विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
छत्तीसगढ़ी के इस मुहावरे का अर्थ है रहीसी का ढ़ोंग करना. इस मुहावरे में प्रयुक्त 'खरी' और 'बरी' दोनो खाद्य पदार्थ हैं, आईये देखें : संस्कृत शब्द क्षार व हिन्दी खारा से छत्तीसगढ़ी शब्द 'खर' बना, इसका सपाट अर्थ हुआ नमकीन, खारा. क्षार के तीव्र व तीक्ष्ण प्रभावकारी गुणों के कारण इस छत्तीसगढ़ी शब्द 'खर' का प्रयोग जलन के भाव के रूप में होने लगा, तेल खरा गे : तलने के लिए कड़ाही में डले तेल के ज्यादा गरम होने या उसमें तले जा रहे खाद्य के ज्यादा तलाने के भाव को खराना कहते हैं. संज्ञा व विशेषण के रूप में प्रयुक्त इस शब्द के प्रयोग के अनुसार अलग-अलग अर्थ प्रतिध्वनित होते हैं जिसमें नमकीन, तीव्र प्रभावकारी, तीक्ष्ण, जला हुआ या ज्यादा पकाया हुआ, हिंसक, निर्दय, सख्त, अनुदार, स्पष्टभाषी, कठोर स्वभाव वाला, कटु भाषी. इससे संबंधित कुछ मुहावरे देखें ' खर खाके नइ उठना : विरोध ना कर पाना', ' खर नइ खाना : सह नहीं सकना', ' खर होना : तेज तर्रार होना', ' खरी चबाना : कसम देना'. 'खरी' तिलहन उपत्पादों के पिराई कर तेल निकलने के