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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

लिफ्ट का गिफ्ट

हमारे देश में नगर रक्षक प्रहरियों का जलवा सदियों से बरकरार रहा है। नगर में शासन व्यवस्था एवं अनुशासन कायम रखने का प्रभार इन्हीं के हाथों रहा है, जिसमें रत्न जड़ित सोने का दण्ड हुआ करता था। मुगलों का जमाना आते आते दण्ड से रत्न ऐसे गायब हुए जैसे रेलवे के टायलेट से आईना और दण्ड का सोना पीतल में बदल गया। अंग्रेजों नें कुछ भारतीय और कुछ अंग्रेजी मुलम्मा चढ़ाते हुए इसे छड़ी बनानें में कोई कसर नहीं छोड़ी। इतना ही नहीं अंग्रेजों नें शासन और अनुशासन के बीच भी भारत पाकिस्तान जैसे बटवारा कर दिया और पुलिस सर्विसेस व सिविल सर्विसेस को स्थापित कर दिया।

अधिकार बंट गए कर्तव्य संयुक्त रहा और यही असंतुष्टि का कारण रहा। अधिकारों के इस बंटवारे में इन दोनों शाहों के बीच असंतुष्टि का बीज बचा रहा जो राजनीति की आद्रता में यदा कदा पनपता रहा, मेछराता रहा। सुराज के बाद योग्य सरकारों नें इन दोनों के बीच उल्होते पीका को प्रभावपूर्ण रूप से नष्ट करने का, समय समय पर यत्न भी किया, पर इनके बीच का महीन दरार समय-समय पर बार-बार दरकते रहा।

हमारे प्रदेश में अभी हाल ही में समाचार पत्रों से, पढ़ने-सुनने में आया कि इन दोनों के बीच में दबे पड़े बीज में फिर अंकुरण आ गया। एसीबी मने पुलिस सर्विसेस वालों नें एक सिविल सर्विसेस वाले को रिश्वत लेते धर दबोचा तो तथाकथित रूप से एक महिला सब इंस्पेक्टर नें आरोप लगाया कि उसे पुलिस सर्विस वाले बड़े साहब नें धर दबोचा। अब इसके कारण प्रीसिपल होम सेक्रेटरी नें टेबल टू टेबल सरकते फाईल को डिजिटल ट्रांसफर करवाते हुए तुरत फरमान जारी किया कि एआईजी साहेब को टीआई बना दिया जावे। ... आईएएस और आईपीएस दोनों अपने अपने कुनबे की आन बचाने अब आमने सामने हैं, झगरा बाढ़ गया है।

कुछ दिन पहले जगदलपुर वाले आईएएस साहेब के काले चस्में के फेर में सरकार तो पहले से ही तुनकी हुई है। जइसे सांढ लाल कपड़े से भड़कता है वइसे ही बगियाये सरकार को डॉक्टर साहब नें सूजी पेल के सुस्त करा दिया था, नहीं तो इस फेर में आईएएस लाबी तो खच्चित हुबेलाये रहता। मुखिया नें सोंचा कि बड़े बरदी के चराने वाले कुशल बरदिहा ही बेवजह हुबेला जायेगा तो गाय-गरू तिड़ी-बिड़ी हो जायेगा, बदनामी घलो होगा। इसलिए मामला सलटा लिया गया।

सुनने में तो यहॉं तक आया है कि प्रदेश में मंहगे काले चश्में की बिक्री में भारी गिरावट आई है और बड़े चश्मा दुकान वालों नें अब पारदर्शी और भगवा कलर के चश्मों का आर्डर दिया है। दुकानदारों की सोंच वाजिब ही है, सरकार को काले चश्में में नहीं देखा जा सकता उसके लिए चश्मा और आंख दोनों पारदर्शी होना चाहिए। पर लोकत़ंत्र में साहेबों को मात्र सरकार भर को नहीं देखना होता है, उसे जनता को भी देखना होता है। इसके लिए सरकार की आंखों से जनता को देखना होता है, तो उसके लिए भगवा चश्में की जरूरत है।

चश्में की बात तो अब तइहा के बात हो गया किन्तु अब तो नाक कटावन हो गया है, पहले मंत्री और साहेब फिर संत्री और साहेबों नें आपस में म्यान से तलवारें निकाल ली है। राम राज में इन शाहों की लड़ाई शोभा नहीं देता है भाई, चाहे वे शाहों के हों, नौकरों के हों कि सिपाहियों के हों। इस लड़ाई से चारो तरफ डर का माहौल छा गया है। मेरे अरमानों के ताजमहल को पता नहीं किस दिलजले की नजर लगी है। प्रदेश के बड़े घोटाले को नान कहा जा रहा है, प्रशासन और सुरक्षा करने वाले आपस में लड़ रहे हैं, भ्रष्टाचार मुक्त प्रदेश बनाने के लिए कमर कसे आईएएस स्वयं रिश्वत लेते पकड़ा रहा है, महिलाओं की सुरक्षा हेतु तैनात महिला पुलिस स्वयं असुरक्षित है।

इस हादसे के बाद सभी नगर कोतवाल भईया वाली भउजियॉं गुमसुम है और संइया भये कोतवाल कहने में डेरा रही है। इधर चौकी, थाना, मुख्यालय में पदस्थी वाली कोतवालिनें लिफ्ट करा दे कहने के बजाए, लिफ्ट में चढ़ने से ही डेरा रही है। सरकार अपने कार्यालयों में द्रुत गामी लिफ्ट लगा रही है ताकि योजनायें, फरमान, अरमान, फरियादों को घिसटते हुए सीढ़ियों से लिफ्ट करा दिया जावे किन्तु लिफ्ट के इस गिफ्ट से आस्था और विश्वास भी अब कतरा रही हैं।

—तमंचा रायपुरी

टिप्पणियाँ

  1. वाह तिवारी भैया! एकदम जोरदार है जी। आपकी व्यंग्य वाली किताब में इसी भाशा की अपेक्षा थी। न जाने यह उसमें क्यों नहीं आ पाई।

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  2. भाषा सौंदर्य के चासनी में लटपट गुल्ला,,,गजब भैया

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  3. भाषा सौंदर्य के चासनी में लटपट गुल्ला,,,गजब भैया

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  4. लेख में मेंछराना जैसे आंचलिक शब्दों के प्रयोग से भाषा के सौंदर्य में वृद्धि हुई है तो कथन का पैनापन या कहूं कथ्य दोधारी तलवार बन गया है । लिखते चलो ...

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