विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
डॉक्टर मिस्टर तिरपाठी जब विश्वविद्यालय में पढ़ाते थे तो उनके अनेक देशी विदेशी शोधार्थी छात्र—छात्रा उनसे मिलने, उनका मार्गदर्शन लेने उनके घर आते रहते थे. सुबह सुबह डॉक्टर मिस्टर तिरपाठी संस्कृत मंत्रों के जाप में और डॉक्टर मिसिज़ तिरपाठी रसोईघर में व्यस्त थे, इसी समय में विदेशी छात्राओं का दल डॉक्टर साहब के घर पहुचा. बैठक में कामवाली बाई फर्श पर पोछा लगा रही थी, और छात्रायें सोफे पर बैठे पोरफेसर साहेब के मंत्र सिराने का इंतजार कर रही थी. एक उत्सुक छात्रा नें कामवाली बाई से पूछा 'व्हाट इज दिस!!' काम वाली बाई को कुछ समझ में आया पर वह चुप रही. पोछा के कपड़े की ओर इशारा करके जब विदेशी छात्रा नें बार बार पूछा तो कामवाली बाई नें तार तार हो गए साहेब के कमीज से बने पोछे के कपड़े को दो उंगली में उपर उठा कर दिखाते हुए कहा — 'दिस इज फ़रिया!!' विदेशी छात्रायें कुछ समझती इसके पहले ही डॉक्टर मिसिज तिरपाठी आ गईं, हाय हैलो के बाद समझाया कि इंडिया में इसी तरह पुराने कपड़े को पानी में डुबो कर पर्श पोंछा जाता है. पोरफेसर साहेब के घर से निकल कर विदेशी छात्रायें देर तक 'फड़िया!'