आरंभ Aarambha सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

जून, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

माली सींचे सौ घड़ा ऋतु आये फल होय : असमय पका सीताफल

सुबह-सुबह बंदरों की आवाजों से नींद खुली, मेरी श्रीमती और पुत्र घर से लगे 'कोलाबारी' में बंदरों की टीम को भगाने की कोशिशों में लगे थे। बंदर घर के बाउंड्रीवाल में लाईन से बैठे थे, बाउंड्रीवाल के उस पार सड़क में कुत्‍ते उन्‍हें उतरने दे नही रहे थे और इस पार हमारी सेना उन्‍हें भगाने के लिए डटी थी पर ढीठ बंदर भाग ही नहीं रहे थे। मेरे बाहर आने और हांक लगाने पर ही वे दूसरे घर के छतों से होते हुए भागे। बंदरों की इस टोली में कोई बारह-पंद्रह बंदर होंगें जो पिछले दिसम्‍बर-जनवरी से हमारे कालोनी में सात-आठ दिनों के अंतराल से लगातार आ रहे हैं। हमारी कालोनी शहर से कुछ दूर है यहां हरियाली ज्‍यादा है और कालोनी से लगे खेत भी है इस कारण बंदरों की आवाजाही होती रहती है पर लगता है पिछले महीनों से इनकी दखल घरों में बढ़ती जा रही है, हम छतो में या खुले स्‍थान में खाने का सामान नहीं रख सकते, बड़ी, आम पापड़ आदि सुखाने में ये उसे चट कर जाते हैं। मेरे घर में आम व अमरूद एवं अन्‍य फलदार पेड़ हैं जो इन बंदरों को ज्‍यादा ललचाते हैं। मेरी श्रीमती व पुत्र अपनी मेहनत से उगाए फलों को लुटते देखकर इन बंदरों को भगाने

छत्‍तीसगढ़ के कुछ और आरूग ब्‍लॉग

सुरेश अग्रहरि छत्‍तीसगढ़ी भाषा भी अब धीरे-धीरे हिन्‍दी ब्‍लॉग जगत में अपने पाव पसार रही है। पिछले पोस्‍ट के बाद रविवार को पुन: छत्‍तीसगढि़या ब्‍लॉगों को टमड़ना चालू किया तो बिलासपुर के भाई प्रशांत शर्मा का एक हिन्‍दी ब्‍लॉग मिला जिसका नाम छत्‍तीसगढ़ी में है। उन्‍होंनें इसमें लिखा है कि इस ब्लाग में आप उन सभी बातों को पढ़ सकेंगे जो गुड़ी(चौपाल) में की जाती है। राजनीति से लेकर देश, दुनिया, खेल से लेकर लोगों के मेल की बातें, जीत हार की बातें, आपने आस-पास की बाते और भी बहुत कुछ...।   प्रशांत शर्मा जी के गुड़ी के गोठ में पहली पोस्‍ट 11 मई 2011 को लिखी गई है और 26 जून 2011 को पांचवी पोस्‍ट में वे भ्रष्टाचार के दशा-दिशा पर विमर्श प्रस्‍तुत कर रहे हैं। छत्‍तीसगढ़ी शीर्षक पहुना के नाम से राजनांदगांव के सुरेश अग्रहरि जी ने भी ब्‍लॉग बनाया है अभी चार लाईना कवितायें ही इसमें प्रस्‍तुत है। आशा है आगे इनके ब्‍लॉग में ब्‍लॉग शीर्षक के अनुसार अतिथि कलम की अच्‍छी रचनांए पढ़ने को मिलेंगी। कमलेश साहू रायपुर के कमलेश साहू जी पेशे से टेलीविजन प्रोड्यूसर हैं, विगत 11 वर्षों से मीडिया क्षेत्र

फेसबुकिया कविता : उनकी हर एक कविता मेरी है

कवितायें भी लिखते हो मित्र मुझे हौले से उसने पूछा कवितायें ही लिखता हूँ मित्र मैने सहजता से कहा. भाव प्रवाह को गद्य की शक्‍ल में ना लिखकर एक के नीचे एक लिखते हुए इतनी लिखी है कि दस-बीस संग्रह आ जाए. डायरी के पन्‍नों में कुढ़ते शब्‍दों नें हजारों बार मुझे आतुर होकर फड़फड़ाते हुए कहा है अब तो पक्‍के रंगों में सतरंगे कलेवर में मुझे ले आवो बाहर पर मैं हूँ कि सुनता नहीं शब्‍दों की . शायद इसलिए कि बरसों पहले मैंनें विनोद कुमार शुक्‍ल से एक अदृश्‍य अनुबंध कर लिया था कि आप वही लिखोगे जो भाव मेरे मानस में होंगें और उससे भी पहले मुक्तिबोध को भी मैंने मना लिया था मेरी कविताओं को कलमबद्ध करने. इन दोनों नें मेरी कविताओं को नई उंचाईयां दी मेरी डायरी में दफ्न शब्‍दों को उन तक पहुचाया जिनके लिये वो लिखी गई थी उनकी हर एक कविता मेरी है क्‍या आप भी मानते हैं कि उनकी सारी रचनांए आपकी है. संजीव

ब्‍लॉगिया कविता : नोबेल की राह पर

ब्‍लॉ.ललित शर्मा के नये ब्‍लॉग एनएच 43 के शेयर इशू होते ही मेरे मन में दबी छिपी आकांक्षा फिर हिलोरे मारने लगी... बहुत दिनों से इच्‍छा थी कि एक नया ब्‍लॉग बनांउ जिसमें स्‍वरचित कवितायें पोस्‍ट करूं. हिन्‍दी ब्‍लॉग जगत के टाप लिस्‍टों में कविता ब्‍लॉगों की चढ़ती लोकप्रियता मुझे बार-बार कविता लिखने को प्रेरित करती रही है. कविता ब्‍लॉगों के पोस्‍टों में पोस्टित कवितायें मुझे मेरे सृजन को ललकारती हैं. उनमें आये कमेंट मुझे चिढ़ाते हैं और मेरा मन कहता है कि तुम क्‍यों नहीं लिखते कवितायें ... मेरा शाश्‍वत कहता है कि मैं नहीं लिख पाउंगा कवितायें क्‍योंकि पद्य गद्य की कसौटी है जबकि मेरा मन कहता है कि क्‍यूं नहीं, जो बात तुम लम्‍बे चौड़े गद्य में कहते हो उसे थोड़ा छोटा करके चार-चार शब्‍दों में एक के नीचे एक लिखते जाओ, हो गई कविता. 'हो गई कविता ...' पब्लिश करो उसे, पाठकों को पसंद आयेंगीं. यकीं मानों, रविन्‍द्र नाथ, मुक्तिबोध सब अब ब्‍लॉग से ही उदित होंगें संपूर्ण विश्‍व की संवेदना ब्‍लॉग की कविताओं में  समा जावेगी. ब्‍लॉग पाठकों के पास समय कम होता है, ब्

छत्‍तीसगढ़ में बिना हो हल्‍ला हिन्‍दी ब्‍लॉगों की बढ़ती संख्‍या

छत्‍तीसगढ़ के सक्रिय ब्‍लॉगों पर विचरण करते हुए पिछले  दिनों ब्‍लॉगर प्रोफाईलों के लोकेशन में छत्‍तीसगढ़ लिखे प्रोफाईलों की संख्‍या को देखकर हमें सुखद आश्‍चर्य हुआ। ऐसे प्रोफाईलों की संख्‍या  5317 नजर आई। वर्डप्रेस व अन्‍य ब्‍लॉग सेवाप्रदाओं के द्वारा बनाए गए ब्‍लॉगों के आकड़े हमें नहीं मिल पाये फिर भी ब्‍लॉगर में बनाए गये ब्‍लॉगों को देखते हुए यह माना जा सकता है कि लगभग इसके एक चौंथाई ब्‍लॉग तो निश्चित ही इनमें भी बनाए गए होंगें। इस प्रकार से वर्तमान में छत्‍तीसगढ़ में लगभग 6000 ब्‍लॉगर हैं। इन 6000 ब्‍लॉगर प्रोफाइलों में एक एक में कम से कम दो ब्‍लॉग तो बनाए ही गए हैं, कुछ ऐसे भी प्रोफाईल हैं जिनमें बारह-पंद्रह ब्‍लॉग हैं जो सामाग्री से भरपूर संचालित हैं। इस तरह से प्रदेश में लगभग 15-20 हजार ब्‍लॉग हैं। ब्‍लॉगर प्रोफाईल से प्राप्‍त आंकड़ों को आनुपातिक रूप से तीन भागों में बांटा जा सकता है। एक, ऐसे ब्‍लॉगर के ब्‍लॉग जो शौकिया तौर पर बनाए गए हैं और उनमें हाय-हलो के अतिरिक्‍त कोई पोस्‍ट नहीं हैं। दसूरा, अंग्रेजी भाषा के ब्‍लॉग हैं जिनमें से अधिकतम में नियतिम या अंतरालों में पोस्‍ट लिखे

सरकारी दामांद अउ उपरी कमई : पीएमटी पेपर लीक (त्‍वरित टिप्‍पणी)

पहला पीएमटी पेपर लीक मामला अभी शांत नहीं हुआ था कि अब दूसरा मामला सामने आ गया। डाक्‍टर की पढ़ाई के लिए प्रवेश परीक्षा के रूप में प्रदेश में आयोजित इस परीक्षा पर अब सामान्‍य जनता का विश्‍वास उठ गया है। पिछले दो दिनों में रायपुर व बिलासपुर क्राईम ब्रांच के द्वारा डीबी भास्‍कर के सहयोग से किए गए खुलाशे में दर्जनों मुन्‍ना भाई पकड़े गए हैं। पीएमटी के पेपर पांच से बारह लाख तक में बेंचे गए और योजना इतनी तगड़ी बनाई गई कि पेपर खरीदने वाले किसी अन्‍य को यह बात ना बतला सके इसलिए उन्‍हें तखतपुर में लगभग बंधक बनाकर रखा गया, उनके मोबाईल ले लिये गए और परीक्षार्थियों के मूल अंकसूची जमा करा कर  लीक पेपर देकर तैयारी करवाई जा रही थी। सभी समाचार-पत्रों नें इसे विस्‍तृत रूप से कवर करते हुए छापा है जिससे आप सब वाकिफ हैं इस कारण समाचार पर विशेष प्रकाश डालने की आवश्‍यकता नहीं है। इस कांड के नेपथ्‍य से उठते विचारों पर चिंतन व विमर्श आवश्‍यक है। पिछले दिनों किसानों की खस्‍ताहाली व छत्‍तीसगढ़ में घटते जोंत के रकबे में कमी होने पर कलम घसीटी करते हुए मुझे मेरे दिमाग में एक छत्‍तीसगढ़ी गीत पर ध्‍यान बार बार जा

प्रो. अश्विनी केशरवानी की कृति बच्चों की हरकतें आनलाईन प्रस्‍तुत

सन् 1980 से 2000 के दो दशक में बच्चों की हरकतों पर भारतीय और विदेशी परिवेश में मनोवैज्ञानिकता के आधार पर प्रो. अश्विीनी केशरवानी जी नें  कई आलेख लिखें हैं। राष्‍ट्रीय पत्रिका धर्मयुग में प्रो. केशरवानी जी की बाल मनोवैज्ञानिक विषयक रचनाएं लगातार प्रकाशित होती रहीं हैं। इसके अलावा इनकी रचनाएं नवनीत हिन्दी डाइजेस्ट और अणुव्रत में भी नियमित छपती रहीं। सर्वोदय प्रेस सर्विस और युवराज फीचर के माध्यम से बच्चों की हरकतों पर रचनाएं देश की छोटी बड़ी सभी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई और रचनाओं के ऊपर अखबारों में संपादकीय लिखे गए। इस महत्‍वपूर्ण विषय पर  प्रो. अश्विनी केशरवानी जी के  आलेखों का संग्रह 'बच्‍चों की हरकतें' के नाम से पिछले वर्ष प्रकाशित हुआ था। 'बच्‍चों की हरकतें'  में संग्रहित सभी आलेखों की उपादेयता को देखते हुए हमनें अपने पाठकों के लिए एक ब्‍लॉग बनाकर उसमें पब्लिश कर दिया है। प्रो. केशरवानी जी से यह कार्य करने का बीड़ा हमने पिछले वर्ष ही लिया था किन्‍तु समयाभाव के कारण इसे समय पर पूर्ण नहीं कर पाये थे। कल देर रात और आज अलसुबह से लगातार कार्य करते हुए इसे अब आनलाई

अफगानिस्तान - दिलेर लोगों की खूबसूरत जमीन

गूगल खोज से प्राप्‍त बुद्ध प्रतिमा का चित्र मेरे बचपन के अच्छे मित्रों में कुछ पख्‍तून भी थे, जो एक ही परिवार से आते थे। उनमें से एक लड़की, जो कक्षा 6 से कक्षा 11 तक मेरे साथ पढ़ी और अब स्कूल टीचर है, ने मुझे काफी प्रभावित किया। यह परिवार अफगानिस्तान के जलालाबाद के आसपास से तिजारत के लिए छत्तीसगढ़ आया और यहीं का होकर रह गया, इन्हीं लोगों ने अफगानिस्तान और वहां की संस्कृति से मेरा परिचय कराया। स्कूल के इन्हीं दिनों में मैं दुनिया में होने वाली घटनाओं पर अपनी प्रतिक्रिया देने के लायक हो रहा था। तब अफगानिस्तान में नजीबुल्ला की सरकार थी। समाचार पत्रों में काबुल की तस्वीरों में स्कर्ट व टॉप पहनी फैशनेबल महिलाओं की भरमार होती थी तथा बड़ी संख्‍या में ब्यूटी पार्लर व वीडियो पार्लर दिखाई पड़ते थे, जिनमें हिन्दी फिल्मों की कैसेटें भरी होती थी। कुल मिलाकर नजारा एक आधुनिक एशियाई देश का होता था। पर बाद के सालों में पूरा मंजर ही बदल गया। आज इस्लामिक आतंकवाद से लड़ने वाले अमेरिका ने ही ट्रेनिंग व हथियार देकर उन तालिबानियों को खड़ा किया जिन्होंने नजीबुल्ला को लैम्प पोस्ट में लटका दिया और पूरे अफगान

वैवाहिक परम्‍पराओं में आनंदित मन और बैलगाड़ी की सवारी

अक्षय तृतिया के गुड्डा-गुड्डी अक्षय तृतिया के दिन से गर्मी में बढ़त के साथ ही छत्तीसगढ़ में विवाह का मौसम छाया हुआ है। पिछले महीने लगातार सड़कों में आते-जाते हुए बजते बैंड और थिरकते टोली से दो-चार आप भी हुए होंगें। इन दिनों आप भी वैवाहिक कार्यक्रमों में सम्मिलित हुए होंगें और अपनी भूली-बिसरी परम्पराओं को याद भी किए होगे। छत्तीसगढ़ में विवाह लड़का-लड़की देखने जाने से लेकर विदा कराने तक का मंगल गीतों से परिपूर्ण, कई दिनों तक चलने वाला आयोजन है। जिसमें गारी-हंसी-ठिठोली एवं करूणमय विवाह गीतों से लोक मानस के उत्साह को बनाए रखने का प्रयास किया जाता है। वैवाहिक मेहमान महीनों से विवाह वाले घरों में आकर जमे रहते हैं, बचपन में हम भी मामा गांव और अन्‍य रिश्‍तेदारों के घरों की शादी में महीनों 'सगाही' जाते रहे हैं। जनगीतकार लक्ष्‍मण मस्‍तूरिहा की पुत्री शुभा का विवाह 12 मई 2011 छत्तीसगढ़ की पुरानी परम्परा में बाल-विवाह की परम्परा रही है, तब वर-वधु को 'पर्रा' में बैठाकर 'भांवर गिंजारा' जाता था और दोनों अबोध जनम-जनम के लिए एक-दूसरे के डोर में बंध जाते थे। सामाजिक मान्यत