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जून, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

पंडवानी की वेदमति व कापालिक शैली

छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक परंपराओं से मेरा मोह बचपन से रहा है। इसी मोह से पंडवानी और दूसरे लोकरंजन में मेरी रूचि पैदा हुई है। हम बचपन से विभिन्न लोक कलाकारों से पंडवानी सुनते आये हैं एवं उनकी प्रस्तुतियों को प्रत्यक्षत: या टीवी आदि के माध्यमों से देखते आये हैं। पद्मभूषण श्रीमती तीजन बाई तो अब पंडवानी की पर्याय बन चुकी है और हममें से ज्यादातर लोगों नें तीजन बाई की प्रस्तुति ही देखी हैं, लोक स्मृति के मानस पटल पर जो छवि पंडवानी की उभरती है वो तीजन की ही है। तीजन की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए श्रीमती रितु वर्मा नें भी पंडवानी गायकी को भली भांति साधा है। उसकी प्रसिद्धि भी काफी उंचाईयों पर है, पर इन दोनों की प्रस्तुतिकरण में अंतर है और इसी अंतर को वेदमति व कापालिक शैली का नाम दे दिया गया है। हम पंडवानी के इन शैलियों के संबंध में छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक परंपराओं के मर्मज्ञों की लेखनी को पढ़ कर अपने स्वयं की संतुष्टि चाहते रहे हैं कि क्या सचमुच इन शैलियों नें समयानुसार परंपरा का रूप ले लिया है या शैलियों को कतिपय विद्धानों नें पूर्व पीठिका में लिखकर स्थापित कर दिया है। वाचिक रूप से पीढ़ी दर

लोकगीत 'बखरी के तूमा नार बरोबर मन झुमरे' हिन्‍दी अनुवाद और वीडियो

बखरी के तूमा नार बरोबर मन झुमरै डोंगरी के पाके चार ले जा लाने दे बे. मया के बोली भरोसा भारी रे कहूँ दगा देबे राजा लगा लेहूँ फॉंसी. बखरी के तूमा नार ..... हम तैं आघू जमाना पाछू रे कोने पावे नहीं बांध ले मया म काहू रे. डोंगरी के पाके चार .... तोर मोर जोड़ी गढ़ लागे भगवान, गोरी बइंहा म गोदना गोदाहूँ तेरा नाम. बखरी के तूमा नार ..... मउहा के झरती कोवा के फरती फागुन लगती राजा आ जाबे जल्‍दी. बखरी के तूमा नार ..... डोंगरी के पाके चार .... गीत सुने व वीडियो देखें युवराज भाई के यू ट्यूब चैनल से - प्रिये ! घर की बगिया में लगे लौकी के बेल की तरह मन झूम रहा है. प्रियतम ! तुम जंगल से मेरे लिए पके हुए चार फल ला देना. तुम्‍हारे प्रेम की बोली में मुझे बहुत भरोसा है, मेरे राजा अगर तुमने धोखा दिया तो मैं फॉंसी लगा लूंगी. हम दोनों प्रेम के रास्‍ते पर बहुत आगे बढ़ चुके हैं, जमाना पीछे छूट चुका है. अब हमारे प्रेम को कोई रोक नहीं सकेगा और हम एक दूसरे के अतिरिक्‍त किसी दूसरे के प्रेम पाश में नहीं बंधेंगें. प्रियतम भगवान नें हमारी तुम्‍हारी जोड़ी बनाई है. मैं अपनी गोरी बाहों में तुम्‍ह

पारंपरिक छत्‍तीसगढ़ी गीत हिन्‍दी अनुवाद सहित : हो गाड़ी वाला रे....

हो गाड़ी वाला रे ....  पता ले जा रे, पता दे जा रे, गाड़ी वाला पता ले जा, दे जा, गाड़ी वाला रे ....  तोर गॉंव के, तोर नाव के, तोर काम के, पता दे जा पता ले जा, दे जा, गाड़ी वाला रे ....  का तोर गॉंव के नाव दिवाना डाक खाना के पता का नाम का थाना कछेरी के पारा मोहल्‍ला जघा का का तोरे राज उत्‍ती बुड़ती रेलवाही का हावे सड़किया पता ले जा, दे जा, गाड़ी वाला रे ....  मया नि चीन्‍हे देसी बिदेसी मया के मोल ना तोल जात बिजात ना जाने रे मया मयारू के बोल काया माया सब नाच नचावे मया के एक नजरिया पता ले जा, दे जा, गाड़ी वाला रे .... जियत जागत रहिबे रे बैरी भेजबे कभू ले चिठिया बिन बोले भेद खोले रोवे जाने अजाने पिरितिया बिन बरसे उमडे घुमडे़ जीव मया के बैरी बदरिया पता ले जा, दे जा, गाड़ी वाला रे ....  हिन्‍दी अनुवाद- ओ गाडीवाले ! तुम अपना पता दे जावो और मेरा पता ले जावो. तुम्‍हारा गॉंव कौन सा है? तुम्‍हारा नाम क्‍या है? और तुम क्‍या काम करते हो? इन सबका पता दे जावो! तुम्‍हारे गॉंव का नाम क्‍या है और डाकखाना कहॉं है? थाना और कचहरी व मोहल्‍ला का क्‍या नाम है? तुम्‍हारे राज्‍य के पूर्व और पश्चिम में कौन से र

हबीब तनवीर के ख्‍यात नाचा कलाकार गोविंद निर्मलकर लौटाएंगे पद्मश्री

आज के सांध्‍य दैनिक में इस समाचार को पढ़कर मैं सकते में आ गया अभी दो दिन पहले ही हबीब तनवीर जी की पुण्‍यतिथि पर साथी ब्‍लॉगरों नें पोस्‍ट लगाया और भाइयों नें टिप्‍पणियां भी की और ताने भी मारे कि हबीब जी की पुण्‍य तिथि छत्‍तीसगढ़ को याद रखना चाहिए. यद्धपि भाईयों को पता ही नहीं था कि छत्‍तीसगढ़ हबीब के सम्‍मान में पूरे एक सप्‍ताह का कार्यक्रम कर रहा है. और याद करने वाले दिल याद कर रहे हैं। खैर .... आवारा बंजारा का पोस्‍ट पढ़ नहीं पाये होंगें! इससे उबर ही नहीं पाया था कि यह समाचार नजर आया, तब हबीब तनवीर और गोविंद निर्मलकर पुन: स्‍मृति में छा गए। दैनिक छत्‍तीसगढ़ के राजनांदगांव संवाददाता प्रदीप मेश्राम नें गोविंद निर्मलकर से मिलकर उनका दुख समाचार पत्र के मुख्‍य पृष्‍ट में ही उकेरा है. उन्‍होंनें लिखा है कि विश्‍व धरोहर बनने वाली, छत्तीसगढ़ संस्कृति से जुड़ी लोक नाट्य शैली ' नाचा ' के कलाकार पद्मश्री अवार्ड से सम्मानित गोविंदराम निर्मलकर अपना सम्मान और पदक लौटाना चाहते हैं। वे अपनी परेशानी का सबसे बड़ा कारण इस सम्‍मान को मानते हैं। वे कहते हैं - 'लोग यह समझते हैं कि पद्मश्री

शिखर शोध निदेशक डॉ. विनय कुमार पाठक

महाविद्यालयीन प्राध्‍यापक, साहित्‍यकार, समीक्षक, कवि डॉ. श्री विनयकुमार पाठक का आज जन्‍म दिन है. मेरे इस ब्‍लॉग के पाठकों को इसी बहाने आज आदरणीय डॉ. विनयकुमार पाठक जी को स्‍वयं जानने और आपसे परिचय कराने का प्रयास कर रहा हूं. पाठक जी का जन्‍म 11 जून 1946 को बिलासपुर में हुआ और अध्‍ययन भी बिलासपुर में ही हुआ, डॉ. विनयकुमार पाठक जी नें एम.ए., हिन्‍दी एवं भाषा विज्ञान में दो अलग अलग पी.एच.डी. व हिन्‍दी एवं भाषा विज्ञान में दो अलग अलग डीलिट की उपाधि प्राप्‍त की है. इनके निर्देशन में कई पीएचडी अब तक हो चुके हैं. इनको लेखन के लिए प्रेरणा इनके बड़े भाई डॉ. विमल पाठक से मिली है । डॉ. विनय कुमार को इनके पी.एच.डी. एवं डी. लिट प्राप्‍त करने से साहित्‍यजगत में राष्‍ट्रव्‍यापी ख्याति प्राप्‍त हुई। पाठक जी छत्तीसगढ़ी और हिन्दी, दोनों में लिखते हैं। इनकी कृतियां हैं - छत्तीसगढ़ी में कविता व लोक कथा, छत्‍तीसगढ़ी साहित्‍य और साहित्‍यकार, बृजलाल शुक्‍ल व कपिलनाथ कश्‍यप - व्‍यक्तित्‍व एवं कृतित्‍व(दोनो अलग अलग ग्रंथ), स्‍केच शाखा (जीवनी), खण्डकाव्य - सीता के दुख तथा छत्तीसगढ़ी साहित्य और साहित्यकार स

क्‍या नशेबो फराज थे तनवीर, जिन्‍दगी आपने गुजार ही दी : यादें हबीब तनवीर

सात साल की उम्र में ‘मोहब्‍बत के फूल’ नाटक को देखकर एक बालक के मन में अभिनय की ललक जो जागृत हुई वह निरंतर रही, बालक नाचते गाते अपनी तोतली जुबान में नाटकों के डायलागों को हकलाते दुहराते बढते रहा। उसके बाल मन में पुष्पित अभिनय का स्‍वप्‍न शेक्‍शपीयर की नाटक ‘किंगजान’ में प्रिंस का आंशिक अभिनय से साकार हुआ। असल मायनें में उसी दिन महान नाट्य शिल्‍पी हबीब तनवीर का नाटकों की दुनिया में आगाज हो गया।   आज से ठीक एक साल पहले आज के ही दिन हबीब जी के निधन का समाचार मित्रों से प्राप्‍त हुआ, नाटकों व लोकनाट्यों से हमारा लगाव हमें हबीब जी एवं उनके कलाकारों के करीब ले आया था. सुनकर गहरा दुख हुआ पिछले वर्ष हबीब जी के अस्‍वस्‍थ होने के समाचार मिलने पर आवारा बंजारा वाले संजीत त्रिपाठी नें कई बार आग्रह किया कि मैं उनपर कोई आलेख लिखूं किन्‍तु व्‍यस्‍तता के कारण मैं कुछ भी नहीं लिख पाया. पिछले वर्ष ही उन्‍हें श्रद्धांजली स्‍वरूप मैंनें यह आलेख लिखा था तब बमुश्‍कल पांच कमेंट आये थे, आज उनकी प्रथम पुण्‍यतिथि पर मुझे कुछ पोस्‍ट नजर आये जिसमें साथियों नें अपना उत्‍साह एवं स्‍नेह हबीब जी के प्रति प्रस्‍तुत क