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नवंबर, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

सुआ गीत : नारी हृदय की धड़कन

आज छत्‍तीसगढ़ के दुर्ग नगर में एक अद्भुत आयोजन हुआ जिसमें परम्‍पराओं को सहेजने की मिसाल कायम की गई, पारंपरिक छत्‍तीसगढ़ी संस्‍कृति से लुप्‍त होती विधा 'सुआ गीत व नाच' का प्रादेशिक आयोजन आज दुर्ग की धरती पर किया गया जिसमें पूरे प्रदेश के कई सुवा नर्तक दलों नें अपना मोहक नृत्‍य प्रस्‍तुत किया। इस आयोजन में एक दर्शक व श्रोता के रूप में देर रात तक उपस्थित रह कर मेरे पारंपरिक मन को अपूर्व आनंद आया। मेरे पाठकों के लिए इस आयोजन के चित्रों के साथ सुआ गीत पर मेरे पूर्वप्रकाशित (प्रिंट मीडिया में, ब्‍लॉग में नहीं) आलेख के मुख्‍य अंशों को यहां प्रस्‍तुत कर रहा हूं - सुआ गीत : नारी हृदय की धडकन छत्तीसगढ़ में परम्पराओं की महकती बगिया है जहां लोकगीतों की अजस्र रसधार बहती है। लोकगीतों की इसी पावन गंगा में छत्तीसगढ़ी संस्कृति की स्प्ष्ट झलक दृष्टिगत होती है। छत्तीतसगढ़ में लोकगीतों की समृद्ध परम्परा कालांतर से लोक मानस के कंठ कंठ में तरंगित रहा है जिसमें भोजली, गौरा, सुआ व जस गीत जैसे त्यौहारों में गाये जाने वाले लोकगीतों के साथ ही करमा, ददरिया, बांस, पंडवानी जैसे सदाबहार लोकगीत छत्तीसगढ़ क

अगर आप लाला जगदलपुरी को नहीं जाने तो आप मुक्तिबोध को भी नहीं जानते ......

साहित्‍य शिल्‍पी में भाई राजीव रंजन प्रसाद नें बस्तर के वरिष्ठतम साहित्यकार लाला जगदलपुरी से बातचीत [बस्तर शिल्पी अंक-2] प्रकाशित की है लाला जी के संबंध में राजीव जी की दृष्टि और साक्षात्‍कार को पढ़ना अच्‍छा लगा, लाला जी के संबंध में उनके शब्‍द 'अगर आप लाला जगदलपुरी को नहीं जाने तो आप मुक्तिबोध को भी नहीं जानते, तो आप नागार्जुन को भी नहीं जानते और आप निराला को भी नहीं जानते और आप बस्तर को भी यकीनन नहीं जानते।' सौ प्रतिशत सत्‍य है, एक कड़ुआ सच। हिन्‍दी साहित्‍य जगत नें लाला जी को बिसरा दिया इसका हमें उतना मलाल नहीं किन्‍तु जिस प्रदेश में इस महान संत नें साहित्‍य सृजन किया उस प्रदेश नें भी सदैव इनकी उपेक्षा की। सहृदयी लाला जी को इस बात से कोई मलाल नहीं किन्‍तु हमें है, बस्‍तर-बस्‍तर का ढोल पीटने वालों नें जानबूझकर लाला जी को हासिये में डाला और उनका सरल स्‍वभाव साहित्तिक-बौद्धिक राजनीति का शिकार होता रहा। छत्‍तीसगढ़ में लाला जी के इस हालात पर मुह खोलने वाले बहुत कम लोग है किन्‍तु जो हैं वे काफ़ी तल्‍खी से अपनी वेदना व्‍यक्‍त करते हैं, यह भाव उनके लाला जी के प्रति अगाध श्रद्धा को

स्‍वागत करें छत्‍तीसगढ़ से नई हिन्‍दी ब्‍लॉगर डॉ.ऋतु दुबे जी का

मैंने एम.पी.एड., एम. ए. (हिंदी), किया है, राज्‍य प्रशासनिक सेवा से चयनित होकर महाविद्यालय मे कार्यरत हूं, मैने शारीरिक शिक्षा विषय मे अपना शोध प्रबंध पूरा कर पं. रविशंकर शुक्‍ल विश्वाविद्यालय से डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की है. भावों से भरी हूं, भावनाओं को शब्‍द के किसी  भी रूप मे परिवर्तित करना चाहती हूं, कविता, कहानी, लेख ..., जिद्दी हूं जो चाहती हूं करती हूं, संवेदनशील इतनी कि हृदय जल्दी खुश या दुखी हो जाता है और अपने भावों को छिपा नहीं पाती हूं, झूठ मुझे पसंद नहीं, जहां तक बन पड़े रिश्तो को बचाने का प्रयास करती हूं. हर वक्त कुछ न कुछ करना चाहती हूं  .. .. सृजनशील रहना चाहती हूं. ब्‍लॉगर प्रोफाईल में अपने संबंध में बतलाते हुए डॉ.ऋतु दुबे जी ऐसा कहती हैं, ऋतु जी अपनी भावनात्‍मक अभिव्‍यक्ति को इरा पाण्‍डेय के नाम से प्रस्‍तुत करना चाहती हैं। छत्‍तीसगढ़ के दुर्ग नगर में निवासरत डॉ.ऋतु दुबे फेसबुक के वाल की शब्‍द सीमाओं में अपनी दिल की बात को बंधा महसूस करती रही हैं इस कारण इन्‍होंनें हिन्‍दी ब्‍लॉग बनाया है, और अपने ब्‍लॉग का नाम रखा ' दिल की बात '. आईये स्‍वागत करें डॉ.ऋतु दु

सपना की इंदिरा को श्रद्धांजली और अरूण के मजेदार संस्‍मरण

तरूणाई में रेडियो श्रोता संघ से जुडे अरूण कुमार निगम जी एक मजेदार वाकया बतलाते हैं, हुआ यूं कि रेडियो फरमाईसी में विभिन्‍न स्‍थानों के श्रोताओं के नियमित नाम आने के चलते नियमित रेडियो श्रोताओं के बीच एक अंतरंग संबंध स्‍थापित हो चुका था और एक दूसरे के बीच पत्रोत्‍तर भी होने लगा था। इसी बीच रेडियो में रायपुर के एक नियमित श्रोता के पत्र को आकाशवाणी के 'आपके पत्र' कार्यक्रम के तहत पढ़ा गया, श्रोता ने अपने विवाह में उद्घोषक उद्घोषिका एवं श्रोता मित्रों को भी आमंत्रित किया था, वह रेडियो का बहुचर्चित श्रोता था निगम जी व उनके मित्र उससे मिलना चाहते थे। विवाह रायपुर में ही हो रही थी इस कारण पहुचना आसान था, नियत समय में निगम जी श्रोता मित्रों से चंदे कर गिफ्ट का पैकैट लिया और श्रोता मित्रों के साथ निकल पड़े रायपुर के लिए, विवाह किसी भवन में हो रहा था, जिसका विवाह हो रहा था उस श्रोता के नाम को पूछकर आश्‍वस्‍त होकर निगम जी की टीम रिशेप्‍शन स्‍टेज पर पहुची गिफ्ट दिया हाथ मिलाया, अपना परिचय दिया और नीचे उतर आये। ... पर निगम जी को कुछ अटपटा लग रहा था, यद्धपि वे अपने श्रोता मित्र 'वर'

मुक्तिबोध की कविता का सस्वर गायन एक रोमांचकारी क्षण

गजानन माधव मुक्तिबोध बीसवीं सदी के एक महान साहित्यकार थें, जिनका कद इक्कीसवीं सदी में और भी ऊंचा हुआ है। आने वाली सदियों में वे और भी अधिक अन्वेषित होकर और भी महान लेखक होते चले जावेंगे। उनकी कविताओं की जटिलता और रहस्यमयता जग जाहिर है। वे कठिन कवि माने जाते हैं जिन्हें औरों की तरह सेलीब्रेट नहीं किया जा सकता। इसलिए जहॉ अन्य कवियों की कविताऍं आसानी से गाई बजाई जाती रहीं हैं उस तरह से गाना बजाना मुक्तिबोध की कविताओं के साथ संभव नहीं हो पाया था। उनकी किसी कविता का गायन कभी देखने सुनने में नहीं आया था। मेरे लिए आज की तारीख 13 नवंबर 2010 एक यादगार तारीख रहेगी जब जनसंस्कृति मंच, भिलाई के राष्ट्रीय अधिवेशन में मैंने इस चमत्कार को पहली बार होते देखा। मुक्तिबोध को समर्पित इस अधिवेशन की शुरुआत में जो गीत गाए गए उनमें एक गीत मुक्तिबोध का था। यह उनकी प्रसिद्ध कविता ’अंधेरे में’ की पंक्तियों का सस्वर गायन था। इसे पुरुष और महिला कलाकारों ने एक साथ प्रस्तुत किया। जैसे ही मंच पर सामूहिक गान शुरु हुआ मुक्तिबोध की द्वन्द से भरी ये कालजयी पंक्तियॉ गूंज उठीं : ओ मेरे आदर्शवादी मन ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन

देखें ब्‍लॉगर व कवि शरद कोकाश इन दिनों क्‍या कर रहे हैं

शरद कोकाश जी मेरे नगर में ही रहते हैं, गाहे-बगाहे मेल-मुलाकात होते रहती है एवं मोबाईल में बातें भी होती है, वे मुख्‍य रूप से कवितायें लिखते हैं, कहानी,व्यंग्य,लेख और समीक्षाएँ भी लिखते हैं। उनकी एक कविता संग्रह "गुनगुनी धूप में बैठकर" और "पहल" में प्रकाशित लम्बी कविता "पुरातत्ववेत्ता " के अलावा सभी महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिकाओं में कवितायें व लेख प्रकाशित हुई हैं। इसके साथ ही वे शरद कोकाश , पास पड़ोस व ना जादू ना टोना नाम से ब्‍लॉग भी लिखते हैं। उनके पेशे के संबंध में जो जानकारी मुझे है उसके अनुसार से वे भारतीय स्‍टैट बैंक में सेवारत थे जहॉं से उन्‍होंनें स्‍वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली है। मेल-मुलाकातों में हमने कभी पूछा भी नहीं कि वे अब क्‍या करते हैं किन्‍तु आज उन्‍हें कर्मनिष्‍ठ देखकर हम चकरा गए, हुआ यूं कि हम भिलाई में आयोजित जन संस्‍कृति मंच के राष्‍ट्रीय अधिवेशन में कुछ ज्ञान बटोरने के लिए गए तो वहां कार्यक्रम स्‍थल के बाजू में शरद भाई हमें चाय ठेले में चाय बनाते मिले .... शरद भाई बैंक की नौकरी छोड़कर, चाय ठेला चला रहे हैं ... हमारी आंखें तो आश्‍चर

मुक्तिबोध ओ मुक्तिबोध : मुक्तिबोध स्‍मारक परिसर के संबंध में संक्षिप्‍त जानकारी

मूर्धन्य कवि समीक्षक गजानन माधव मुक्तिबोध जी ने अपने जीवन काल की सर्वश्रेष्‍ठ रचनाएं छत्‍तीसगढ़ राज्‍य के राजनांदगांव जिले के दिग्विजय महाविद्यालय  में अपने सेवा काल (1958-1964) के दौरान लिखी उनके इस रचनाकाल और रचनाओं पर देश की शीर्ष अकादमिक व साहित्यिक बिरादरी में निरंतर चर्चा होती रही है। राज्‍य शासन नें उनकी यादों को  जीवंत बनाने के लिए यहां भव्‍य त्रिवेणी संग्रहालय का निर्माण करवाया है। जहां मुक्तिबोध जी रहा करते थे, उनकी साहित्य साधना का स्थान और घुमावदार सीढ़ी जिसका उल्लेख उन्होनें अपनी रचनाओं में की है इस भवन के उपरी मंजिल के उत्तरी खंड में है। इस खडं को पुन: मुक्तिबोध जी को, उनकी यादों के साथ समर्पित करना निश्चय ही उनके प्रति कृतज्ञता एवं श्रृद्धा का प्रतीक है। मुक्तिबोध जी को समर्पित कक्ष को देखकर ऐसा प्रतीत होता है, जैसे वह आज भी अपनी रचनाओं के सृजन में लीन हों। मुक्तिबोध जी का सिगरटे बाक्स, उनकी पोशाक, चश्मा और उनकी वह दो कलमें (पेन) जिससे उन्होंने अपनी अनेक रचनाएं लिखी थी, को वहां देखकर यह आभास होता है जैसे वह कहीं हमारे आसपास मौजदू हों। यह स्मारक सुबह 10 बजे से शाम 5

नोकिया 5233 मोबाईल से ब्‍लॉग पोस्‍टों को पढ़ने का आनंद

साथियों पिछले माह से नोकिया 5233 मोबाईल सेट में एयरसेल के 98 रूपया में 30 दिन अनलिमिटेड पाकेट इंटरनेट उपयोग कर रहा हूं। इस मोबाईल सेट में हिन्‍दी सुविधा तो नहीं है, किन्‍तु ओपेरा मिनी की कृपा से हिन्‍दी नेट का आनंद इस मोबाईल सेट से ले रहा हूं।  इस हैंडसेट के चलते इसमें संस्‍थापित ओपेरा मिनी एवं गूगल रीडर के माध्‍यम से अब हिन्‍दी ब्‍लॉग पोस्‍टों को पढ़ना और भी आसान हो गया है, यद्धपि ब्‍लॉग परम्‍परानुसार हम आपके पोस्‍टों पर टिप्‍पणी नहीं कर पा रहे हैं किन्‍तु जब भी जहां भी समय मिले दो तीन बटनों को पुश करके साथियों के ब्‍लॉग के ताजा पोस्‍टों को हम पढ़ रहे हैं। .... सो हाजिरी नहीं लगा पाने के लिये क्षमा...

छत्‍तीसगढ़ के साहित्‍यकारों व लेखन धर्मियों के लिए आज काला दिवस है

राज्य स्थापना की दसवीं वर्षगांठ के अवसर पर दिये जाने वाले 23 सम्‍मानों /पुरस्कारों की घोषणा राज्य शासन ने कर दी है। इसमें 26 लोगों को आज 1 नवंबर को शाम 6.30 बजे साइंस कालेज ग्राउंड में राज्य अलंकरण से सम्मानित किया जाएगा। समारोह में प्रदेश की विभूतियों के नाम से विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय कार्यो के लिए सम्मान दिया जाएगा।  इन अलंकरणों में पं.सुन्‍दरलाल शर्मा पुरस्‍कार राज्‍य में साहित्‍य के क्षेत्र में उल्‍लेखनीय योगदान के लिये दिया जाता रहा है, इस वर्ष राज्‍य शासन द्वारा पं.सुन्‍दरलाल शर्मा सम्‍मान के लिये संयुक्‍त रूप से जिन नामों की घोषणा की गई है, उसमें से डॉ.उज्‍वल पाटनी के नाम पर हमें आपत्ति है। साहित्‍य के लिये दिया जाने वाला पं.सुन्‍दरलाल शर्मा सम्‍मान इस वर्ष संयुक्‍त रूप से डॉ.उज्‍वल पाटनी एवं डॉ.विनय कुमार पाठक को दिया गया है। डॉ. उज्‍वल पाटनी का नाम इस सम्‍मान में 'घुसेडने' के लिये इस सम्‍मान को साहित्‍य और आंचलिक साहित्‍य के रूप में विभक्‍त कर दिया गया।  प्रदेश सरकार द्वारा डॉ.उज्‍वल पाटनी को साहित्‍यकार के रूप में थोपे जाने  का यह निंदनीय प्रयास है, डॉ.उज्‍व