विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
डॉ. अतुल कुमार क्या सब कुछ बनाने वाले एक ऊपरवाले से भी ऊपर है सोनीया या राहुल या नाज फाउण्डेशन या कि वो हमारी दो पीढ़ी पहले के पूर्वजो से अक्ल मे अबके ये मंत्री इतने ही आगे बढ़ गये है कि जो बात महात्मा गांधी और डॉ.राजेन्द्र प्रसाद, चाचा नेहरू, बाबा साहब और भी लाखों अक्लमदों ने तब काफी सोची-लिखी लम्बी बहस के बाद सविंधान में बनायी वो गलत कहते है! कोई तो खुल के यह बोले, क्या तब भी उन विद्वानों में कोई अक्ल की कमी थी, जो उन्होनें वह धारा संविधान में जारी रखी जिससे असमाजिक कृत्य मानते हुऐ समलैंगिकता को एक गैरकानूनी कारनामा माना। लंदन से पढ़ कर तो ये महान विभूतियां वकालत और उससे भी बड़ी डिग्री उन दासता और अभाव के जमाने में ले आये थे। पता नहीं राहुल और सोनिया कितने पढ़े लिखे हैं और राज चलाने की कितनी बड़ी यूनीर्वसीटी के टॉप के स्कालर हैं? जो भी हो। पर गलत तो गलत है, चाहे त्रिया हठ या बाल हठ या राज हठ में ही करनों क्यों ना पडे। या तो एक मानसिक विकलांगता है समलैंगिकता अथवा फिर परिपक्व जिस्म वाले दोपाये जीव के पास अ-परिपक्व, अविकसित व अल्पविकसित दिमाग की सोच! नहीं तो कम से कम यह तो माना ही जा स