आरंभ Aarambha सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

अगस्त, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

जाने चले जाते हैं कहाँ..... पार्श्व गायक मुकेश की पुण्य तिथि पर.....

महान पार्श्व गायक मुकेश जी की 35 वीं पुण्य तिथि. लगता ही नहीं कि उन्हें खोये इतने बरस बीत चुके हैं. उनका अंतिम गीत ‘चंचल,शीतल, निर्मल, कोमल, संगीत की देवी स्वर सजनी’ क्या 35 साल पुराना हो चुका है ? सोचो तो बड़ा आश्चर्य होता है. न हाथ छू सके, न दामन ही थाम पाये बड़े करीब से कोई उठ कर चला गया... व्यक्ति जाता है, व्यक्तित्व नहीं जाता. गायक जाता है, गायन नहीं जाता. कलाकार जाता है, कला नहीं जाती. इसीलिये ऐसी हस्तियों के चले जाने के बावजूद उनकी मौजदगी का एहसास हमें होता रहता है. जग में रह जायेंगे प्यारे तेरे बोल.........जी चाहे जब हमको आवाज दो, हम हैं वहीं –हम थे जहाँ.......... मुकेश जी का जन्म दिल्ली में माथुर परिवार में 22 जुलाई 1923 को हुआ था. उनके पिता श्री जोरावर चंद्र माथुर अभियंता थे. दसवीं तक शिक्षा पाने के बाद पी.डब्लु.डी.दिल्ली में असिस्टेंट सर्वेयर की नौकरी करने वाले मुकेश अपने शालेय दिनों में अपने सहपाठियों के बीच सहगल के गीत सुना कर उन्हें अपने स्वरों से सराबोर किया करते थे किंतु विधाता ने तो उन्हें लाखों करोड़ों के दिलों में बसन

विचार : प्रेमचंद के लिए हमने क्या किया ? - विनोद साव

गूगल खोज से प्राप्‍त चित्रों से बनाया गया कोलाज भारत का सांस्कृतिक इतिहास लिखने वाले ग्रियर्सन कहते हैं कि ‘जब सारे देश में गांधी और नेहरु की लोकप्रियता का तूफान सरसरा रहा था तब ऐसे समय में हिन्‍दी का एक लेखक प्रेमचंद भारतीय जनमानस के दिलों में अपनी जगह बना रहा था।’ यह सही है कि प्रेमचंद - गांधी और नेहरु के बीच जनमे थे। गांधी से दस साल बाद और नेहरु से दस साल पहले। वे भारतीय राजनीति के इन दो महामानवों के जीवन के एक बड़े साक्षी और सहयात्री रहे हैं, उनसे प्रभावित होते रहे हैं और अपने तई उन दोनों को प्रभावित भी करते रहे हैं। प्रेमचंद को हिन्‍दी साहित्य का गांधी भी माना जाता है। नेहरु ने कारागृहों से जो पत्र अपनी बेटी इन्दिरा को अंग्रेजी में लिखे थे उनका हिन्‍दी रुपांतर नेहरुजी ने प्रेमचंदजी से करवाया था जो बाद में ‘पिता के पत्र पुत्री के नाम’ पुस्तक से छपे थे। प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ के नाम से चलने वाली गोदान एक्सप्रेस मध्य-पूर्व रेलवे की एक बेहद सामान्य सी ट्रेन है। आमतौर पर हम महापुरुषों का उनकी जन्मतिथि या पुण्य तिथि में स्मरण करते हैं तब उनके अनेक आयामों पर बातें करते हैं

कालम व प्रतिवेदनों में उलझता आम आदमी

पिछले पोस्‍ट में हमने दुर्ग में भूमि लेकर भवन बनवाने तक एक आम आदमी को होने वाली परेशानियों का जिक्र किया था। इसी क्रम में, जिले में इस माह से कलेक्‍टर दुर्ग के द्वारा भूमि माफियाओं पर शिकंजा कसने के लिए लागू एक नये नियम के संबंध में हम यहॉं चर्चा करना चाहते हैं।  इस नये नियम के तहत् पंजीयन कार्यालय एवं तहसीलदार व पटवारियों को प्रेषित किए गए पत्रों के अनुसार भूमि क्रय-विक्रय के लिए विक्रय पंजीयन के पूर्व विक्रीत भूमि का पटवारी से 14 बिन्‍दु प्रतिवेदन प्राप्‍त करना होगा। जिसमें श्रीमान तहसीलदार महोदय का हस्‍ताक्षर होना आवश्‍यक कर दिया गया है। जिला पंजीयक के पास उपलब्‍ध पत्र के अनुसार निर्धारित 14 बिन्‍दु प्रपत्र के फोटो पहचान पत्र पर श्रीमान तहसीलदार का हस्‍ताक्षर निर्धारित है किन्‍तु विगत दिनों कई बार बदले जा रहे इस प्रपत्र से फोटो पहचान पत्र पर श्रीमन तहसीलदार का हस्‍ताक्षर हटा दिया गया है, कलेक्‍टर द्वारा जारी निर्धारित प्रपत्र में बदलाव की अभिस्‍वीकृति श्रीमान कलेक्‍टर से ली गई है या नहीं, इस बात की यथोचित जानकारी नहीं है किन्‍तु पटवारियों के द्वारा अपने तहसीलदार के द्वारा जार

पचास साल बाद फहराया जय स्‍तंभ में तिरंगा

आजादी मिलने के उपरांत भारत के राज्‍य एवं जिला मुख्‍यालयों में स्‍वतंत्रता दिवस के प्रतीक चिन्‍ह के रूप में जय स्‍तंभ का निर्माण कराया गया था, जिसमें आजादी के बाद एवं संविधान लागू किये जाने के बाद लगातार स्‍वतंत्रता व गणतंत्र दिवस में तिरंगा झंडा फहराया जाता है। छत्‍तीसगढ़ के दुर्ग जिला मुख्‍यालय में भी सन् 1947 में जय स्‍तंभ का निर्माण कराया गया जिसमें शुरूआती दौर में चार-पांच साल तक स्‍वतंत्रता दिवस में तिरंगा झंडा फहराया गया। इसके बाद दुर्ग जिला कार्यालय भवन व जिला न्‍यायालय का विस्‍तार किया और फिर धीरे-धीरे जय स्‍तंभ को भुला दिया गया। दुर्ग जिला अधिवक्‍ता संघ नें इस वर्ष आजादी के प्रतीक के रूप में निर्मित इस जय स्‍तंभ की सुध ली। संघ के पदाधिकारियों द्वारा जिले के जिलाधीश श्रीमती रीना कंगाले जी से अनुरोध कर इस वर्ष जय स्‍तंभ में घ्‍वजा रोहण करने की अनुमति मांगी गई। जिलाधीश महोदया नें ना केवल अनुमति दी एवं आश्‍चर्य व्‍यक्‍त किया कि नगर व प्रशासन के लोग जय स्‍तंभ को भूल कैसे गये। आज प्रात: जय स्‍तंभ पर लगभग पचास साल बाद दुर्ग जिला कार्यालय परिसर में स्थित जय स्‍तंभ पर जि

आम आदमी का स्‍वप्‍न : एक बंगला बने न्‍यारा

राजधानी बनने के बाद प्रदेश में भू-संपदा का अंधा-धुध व्‍यापार आरंभ हुआ था, इस व्‍यापार में व्‍यवसायियों, उद्योगपतियों से लेकर नेताओं और सरकारी कर्मचारियों के नंम्‍बर एक और दो के पैसों का निवेश आज तक अनवरत जारी है। किसानों की जमीन बिल्‍डर और भू-माफिया कम दर में खरीद कर शासन के नियमों को तक में रखते हुए शहरी क्षेत्रों के आस-पास की जमीनों में खरपतवार जैसे बहुमंजिला मकाने और कालोनियां विकसित करने में लगे हैं। भूमि के इस व्‍यापार के कारण अपने मकान का स्‍वप्‍न अब आम जनता की पहुंच से दूर हो रहा है। आम जनता के इस दर्द के पीछे भू-माफियाओं का का व्‍यावसायिक षड़यंत्र रहा है। शासन को जब तक भू-माफियाओं के इन कृत्‍यों का भान हुआ तब तक बहुत देर हो चुकी थी और शहर के आस-पास की जमीनें किसानों के हाथ से छिन चुकी थी। खैर देर आये दुरूस्‍त आये के तर्ज पर शासन नें पिछले वर्ष से ही इसपर लगाम लगाने की मुहिम आरंभ भी की किन्‍तु भू-राजस्‍व, नगरीय प्रशास व नगर विकास के कानूनों के बीच से पेंच ढ़ूढते भू-माफिया अपने व्‍यापार में निरंतर लगे रहे। भूमि क्रय करने के बाद प्रमाणीकरण-किसान किताब प्राप्‍त करने में 8 माह,

रायपुर का नाम बदल कर ‘रैपुर’ किया जाए

जब से शेक्सपियर ने कहा है कि नाम में क्या रखा है! तब से लोग शेक्सपियर के इस कथन पर समय-समय पर बहस करते रहते हैं। अधिकांश लोगों का मत है कि नाम में बहुत कुछ रखा है, नाम से ही व्यक्ति या स्थान की पहचान है। हमारे बहुत से मित्रों का यह चाहना हैं कि अन्य नगरों व राज्यों के बदले जा रहे नामों के बाद अब हमारे प्रदेश की राजधानी रायपुर का नाम भी बदला जाए। भारत में नगरों के नामों को बदलने का आगाज महानगर मुम्बई की जनता ने किया था। मुम्बई का नामकरण स्थानीय देवी मुंबा के नाम पर एवं स्थानीय मराठी भाषा के आधार पर किया गया है। कोलकाता का नाम देवी काली और स्थानीय बाग्ला भाषा के आधार पर बदला गया। मद्रास को भी स्थानीय तमिल भाषा के कारण चेन्नई नाम से बदल दिया गया। बैंगलोर को भी स्थानीय भाषा के अनुरूप बेंगलुरू कर दिया गया, त्रिवेंद्रम को तिरुवनंतपुरम एवं पॉन्डिचेरी अब पुडुचेरी हो गया है। इसके साथ ही देश के विभिन्न नगरों के नाम बदले जाने का प्रस्ताव भी है जिसमें देल्ही को दिल्ली या इंद्रप्रस्थ, अहमदाबाद को कर्णावती, इलाहाबाद को प्रयाग या तीर्थराज प्रयाग, पटना को पाटलिपुत्र, मुगलसराय को दीनदयालनगर, और