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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

देवबलोदा का शिव मंदिर (Dev Baloda)


सघन वन वल्लारियों से आच्छादित मेकल, रामगढ़ तथा सिहावा की पर्वत श्रेणियों से सुरक्षित एवं महानदी, शिवनाथ, खारून, जोंक, हसदो आदि कई छोटी बड़ी नदियों से सिंचित छत्तीसगढ़ प्राचीनकाल में दक्षिण कोसल के नाम से जाना जाता था।


इन नदियों के तट और घाटियों में न जाने कितनी सभ्यताओं का उदय, विकास और अस्त कालगति के अनुसार होता रहा, जिनके अवशेष अभी भी अनेक स्थानों पर बिखरे हुए हैं और उनके प्राचीन महत्व और गौरव की महिमा का गुणगान करते नहीं अघाते हैं। ऐसा ही एक प्राचीन स्थल दुर्ग के पास है- देव बलोदा। प्राचीनकाल में देव मंदिरों के लिए प्रसाद शब्द का प्रयोग किया जाता था। प्रसाद का अर्थ होता है वह स्थल जहां मन प्रसन्न हो। जिनकी रमणीयता से देवताओं और मनुष्यों के मन प्रसन्न होते हैं- वे प्रसाद है। इसीलिए प्रसाद या देवमंदिरों के निर्माण के लिए सुरम्य स्थलों का चुनाव किया जाता था। वराहमिहिर लिखते हैं कि वन, नदी, तालाब, पर्वत, झरनों के निकट की भूमि और उद्यान मुक्त नगरों में देवता सदा निवास करते हैं, इसलिए प्राचीनकाल में देव मंदिरों का निर्माण रम्य स्थानों पर कराया जाता था। छत्तीसगढ़ के प्राचीन मंदिर भी प्राय: ऐसे ही विशिष्ट स्थानों में स्थित हैं।

देव बलोदा रायपुर से लगभग 25 किमी की दूरी पर पड़ता है। भिलाई रेलवे स्टेशन से लगभग 2 मील की दूरी है। रायपुर से कुम्हारी, चरौदा जाते समय चरौदा के पहिले बायीं तरफ इंडियन ऑयल पेट्रोल पंप से थोड़ा-सा आगे जाने पर एक रास्ता देव बलोदा तक हमें पहुंचाता है। थोड़ी दूर तक पक्का सड़क मार्ग है फिर आगे जाने पर ऊबड़खाबड़ कच्चा रास्ता है। सी केबिन रेलवे ट्रैक को पार करते हुए फिर एक और रेलवे ट्रैक को पार करने पर बस्ती दिखाई देती है, वही देव बलोदा है। बस्ती के अंदर अनगिनत मकान हैं। घनी बस्ती के बीच ग्यारहवीं, बारहवीं शती का शिव मंदिर दिखाई देता है। यह मंदिर प्राचीन संस्मारक एवं पुरातात्विक स्थल एवं अवशेष अधिनियम 1958 के अंतर्गत राष्ट्रीय महत्व का घोषित किया गया है। इस मंदिर को भोरमदेव, खजुराहो तथा अजंता की गुफाओं से तुलना की जा सकती है।

यहां महाशिवरात्रि में प्रतिवर्ष एक बड़ा मेला भरता है। मेले के समय बाजार चौक में बहुत रौनक रहती है। मेला लगने पर आसपास के गांवों के लोग भी आते हैं। यह शिव मंदिर चारों तरफ से लोहे के जंगलों से घिरा है। एक लोहे के द्वार से मंदिर के प्रांगण में प्रवेश किया जा सकता है। मंदिर के चारों तरफ हरे-भरे पेड़ लगे हैं और चारों तरफ बैठने के लिए लोहे की कुर्सियां बनी हैं। ग्रामवासी इस मंदिर में पूजा अर्चना के लिए आते हैं। मंदिर के द्वार सुबह 6 बजे खोल दिए जाते हैं। मंदिर के पुजारी ने बताया कि शाम सात बजे मंदिर में द्वार बंद कर दिए जाते हैं।

मंदिर एक ऊंची जगती पर निर्मित है। मंदिर के मंडप में प्रवेश करने के लिए सात सोपानों की व्यवस्था है। मंडप खुले रूप में है। वितान स्तंभ के सहारे हैं। इसके बाद अंतराल है और अंतराल के बाद गर्भगृह है। गर्भगृह के बाहर दोनों तरफ दो आले हैं जिसमें अलग-अलग रूप में गणेश जी विराजमान हैं। गांव वाले उनकी पूजा करते हैं। स्तंभों में भी विभिन्न देवी-देवताओं की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। छत की तरफ देखने पर किसी देवता की आकृति उत्कीर्ण दिखाई देती है। गर्भ गृह के सामने छोटा-सा लोहे के द्वार है। गर्भ गृह के चारों तरफ सुंदर अलंकरण दिखाई देता है। द्वार के ऊपर गणेश जी की मूर्ति स्थापित है और उसके ऊपर सरस्वती जी की। ऊपर की ओर सात विभिन्न देवी मूर्तियां उत्कीर्ण हैं।

गर्भगृह में प्रवेश करने के लिए 5 सोपान नीचे उतर कर पहुंचा जा सकता है। बीचोंबीच शिवलिंग प्रतिष्ठित है, पास ही त्रिशूल गड़ा है। शिवलिंग के ऊपर दो नाग फन हैं, जो अलग-अलग नागों के हैं। गर्भगृह में आले में पार्वती स्थापित है। आले के ऊपर लगे पत्थर पर साईं बाबा, पार्वती, शीतला माता, बजरंग बली स्थापित है। कोने में त्रिशूल रखा है। ग्राम के बच्चों के साथ मैं भी गर्भगृह में उतरी।

गर्भगृह के द्वार के दायीं तथा बायीं तरफ शिव की मूर्ति उत्कीर्ण है। शिव की मूर्ति चतुर्भुजी है। एक हाथ में डमरू, एक हाथ में त्रिशूल, एक हाथ वरद मुदा में तथा एक हाथ में आयुध लिए खड़े हैं। सिर पर जटाजूट है। कानों में कुंडल, गले में हार है। पास में नंदी और नाग का अंकन है। दोनों ही तरफ दो-दो स्त्री मूर्तियां हैं। बाह्य विन्यास में अधिष्ठान में मोल्डिंग है जिसमें गजधर, अश्वधर, फिर नरधर है। मंदिर की बाह्य दीवारों पर एक के ऊपर एक पांच पंक्तियों में अनेक तरह के दृश्य उत्कीर्ण है। दीवार की सबसे नीचे की पंक्ति हाथियों के अंकन से भरी है। इनमें कहीं-कहीं दो हाथी एक दूसरे की तरफ सूंड किए हैं तो किसी दृश्य में एक के पीछे एक हाथी है तो किसी अन्य दृश्य में हाथी एक दूसरे की तरफ पीठ किए हैं।

एक स्थान पर रीछ का आखेट करते हुए दिखाया गया है जो बहुत ही आकर्षक है। दीवारों में कई दृश्यों में रीछ का रूप उत्कीर्ण किया गया है जिन्हें मारने के लए शिकारी हाथों में बरछा लिए हुए हैं। वहां के ग्रामीणों से पूछने पर पता चला कि इस क्षेत्र में प्राचीनकाल में रीछ बहुतायात से थे। दीवारों पर अनेक मिथुन मूर्तियां भी दर्शायी गई हैं। घुड़सवारों की विभिन्न दृश्यावलियां हैं। एक दृश्य में दो बैलों को लड़ते हुए दिखाया गया है। किसी-किसी दृश्य में शिव को त्रिशूल और उमरू लिए हुए दिखाया गया है। एक दृश्य में गणेश नृत्य मुद्रा में हैं। एक चित्र में रथ पर सवार हाथ में धनुष-बाण लिए योध्दा का है। शिव अनेक स्थलों पर डमरू, त्रिशूल, कमंडलू लिए अंकित है। एक दृश्य में मूर्ति में शरीर मानव का और मुख पशु का है। मंदिर के प्रवेश द्वार के सोपान के दोनों तरफ एक ही तरह के दृश्य दिखाई देते हैं। दोनों तरफ द्वारपाल का अंकन है। एक दृश्य में सोपान के दोनों तरफ पालकी कंधे पर उठाए दो व्यक्ति हैं। एक दृश्य में पालकी में बैठा व्यक्ति स्पष्ट दिखाई दे रहा है परंतु दूसरे दृश्य में पालकी में बैठे व्यक्ति का अस्पष्ट अंकन है। पीछे कोई खड़ा है। हर तरफ की दीवार में दो-दो आले हैं जो रिक्त हैं। तीन व्यक्तियों की दृश्यावली रोचक है मध्य में स्त्री खड़ी है, उसके दूसरी तरफ नृत्य करते हुए और एक तरफ डमरू बजाते हुए नृत्य-गान का दृश्य है। उसके पास वाले दृश्य में पांच व्यक्ति विविध प्रकार के आयुधों को लिए हुए दिखाए गए हैं। इनमें एक का मुख अस्पष्ट है एक का सिर नहीं है। एक मूर्ति पशु पर सवार अष्ट भुजी है। ज्यादातर दृश्य नृत्य-गान तथा आखेट के हैं।

मंदिर के भीतर चार स्तंभों पर उत्कीर्ण मूर्तियां तथा प्रवेश द्वार के चौखट पर शिल्प का श्रेष्ठ काम किया गया है और उन पर की गई पॉलिश भी उत्कृष्ट है। मंदिर के समीप ही पत्थरों से बांधा गया एक तालाब है। मंदिर से सात सोपान उतरने पर तालाब तक पहुंचा जा सकता है। कुंड में असंख्य मछलियां विचरण करती दिखाई दे रही थी। तालाब के आसपास हरे भरे पेड़ लगाए गए हैं। मंदिर के प्रांगण में खेल रहे बच्चों और पूजा करने आए ग्रामीणों से जब तालाब के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि जब कभी तालाब का पानी कम होता है तो नीचे उतरने के लिए सीढ़िया दिखाई देती हैं। सीढ़ियों की संख्या लगभग बाईस है और तालाब में सुरंग जैसा एक छेद है जो आरंग तक जाता है ऐसा लोक-विश्वास है। वहां के लोगों को उनके अनुसार तालाब में पानी भी वहीं से आता है।

मंदिर के सामने बने खुले मंडप में चार स्तंभ है और बीच में नंदी स्थापित है। सामने पुरुष मूर्ति है। पास में ही एक छोटे स्तंभ में सती मूर्ति हाथ जोड़े खड़ी है, पास ही त्रिशूल गड़ा है।सामने एक शीतला माता का मंदिर है। उस मंदिर में पाषाण की अनेक भगवानों की मूर्तियां रखी हुई हैं। शीतला माता के मंदिर के पास एक क्वार्टर बना है, जहां चौकीदार रहता है। मंदिर के आसपास बड़े-बड़े पेड़ लगे होने के कारण और तालाब के पानी के कारण हरियाली और शीतलता मन को मोह लेती है। मंदिर के बाहरी दीवार पर उकेरे दृश्यों में मन मानो कहीं खो जाता है।

डॉ.मोना जैन

टिप्पणियाँ

  1. सड़क के रास्ते रायपुर से दुर्ग अक्सर जाना होता है, पर इस जगह की जानकारी नहीं थी. बहुत सुंदर वर्णन किया है आपने. अब की बार वहां जरूर जाना होगा. आपने ऊबड़-खाबड़ रास्ते का जिक्र किया है. कार से वहां तक जाया जा सकेगा या नहीं?

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