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दिसंबर, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

खाय बर खरी बताए बर बरी

छत्तीसगढ़ी के इस मुहावरे का अर्थ है रहीसी का ढ़ोंग करना. इस मुहावरे में प्रयुक्त 'खरी' और 'बरी' दोनो खाद्य पदार्थ हैं, आईये देखें : संस्कृत शब्द क्षार व हिन्दी खारा से छत्तीसगढ़ी शब्द 'खर' बना, इसका सपाट अर्थ हुआ नमकीन, खारा. क्षार के तीव्र व तीक्ष्ण प्रभावकारी गुणों के कारण इस छत्तीसगढ़ी शब्द 'खर' का प्रयोग जलन के भाव के रूप में होने लगा, तेल खरा गे : तलने के लिए कड़ाही में डले तेल के ज्यादा गरम होने या उसमें तले जा रहे खाद्य के ज्यादा तलाने के भाव को खराना कहते हैं. संज्ञा व विशेषण के रूप में प्रयुक्त इस शब्द के प्रयोग के अनुसार अलग-अलग अर्थ प्रतिध्वनित होते हैं जिसमें नमकीन, तीव्र प्रभावकारी, तीक्ष्ण, जला हुआ या ज्यादा पकाया हुआ, हिंसक, निर्दय, सख्त, अनुदार, स्पष्टभाषी, कठोर स्वभाव वाला, कटु भाषी. इससे संबंधित कुछ मुहावरे देखें ' खर खाके नइ उठना : विरोध ना कर पाना', ' खर नइ खाना : सह नहीं सकना', ' खर होना : तेज तर्रार होना', ' खरी चबाना : कसम देना'. 'खरी' तिलहन उपत्पादों के पिराई कर तेल निकलने के

एती के बात ला ओती करना

इस छत्तीसगढ़ी मुहावरे का अभिप्राय है चुगली करना (Backbite). इस मुहावरे में प्रयुक्त छत्तीसगढ़ी के दो अहम शब्दों का विश्लेषण करते हैं, 'एती' और 'ओती' यहां और वहां के लिए प्रयुक्त होता है इन दोनों शब्दों पर कुछ और प्रकाश डालते हैं. संस्कृत शब्द 'एस:' से बना छत्तीसगढ़ी शब्द है 'ए' जिसका अर्थ है यह या इस 'ए फोटू : यह फोटो'. इस 'ए' और 'ओ' का प्रयोग संबोधन के लिए भी किया जाता है 'ए ललित'. प्रत्यय के रूप में 'ए' किसी निश्चयार्थ के भाव को प्रदर्शित करने शब्द बनाता है यथा 'एखरे, एकरे : इसीका', 'ए' विश्मयादिबोधक के रूप में भी प्रयुक्त होता है 'ए ददा रे : अरे बाप रे. 'ए' के साथ जुड़े शब्दों में 'एतेक : इतने', 'एदइसन : इस प्रकार का', 'एदरी : इस बार', 'एदे : यह', 'एलंग : यहॉं, दिशाबोधक', 'एला : इसे, इसको', 'एसो : इस साल' आदि शब्द प्रयुक्त होते हैं. मुहावरे में प्रयुक्त 'एती' संस्कृत शब्द इत:, इतस् व हिन्दी इत, ऐ से अपभ्रंश से 'एती&#

अड़हा बईद परान घाती

यह कहावत हिन्दी कहावत नीम हकीम खतरे जान का समानार्थी है, जिसका अभिप्राय है : अनुभवहीन व्यक्ति के हाथों काम बिगड़ सकता है. अब आईये इस छत्तीसगढ़ी मुहावरे में प्रयुक्त छत्तीसगढ़ी शब्द 'अड़हा' व 'घाती' को समझने का प्रयास करते हैं, 'बइद' (वैद्य) और 'परान' (प्राण) का अर्थ तो आप समझ ही रहे होंगें. 'अड़' संस्कृत शब्द हठ का समानार्थी है, अड़ से'अड़हा' बना है जो विशेषण है. हिन्दी शब्द अड एवं छत्तीसगढ़ी प्रत्यय 'हा' से बने इस शब्द का सीधा अर्थ है अड़ने वाला, अकड़ दिखाने वाला, जिद करने वाला, अज्ञानी, नासमझ, मूर्ख, विवेकहीन. किसी के आने या कोई काम होने की प्रतीक्षा में अड़े रहने की क्रिया रूप में भी 'अड़हा' प्रयुक्त होता है, इसमें 'ही' जोड़कर इसे स्त्रीलिंग बनाया जाता है यथा 'अड़ही'. वर्ष का वह पक्ष जिसमें भगवान की पूजा नहीं होती अर्थात पितृपक्ष को 'अड़हा पाख कहा जाता है. अड़ने से ही 'अड़ियल' बना है. अड़ से बने शब्द 'अड़ाना' सकर्मक क्रिया के रूप में रोकना या अटकाने के लिए प्रयुक्त होता है.गिरती हु

'कोटकोट' और 'परसाही' Chhattisgarhi Word

पिछली पोस्ट के लिंक में पाटन, छत्तीसगढ़ के मुनेन्द्र बिसेन भाई ने फेसबुक Facebook में कमेंट किया और मुहावरे को पूरा किया ' कोटकोट ले परसाही त उछरत बोकरत ले खाही '. इसमें दो छत्तीसगढ़ी शब्द और आए जिसे स्पष्ट करना आवश्यक जान पड़ा, तो लीजिए 'कोटकोट' और 'परसाही' शब्द के संबंध में चर्चा करते हैं. शब्दकोश शास्त्री चंद्रकुमार चंद्राकर जी संस्कृत शब्द 'कोटर' (खोड़र) के साथ 'ले' को जोड़कर 'कोटकोट' का विश्लेषण करते हैं, इसके अनुसार वे 'कोटकोट' को क्रिया विशेषण मानते हुए इसका अर्थ खोड़र, गड्ढा या किसी गहरे पात्र के भरते तक, पेट भरते तक, पूरी क्षमता तक, बहुत अधिक बतलाते हैं. इसी से बना शब्द 'कोटना' है जो नांद, पशुओं को चारा देने के लिए पत्थर या सीमेंट से बने एक चौकोर एवं गहरा पात्र है. मंगत रवीन्द्र जी ताश के खेल में प्रयुक्त शब्द 'कोट होना' का भी उल्लेख करते हैं जिसका अर्थ पूरी तरह हारना है, वे करोड़ों में एक के लिए 'कोटम जोट' शब्द का प्रयोग करते हैं जो कोट को कोटिकोटि का समानार्थी बनाता है. छत्तीसगढ़ में हिरण

उछरत बोकरत ले भकोसना

छत्‍तीसगढ़ी के इस मुहावरे का भावार्थ है सामर्थ से अधिक खाना. आईये इसमें प्रयुक्‍त छत्‍तीसगढ़ी शब्‍दों का अर्थ समझने का प्रयास करते हैं. 'उछरत' शब्‍द 'उछर' से बना है, छत्‍तीसगढ़ी में 'उछर-उछर के खाना' शब्‍द का प्रयोग बहुधा होता है जिसका अर्थ है खूब खाना. इस 'उछर' में निरंतरता को प्रस्‍तुत करने के रूप में 'त' प्रत्‍यय को यदि जोड़ें तो हुआ खूब खाते हुए. एक और शब्‍द है 'उछार', शब्‍दकोश शास्‍त्री इसे संज्ञा के रूप में प्रयुक्‍त एवं इसका अर्थ कै, उल्‍टी, वमन बतलाते हैं. क्रिया के रूप में यह शब्‍द 'उछरना' प्रयुक्‍त होता है. इस क्रिया को 'उछराई' (कै का आभास, उल्‍टी करने का मन होना)कहा जाता है. इस प्रकार से 'उछरत' का अर्थ है खाई हुई चीज बाहर निकालना, वमन, उल्टी करना (Vomiting). 'बोकरत'का अर्थ जानने से पहले देखें 'बोकरइया' शब्‍द को जिसका अर्थ भी वमन करने वाला ही है. 'बोकरना' का भी अर्थ इसी के नजदीक है बो-बो शब्द के साथ खाए हुए अनाज को मुह के रास्ते पेट बाहर से निकालना. यहॉं प्रयुक्‍त मुहावरे मे

आन के खाँड़ा आन के फरी खेदू नांचय बोइर तरी

छत्तीसगढ़ी के इस लोकोक्ति का मतलब है मांगी गई वस्तु पर मजे करना. इस लोकोक्ति में प्रयुक्त छत्तीसगढ़ी शब्द 'आन', 'खाँड़ा', 'फरी' और 'तरी' का अर्थ जानने का प्रयास करते हैं. मर्यादा, इज्जत व मान के लिए प्रयुक्त हिन्दी शब्द 'आन' की उत्पत्ति संस्कृत शब्द आणिः से हुई है जिसका अर्थ प्रतिष्ठा है. छत्तीसगढ़ी में भी इसी अर्थ में 'आन' का प्रयोग कभी कभी होता है. संस्कृत के ही अन्य से उत्पन्न छत्तीसगढ़ी शब्द 'आन' सवर्नाम है जिसका अर्थ है अन्य, क्रिया के रूप में इसे 'आने' प्रयोग करते हैं जिसका अभिपाय भी अन्य या दूसरा ही है. अन्य मिलते जुलते शब्दों में 'आनना' जो संस्कृत के 'आनय' से बना प्रतीत होता है - लाना. संस्कृत अपभ्रंश आणक का 'आना' जिसका अर्थ है रूपये का सोलहवां भाग अर्थात छः पैसे. किसी स्थान से वक्ता की ओर आने की क्रिया एवं बुलाने को भी 'आना' कहा जाता है. वृक्ष में फल, फूल आदि का लगने को भी 'आना' कहा जाता है. भाव बढ़ने के लिए 'आना' प्रयोग में आता है. प्रस्तुत लोकोक्ति में 

ओरवाती के पानी बरेंडी नई चढ़य

छत्‍तीसगढ़ी के इस लोकोक्ति का अर्थ है 'असंभव कार्य संभव नहीं होता'. इस लोकोक्ति में प्रयुक्‍त दो शब्‍दों का अर्थ जानने का प्रयास करते हैं- ओरवाती और बरेंडी. 'ओरवॉंती' और 'ओरवाती' दोनों एक ही शब्‍द है, यह संस्‍कृत शब्‍द अवार: से बना है जिसका अर्थ है किनारा, छोर, सीमा, सिरा. हिन्‍दी में एक शब्‍द है 'ओलती' जिसका अर्थ है छप्‍पर का वह किनारा जहां से वर्षा का पानी नीचे गिरता है, ओरी. संस्‍कृत और हिन्‍दी के इन्‍हीं शब्‍दों से छत्‍तीसगढ़ी में ओरवाती बना होगा. पालेश्‍वर शर्मा जी 'ओरवाती' का अर्थ झुका हुआ, नीचे लटका हुआ व छप्‍पर का अग्रभाग बतलाते हैं. लोकोक्ति के अनुसार छप्‍पर का अग्रभाग (Eaves, the edge of roof) शब्‍दार्थ सटीक बैठता है, ओरवाती को ओड़वाती भी कहा जाता है. इससे मिलता एक और छत्‍तीसगढ़ी शब्‍द है 'ओरिया' जिसका अर्थ है छप्‍पर के पानी को संचित कर एक जगह गिरने के लिए लगाई गई टीने की नाली. 'ओरिया' शब्‍द पितृपक्ष में पितरों को बैठने के लिए गोबर से लीपकर बनाई गई मुडेर के लिए भी प्रयुक्‍त होता है. 'ओरी-ओरी' और 'ओसरी

काबर झँपावत हस

छत्तीसगढ़ी के इस कहावत का मतलब है 'खतरा मोल क्यूं लेते हो'. इस कहावत में दो छत्तीसगढ़ी शब्दों को समझना होगा, 'काबर' और 'झँपावत'. 'काबर' शब्द क्रिया विशेषण है जो क्यूं से बना है, अतः 'काबर' का अर्थ है किसिलए. 'काबर' का प्रयोग छत्तीसगढ़ी में समुच्चय बोधक शब्द क्योंकि के लिए भी प्रयुक्त होता है, 'मैं अब जाग नी सकंव काबर कि मोला नींद आवत हे'. इस कहावत में 'काबर' का अर्थ किसिलए से ही है. 'झँपावत' 'झप' का क्रिया विशेषण है जो संस्कृत शब्द 'झम्प' से बना है जिसका अर्थ है 'जल्दी से कूदना, तुरंत, झटपट, शीघ्र' छत्तीसगढ़ी शब्द 'झपकुन' से यही अर्थ प्रतिध्वनित होता है. इसी 'झप' से बना शब्द है 'झंपइया' जिसका अर्थ है टकराने, गिरने या संकट में फंसने वाला. टकराने, गिरने या संकट में फंसने वाली क्रिया के भाव को प्रकट करने वाला शब्द है 'झंपई'. इसी शब्द का क्रिया रूप है 'झंपाना' जिसका मतलब डालना, जान बूझ कर फंसना, गिरना, कूद पड़ना (to fall down, collide) से है.

चोर ले मोटरा उतियइल (उतयइल)

छत्तीसगढ़ी के इस कहावत का अर्थ है 'वह उतावला होकर काम करता है'. राहुल सिंह जी इसे स्‍पष्‍ट करते हैं - इस तरह कहें कि मोटरा, जिसे चोर को चुरा कर अपने साथ ले जाना है, वह स्‍वयं ही चोर के साथ जाने के लिए चोर से भी अधिक उत्‍साहित है, या इसका अर्थ 'मुद्दई सुस्‍त, गवाह चुस्‍त' जैसा है? संजय जी का कहना है कि पंजाबी भाषा में यह कहावत 'चोर नालों(के मुकाबले) गंड(गांठ\गठरी) काली(उतावला होना)' के रूप में प्रचलित है यानि कि चोर से ज्यादा जल्दी उस गठरी को है, जिसे चोर ले जाना चाहता है. अब इस शब्दांश में प्रयुक्त छत्तीसगढ़ी शब्दों का अर्थ जानने का प्रयास करते हैं. इस कहावत में दो शब्द हैं जिसे समझना आवश्यक है जिसके बाद इस कहावत का अर्थ स्पष्ट हो जावेगा. रमाकांत सिंह जी कहते हैं कि चोर 'चुर' धातु से बना है , * चोरयति * इतय याने यहाँ , उतय याने वहां , रीवां में बोल जाता है . उतयाइल में कोस कोस म पानी बदले , चार कोस म बानी की स्थिति बनती है , जहाँ तक मेरी जानकारी है छत्तीसगढ़ी में वचन , लिंग, संज्ञा , सर्वनाम, विशेषण , क्रिया , आदि की स्थिति स्पष्ट है किन्तु उ

अम्मट ले निकल के चुर्रूक मा परगे

छत्तीसगढ़ी में यह मुहावरा (Phrase) हिन्दी के आसमान से गिरे खजूर में अटके (Falling from the sky stuck in palm) वाले मुहावरे के स्थान पर प्रयुक्त होता है. इस शब्दांश का अर्थ समझने के लिए इसमें प्रयुक्त दो शब्दों पर चर्चा करना आवश्यक है 'अम्मट' एवं 'चुर्रूक' अम्मट का अर्थ जानने से पहले 'अमटइन' को जाने अमटइन का अर्थ है 'अमटाना' यानी खट्टापन (Sourness), खटाई (Sour) यह संज्ञा के रूप में प्रयुक्त होता है, जिसका विशेषण है 'अम्मट' : खट्टा या खट्टे स्वाद वाला. इससे मिलते जुलते अन्‍य शब्‍दों पर भी नजर डालते हैं. 'अमटहा' के साथ 'हू' जोड़ने पर विशेषण 'अमटहू' बनता है. इसका अकर्मक क्रिया खट्टा होना व सकर्मक क्रिया खट्टा करना है( अमटाना ). बिलासपुर व खाल्हे राज में 'अमटावल' शब्द प्रयुक्त होता है जिसका अर्थ है खट्टा किया हुआ या जो खट्टा हो गया है. अम्मट या अम्मठ पर चर्चा करते हुए अम्‍मटहा साग 'अमारी' शब्द पर भी ध्यान जाता है जो छत्तीसगढ़ का प्रिय खट्टा साग है, अमारी पटसन प्रजाति का पौधा है जिसके पत्‍ते व फूल को भाजी

छत्‍तीसगढ़ी गज़ल संग्रह ‘मोर गज़ल के उड़त परेवा’ : (II)

पिछले पोस्‍ट का शेष ..   नवोदित राज्‍य छत्‍तीसगढ़ में तेजी से हो रहे विकास की आड़ में मानवता विनाश की ओर अग्रसर होती जा रही है। बढ़ते औद्यौगीकरण के कारण खेती के लिए भूमि का रकबा कम से कमतर हो रहा है, नदियॉं व तालाबें बेंची जा रही है। कृषि आधारित जीवनचर्या वाले रहवासियों की पीड़ा संग्रह में कुछ इस तरह से अभिव्‍यक्ति पाती है – का गोठियावौं 'कौसल' मैं हर भुइयॉं के दुखपीरा, भूख मरत हे खेती खुद अउ तरिया मरे पियासा. देश में व्‍याप्‍त भ्रष्‍टाचार और भूमण्‍डलीकरण की विकराल समस्‍या पर मुकुंद जी कहते हैं कि नाली और पुल बनाने का पैसा साहब, बाबू और नेता लोग सब मिलजुल के खा गए, भ्रष्‍टाचार ऐसा कि गायों के चारे को भी लोग खा गए - साहेब, बाबू, नेता जुरमिल, नाली पुलिया तक ला खा डारिन, गरूवा मन बर काहीं नइये, मनखे सब्बो चारा चरगे. संग्रह में गज़लकार ना केवल विरोध और विद्रोह‍ को मुखर स्‍वर देता है वरन वह जन में विश्‍वास भी जगाता है। परिस्थितियों का सामना करते हुए उन्‍हें हिम्‍मत रखने का हौसला देता है। मुकुंद कौशल जी ठेठ छत्‍तीसगढ़ी शब्‍दों में गजब का बिम्‍ब उके

आंचलिक भाषा का सर्वश्रेष्‍ठ गज़ल संग्रह ‘मोर गज़ल के उड़त परेवा’ (I)

प्रादेशिक भाषाओं में गज़ल कहने के समक्ष चुनौतियों को स्‍वीकार करते हुए मनोज भावुक ने जब भोजपुरी में गज़ल संग्रह प्रकाशित करवाया और यह संग्रह  मित्र शैलेष भारतवासी के हिन्‍द युग्‍म से प्रकाशित हुआ तब तक मैं इस पर गंभीर नहीं था। सन् 2006 के लिए जब मनोज भावुक के इस संग्रह को भारतीय भाषा परिषद के पुरस्‍कारों के लिए चुना गया तब खुशी हुई। इस बीच में मनीष कुमार जी नें उस संग्रह के गज़लों पर दो तीन समीक्षात्‍मक आलेख लिखे और फिर बहुत सारे भोजपुरिया मित्रों नें समवेत स्‍वर में उस संग्रह के ठेठ शब्‍दों और माधुर्य पर इंटरनेट में बीसियों पोस्‍ट लिखे। इससे मेरा छत्‍तीसगढि़या मन उत्‍साह से भर गया और मैंनें भी छत्‍तीसगढ़ी भाषा में लिखे गए गज़लों को अपने वेब मैग्‍जीन गुरतुर गोठ डॉट काम में क्रमश: डालना आरंभ किया जिसमें जनकवि मुकुन्‍द कौशल जी के पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित छत्‍तीसगढ़ी गज़लों को भी सामिल किया गया । इसी क्रम में डॉ.सुधीर शर्मा जी से सलाह प्राप्‍त करने पर ज्ञात हुआ कि मुकुन्‍द कौशल जी की गज़ल विश्‍वविद्यालय के पाठ्यक्रम में है और इनकी एक संग्रह भी प्रकाशित हो चुकी है। सहृदय मुकु

चेरिहा के पेट म पानी नइ पचय

छत्तीसगढ़ी के इस मुहावरे का अर्थ है चुगलखोर के पेट में बात नहीं पचती. इस मुहावरे में जिन छत्तीसगढ़ी शब्दों का प्रयोग हुआ हैं उनमें से 'चेरिहा' को छोड़कर अन्य शब्दों का अर्थ हिन्दी भाषी समझ ही गए होंगें. छत्तीसगढ़ी शब्द 'चेरिहा' बना है 'चेरि' और 'हा' से. शब्दकोश शास्त्री 'चेर' को संस्कृत शब्द 'चोलक:' से अपभ्रंश मानते हैं जिसका अर्थ है छाल. छत्तीसगढ़ी में आम की गुठली को 'चेर' कहा जाता है, जिसके अनुसार से 'चेर' का अर्थ कवच, तह, पर्त से है. इस संबंध में एक और मुहावरा छत्तीसगढ़ी में बोला जाता है 'चेर के चेर' (पर्त दर पर्त). इस प्रकार 'चेरिहा' मतलब कड़ा पन लिए. जिस आम में गूदा कम हो एवं उसकी गुठली बड़ी हो या उसका पर्त कड़ा हो तो उसे 'चेरिहा आमा' कहा जाता है. फल सब्जियों के उपरी पर्त जब कड़ा हो जाए तो उसे इसी कारण 'चेर्राना' कहते हैं. रामचरित मानस में मंथरा प्रसंग में तुलसीदास जी नें कई बार 'चेरि' शब्द का प्रयोग किया है जिसका अर्थ वहॉं परिचारिका या सहायिका से है. मानव सभ्यता के विकास

अलकरहा के घाव अउ ससुर के बैदी

छत्तीसगढ़ी में कई ऐसे मजेदार शब्द हैं जिसका प्रयोग छत्तीसगढ़ के हिन्दी भाषी लोग भी कभी कभी करते हैं और उस शब्द का आनंद लेते हैं. इनमें से कुछ को इनका अर्थ पता होता है तो कुछ लोग बिना अर्थ जाने उस शब्द के उच्चारण मात्र से अपने आप को छत्तीसगढ़िया मान मजे लेते हैं. सोशल नेटवर्किंग साईटों में भी ऐसे शब्दों का बहुधा प्रयोग होते आप देख सकते हैं. ऐसे शब्दों में एक छत्तीसगढ़ी शब्द है 'अलकरहा' 'अलकरहा गोठियायेस जी!' (बेढंगा बात किया आपने) 'अलकरहा मारिस गा!' (अनपेक्षित मारा यार) 'अलकरहा हस जी तैं ह!' (बेढंगे हो जी तुम) का प्रयोग छत्तीसगढ़ी में होता है. शब्दकोश शास्त्री बतलाते हैं कि यह शब्द विशेषण हैं जो अलकर के साथ 'हा' प्रत्यय लगकर बना है. शब्दार्थ है अनपेक्षित, बेढंगा, बेतुका (Awkward, Absurd). अब आते हैं अलकर शब्द पर क्योंकि अलकरहा इसी से बना है. शब्दकोश शास्त्री इसे संज्ञा मानते हैं और इसका प्रयोग स्त्रीलिंग की भांति करते हैं. 'अल' को अलगाव से जोड़ते हुए 'रोकना या दूर रखना' के साथ 'कर' मतलब 'पास' को मिलाकर 'अपने

मोर भाखा संग दया मया के सुघ्‍घर हवय मिलाप रे ...

छत्‍तीसगढ़ उच्‍च न्‍यायालय के मुख्‍य न्‍यायाधीश न्‍यायमूर्ति यतीन्‍द्र सिंह छत्‍तीसगढ़ उच्‍च न्‍यायालय के मुख्‍य न्‍यायाधीश न्यायमूर्ति यतीन्द्र सिंह जी नें शपथ लेने के साथ ही छत्‍तीसगढ़ के न्‍यायिक व्‍यवस्‍था में कसावट लाने हेतु सराहनीय पहल आरंभ किए हैं। पहली कड़ी के रूप में उन्‍होंनें न्‍यायाधीशों द्वारा अर्जित सम्‍पत्तियों को पारदर्शी बनाने हेतु जो आदेश दिए हैं उससे न्‍यायाधीशों पर जनता का विश्‍वास बढ़ेगा। लंबित मामलों को त्‍वरित व जल्‍दी निबटाने के उद्देश्‍य से शनीवार व अन्‍य छुट्टियों के दिन भी न्‍यायालय में सुनवाई जारी रखे जाने के उनके निर्णय से उन लोगों को मदद मिलेगी जिनके प्रकरण बरसों से न्‍याय के इंतजार में अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं। इसी के साथ उच्‍च न्‍यायालय के न्‍यायानिर्णयों को आनलाईन प्रस्‍तुत करने का बहुप्रतीक्षित कार्य भी उन्‍होंनें बहुत जल्‍द ही प्रारंभ करा दिया, बरसों बंजर सी नजर आती छत्‍तीसगढ़ उच्‍च न्‍यायालय की वेबसाईट अब जीवंत हो गई है। पिछले दिनों उच्‍च न्‍यायालय बिलासपुर में कुछ मामलों के संबंध में जाना हुआ तो उनके डबल बैंच कोर्ट में भी मामलों पर बहस

संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा

जयतु संस्कृतम् । वदतु संस्कृतम् । पठतु संस्कृतम् । लिखतु संस्कृतम् ॥ का नारा इंटरनेट में बुलंद करने वाले बहुत कम लोग ही सक्रिय हैं जिसमें से एक हैं डॉ० संकर्षण त्रिपाठी जी. इनके ब्लॉग से मैं पिछले दिनों रूबरू हुआ. ब्लॉग में इन्होंनें 'संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा' पर सात कड़ियों में पोस्ट लिखा है. इन पोस्टों पर लिखते हुए उन्होंनें पाठकों से कहा है कि 'यदि संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा विषयक मेरा यह प्रयास सुधीजनों को आत्मिक संतोष प्रदान करते हुए कामशास्त्र एवं कामसूत्र के संबन्ध में प्रचलित भ्रान्त धारणाओं को निर्मूल करने में सहायक हो सके, यही इस परिश्रम का प्रतिफल एवं कार्य की सफलता होगी।'  लिंक यहॉं है : संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा (1) संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा (2) संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा (3) संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा (4) संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा (5) संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा (6) संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा (7)