिकायत है
मुबारक हो उन्हे उनकी शिकायत।
तुम्हारा 'वाद' क्या समझू
तुम्हारी जिद, तुम्हारा ढंग प्यार है
शुरू तुम कर गये मेरी जवानी के भरोसे पर
मुझे वो जंग प्यारा है।
यकीं रखो कि अंतिम फैसला होगा वही जो तुमने चाहा था
तुम्हारा हौसला झूठा नहीं होगा, भले ही टूट जाऊँ मैं, मेरी काया,
मेरी रग रग मगर संकल्प जो तुमने दिया टूटा नहीं होगा।
जवानी आज समझी है कि तुम क्या थे तुम्हें जो दर्द था वो हाय!
किसका था तुम्हारा अक्खड़ी लहजा तुम्हारी
फक्कड़ी बातें तुम्हारी खुश्क सी रातें
न समझो इस लहू ने टाल दी,
या कि सदियाँ भूल जायेंगी न अपना 'प्राप्य तुमको
दे सके हम सब मगर उसको तुम्हारी धूल पायेगी।
करोड़ों उठ गये वारिस तुम्हारी एक हिचकी पर
कहीं विप्लव कुँआरा या कि ला औलाद मरता है?
हमारी धमनियों के तुम मसीहा थे, मसीहा हो सुनो!
तुमको बगावत का हर एक क्षण याद करता है।

7. लोग करते हैं बहस
ओंकार शरद

'लोहिया चरित मानस' का कर्म पक्ष शेष हुआ।
आज दिल्ली का एक घर खाली है,
और कॉफी हाउस की एक मेज सूनी है;
बगल की दूसरी मेज पर लोग करते हैं बहस-
लोहिया को स्वर्ग मिला, या मिला नरक!
जिसने जीवन के तमाम दिन बिताए भीड़ों और जुलूसों में,
और रातें, रेल के डिब्बो में, अनेकानेक वर्ष काटे कारागारों में,
जो जूझता ही रहा हर क्षण दुश्मनों और दोस्तों से;
जिसका कोई गाँव नहीं, घर नहीं,
वंश नहीं, घाट नहीं, श्राद्घ नहीं;
पंडों की बही में जिसका कहीं नाम नहीं;
जिसने की नहीं किसी के नाम कोई वसीयत,
उसके लिए भला क्या दोजख, और क्या जन्नत!
मुझे तो उसके नाम के पहले 'स्वर्गीय' लिखने में झिझक होती है;
उसे 'मरहूम' कलम करने में सचमुच हिचक होती है!

साभार इतवारी अखबार

टिप्पणियाँ

  1. संजीव भाई ,सर्वेश्वर की यह कविता लोहिया की पिछली जयन्ती पर मैंने अपने ब्लॉग पर छापी थी , आपके स्वत्वाधिकार के बावजूद । अब क्या करें ?

    जवाब देंहटाएं
  2. @ आदरणीय अफलातून जी, आपने मेरे ब्लाग पर टिप्पणी की इसके लिये बहुत बहुत धन्यवाद.
    अपने ब्लागपोस्ट मे "स्वत्वाधिकार" लिखने का अभिप्राय मेरे स्वयं के द्वारा लिखित रचनाओ से है यह स्वाभाविक सत्य है कि, जो रचनाये मैने साभार अन्यत्र से ली है उन पर मेरा "स्वत्वाधिकार" हो ही नही सकता.
    आपके प्रश्न के उत्तर मे मै यह कहना चाहूंगा कि आपने मुझे मेरी क्षुद्रता का एहसास कराया इसके लिए पुन: धन्यवाद. आपके पोस्ट का लिंक मैने इस पोस्ट मे दे दिया है.

    जवाब देंहटाएं
  3. प्रिय संजीव भाई ,
    कभी भी खुद को क्षुद्र न समझें । मुझे लगता है कि लोहिया और सर्वेश्वर दोनो ही कॉपीराईट और पेटेन्ट के मौजूदा दर्शन से सहमत न होते । ज्ञान की बातें अधिक से अधिक फैलें बिना रोक-टोक,मुनाफ़े के। आप कृपया उस कविता को यहाँ से न हटायें ।
    सविनय,
    अफ़लातून

    जवाब देंहटाएं
  4. अब आप दोनों इतनी विनम्रता से काम लेंगे तो टिप्पणी करना मुश्किल हो जायेगा भाई ! कवितायें कालजयी हैं ये तो सही है किन्तु आप दोनों से भी कुछ सीखने का मौका मिल ही रहा है :)

    जवाब देंहटाएं
  5. ....बेहद प्रभावशाली व प्रसंशनीय प्रस्तुति!!!

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

भट्ट ब्राह्मण कैसे

यह आलेख प्रमोद ब्रम्‍हभट्ट जी नें इस ब्‍लॉग में प्रकाशित आलेख ' चारण भाटों की परम्परा और छत्तीसगढ़ के बसदेवा ' की टिप्‍पणी के रूप में लिखा है। इस आलेख में वे विभिन्‍न भ्रांतियों को सप्रमाण एवं तथ्‍यात्‍मक रूप से दूर किया है। सुधी पाठकों के लिए प्रस्‍तुत है टिप्‍पणी के रूप में प्रमोद जी का यह आलेख - लोगों ने फिल्म बाजीराव मस्तानी और जी टीवी का प्रसिद्ध धारावाहिक झांसी की रानी जरूर देखा होगा जो भट्ट ब्राह्मण राजवंश की कहानियों पर आधारित है। फिल्म में बाजीराव पेशवा गर्व से डायलाग मारता है कि मैं जन्म से ब्राह्मण और कर्म से क्षत्रिय हूं। उसी तरह झांसी की रानी में मणिकर्णिका ( रानी के बचपन का नाम) को काशी में गंगा घाट पर पंड़ितों से शास्त्रार्थ करते दिखाया गया है। देखने पर ऐसा नहीं लगता कि यह कैसा राजवंश है जो क्षत्रियों की तरह राज करता है तलवार चलता है और खुद को ब्राह्मण भी कहता है। अचानक यह बात भी मन में उठती होगी कि क्या राजा होना ही गौरव के लिए काफी नहीं था, जो यह राजवंश याचक ब्राह्मणों से सम्मान भी छीनना चाहता है। पर ऊपर की आशंकाएं निराधार हैं वास्तव में यह राजव

क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है?

8 . हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास? - पंकज अवधिया प्रस्तावना यहाँ पढे इस सप्ताह का विषय क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है? बैगनी फूलो वाले कंटकारी या भटकटैया को हम सभी अपने घरो के आस-पास या बेकार जमीन मे उगते देखते है पर सफेद फूलो वाले भटकटैया को हम सबने कभी ही देखा हो। मै अपने छात्र जीवन से इस दुर्लभ वनस्पति के विषय मे तरह-तरह की बात सुनता आ रहा हूँ। बाद मे वनस्पतियो पर शोध आरम्भ करने पर मैने पहले इसके अस्तित्व की पुष्टि के लिये पारम्परिक चिकित्सको से चर्चा की। यह पता चला कि ऐसी वनस्पति है पर बहुत मुश्किल से मिलती है। तंत्र क्रियाओ से सम्बन्धित साहित्यो मे भी इसके विषय मे पढा। सभी जगह इसे बहुत महत्व का बताया गया है। सबसे रोचक बात यह लगी कि बहुत से लोग इसके नीचे खजाना गडे होने की बात पर यकीन करते है। आमतौर पर भटकटैया को खरपतवार का दर्जा दिया जाता है पर प्राचीन ग्रंथो मे इसके सभी भागो मे औषधीय गुणो का विस्तार से वर्णन मिलता है। आधुनिक विज्ञ

क्या कौरव-पांडव का पौधा घर मे लगाने से परिवार जनो मे महाभारत शुरु हो जाती है?

16. हमारे विश्वास , आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक , कितने अन्ध-विश्वास ? - पंकज अवधिया प्रस्तावना यहाँ पढे इस सप्ताह का विषय क्या कौरव-पांडव का पौधा घर मे लगाने से परिवार जनो मे महाभारत शुरु हो जाती है? आधुनिक वास्तुविदो को इस तरह की बाते करते आज कल सुना जाता है। वे बहुत से पेडो के विषय ने इस तरह की बाते करते है। वे कौरव-पांडव नामक बेलदार पौधे के विषय मे आम लोगो को डराते है कि इसकी बागीचे मे उपस्थिति घर मे कलह पैदा करती है अत: इसे नही लगाना चाहिये। मै इस वनस्पति को पैशन फ्लावर या पैसीफ्लोरा इनकार्नेटा के रुप मे जानता हूँ। इसके फूल बहुत आकर्षक होते है। फूलो के आकार के कारण इसे राखी फूल भी कहा जाता है। आप यदि फूलो को ध्यान से देखेंगे विशेषकर मध्य भाग को तो ऐसा लगेगा कि पाँच हरे भाग सौ बाहरी संरचनाओ से घिरे हुये है। मध्य के पाँच भागो को पाँडव कह दिया जाता है और बाहरी संरचनाओ को कौरव और फिर इसे महाभारत से जोड दिया जाता है। महाभारत मे इस फूल का वर्णन नही मिलता है और न ही हमारे प्राचीन ग्रंथ इसके विषय मे इस तरह क