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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

तुरते ताही : कोदो दे के पढ़ई

रविशंकर विश्वविद्यालय के द्वारा अमहाविद्यालयीन छात्रों के लिए स्नातक एवं स्नातकोत्तर के परीक्षाओं के लिए परीक्षा फार्म इन दिनों महाविद्यालयों में आने वाले है. हम इसी का पता लगाने पिछले दिनों शासकीय विज्ञान महाविद्यालय दुर्ग गए वहॉं हमारे सहपाठी नरेश दीवान क्रीड़ा अधिकारी हैं वे मिल गए. आने का कारण पूछा तो हमने बतलाया कि एम.ए. का फार्म भरना है तो पता करने आए थे. उन्होंनें तपाक से कहा कि पिछले साल भी तो तुमने एम.ए.हिन्दी की परीक्षा दी थी ना और तुम्हारा परसेंट भी अच्छा आया था, तो अब फिर क्यों.

नरेश नें प्रतिवाद किया कि इसकी कोई आवश्यकता नहीं, बेकार में लोग अपना समय गवांते हैं. उन्होंनें किसी स्कूल शिक्षक का उदाहरण देते हुए बताया कि वह आठ विषयों में एम.ए. किया है, किन्तु स्कूल शिक्षक ही है. उसने अपने घर के सामने नाम पट्टिका में आठ एम.ए.का उल्लेख बड़े शान से किया है. नरेश का कहने का मतलब था कि उस स्कूल शिक्षक ने किसी विशेष विषय में विशेषज्ञता हासिल नहीं की इसलिए नौकरी के क्षेत्र में उसका विकास नहीं हो पाया. नरेश नें आगे यह भी बताया कि उन आठो एम.ए. में स्कूल शिक्षक का प्राप्तांक प्रतिशत 45 पार नहीं कर पाया जिसके कारण वे आठो डिग्रियॉं उसके पदोन्नति या दूसरी नौकरी में काम नहीं आ पाए. नरेश मुझे ज्यादा महाविद्यालयीन डिग्री लेने में समय बर्बाद करने के बजाए विषय विशेषज्ञता की सलाह दे रहा था.

नरेश की बातों पर अपनी बातें जोड़ने का मन था किन्तु अन्य मित्र भी आ गए और बात घरिया दी गई. मुझे अपने एक महाविद्यालयीन परीक्षा के दिन याद आने लगे जब मुझे अंतिम वर्ष में एक व्यक्ति ने गुरू दक्षिणा मांगी और मेरे नहीं देने पर एक पेपर में मुझे फेल कर दिया गया था जबकि मैं सालों से उस विषय की प्रेक्टिस में था. उन दिनों मैंने एक तथाकथित मानसेवी प्राध्यापक के घर में बोरे में भरे परीक्षा उत्तरपुस्तिकाओं को नौकरों को जांचते देखा था और तभी से लगने लगा था कि परसेंटेज और अच्छे नम्बरों की बातों में दम नहीं है, जब आठवीं पढ़ा व्यक्ति पेपर जांचेगा तो यही होगा. हमने गुरू दक्षिणा दी, पूरक परीक्षा के दिन उत्तर पुस्तिका लिख लेने के बाद गुरू दक्षिणा प्राप्त कर चुके एक तथाकथित गुरू ने कहा कि आखरी में राम सीता लिख दो. हमें बात समझ में नहीं आई, हमने कहा सर, पेपर बहुत अच्छा बना है. उसने पुन: कहा राम सीता लिखो. मैंने राम सीता लिख दिया, उसने सीता राम क्यूं नहीं कहा राम सीता लिखने को क्यों कहा समझ में नहीं आया. रिजल्ट आया और मैं पूरक परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया. उन दिनों मेरे पिताजी जीवित थे उन्होंनें कहा कि 'इही ल कहिथें रे कोदो दे के पढ़ई'

कोदो वाली इस बात का मतलब यह नहीं कि ऐसा ही होता है किन्तु यह सत्य है कि सिस्टम में कुछ ऐसे लोग भी होते हैं. इस शर्मनाक याद के बावजूद नरेश के बातों में दम है, मैं इसे मानता हूं, किन्तु मुझे अब ना तो कोई नौकरी मिलने वाली ना ही किसी प्रकार की पदोन्नति होने वाली. मेरे लिए तो डिग्रियों के लिए होने वाली परीक्षाओं का मतलब है उस विषय के संबंध में क्रमबद्ध् अध्ययन. मैं चाहूं तो जिस विषय में एम.ए. करने की सोंच रहा हूं उसे बिना परीक्षा दिलाये भी पढ़ सकता हूं किन्तु मेरा यह मानना है कि विश्वविद्यालयों के द्वारा किसी स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम को इस तरह से बनाया जाता है कि आप उस विषय के अधिकतम पहलुओं से वाकिफ हो जायें. बिना अध्ययन का क्रम निर्धारित किए किसी भी विषय के किताबों के अध्ययन कर लेने से हम विषय को पूरी तरह से जान भी नहीं पाते इसलिए मैं एक दूसरे विषय की जानकारी के लिए महाविद्यालयीन परीक्षा दिलाना चाहता हूं.

नरेश के साथ महाविद्यालय के मेरे अन्य प्राध्यापक मित्र भी थे, बात हसी ठिठोली में हो रही थी सो हमने उपर वाले पैरे में लिखे अपने विचार को वहॉं व्यक्त नहीं किया. आज सोंचा यहॉं ठेल दू. आप लोग क्या सोंचते हैं बताईयेगा.

तमंचा रायपुरी

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