विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
इन दिनों छत्तीसगढ़ी फिल्मों में प्रेम ( मया ) की बहार है। ये वही बहार है जो हिन्दी फिल्मों में बीते दिनों की बात हो गई है। सुबुक सुबुक वाली बहार। ग्लीसरीनी ऑंसू से भरे नायक नायिकाओं की ऑंखों का सुबुक सुबुक मया। जिसमें कोई कृष्ण कन्हैया जैसा नायक होता था , जो नालायक आवारा किसम का प्रेमी होता था और ‘ मैं हूँ गँवार मुझे सबसे है प्यार ’ जैसा गीत गाते हुए खेत खलिहानों में घूमा करता था किसी शहरी छम्मक छल्लो के इन्तजार में। बाद में विरह के गीत गाकर और फिर खलनायक के साथ पहलवानी दिखाकर मामला सलटा देता था। आजकल छत्तीसगढ़ी फिल्मों में इस तरह का मया पलपला रहा है। अगर 1962 के बाद बनी एक दो छत्तीसगढ़ी फिल्मों को छोड़ दें तो सही मायने में छत्तीसगढ़ी भाषा में फिल्में नये राज्य के गठन के बाद बनकर आयी हैं - बॉक्स आफिस हिट मसालों से भरी हुई रंगीन और झकाझक फिल्में। इस तरह की शुरुवात करने का श्रेय सतीश जैन ले गए हैं जो कभी बॉलीवुड में अपनी किस्मत अजमा चुके है और वहॉं से ढेर सारा अनुभव बटोर कर अब छॉलीवुड में फिल्में बनाने में पिल पड़े हैं। सतीश जैन का यही अनुभव उन्हें छत्तीसगढ़ी फिल्मों के दूसरे निर्माता -