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अक्तूबर, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

हरिभूमि चौपाल, रंग छत्‍तीसगढ़ के और संपादकीय हिन्‍दी

कहते है कि लेखन में कोई बड़ा छोटा नहीं होता। रचनाकार की परिपक्वता को रचना से पहचान मिलती है। उसकी आयु या दर्जनों प्रकाशित पुस्तके गौड़ हो जाती है। इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए मैं आज का चौपाल पढ़ने लगा। शीर्षक 'अतिथि संपादक की कलम ले' के नीचे सुदर्शन व्यक्तित्व के ओजस्वी व्यक्ति का चित्र था, नाम था मोहन अग्रहरि। इनका नाम अपरिचित नहीं था, साहित्य के क्षेत्र में प्रदेश में इनका अच्छा खासा नाम है। यद्यपि मुझे इनकी रचनाओं को पढ़ने का, या कहें गंभीरता से पढ़ने का, अवसर नहीं मिला था। चौपाल जैसी पत्रिका, के संपादन का अवसर जिन्हें मिल रहा है, निश्चित तौर पर वे छत्तीसगढ़ के वरिष्ठतम साहित्यकार है और उन्‍हें छत्‍तीसगढ़ के कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति का विशेष ज्ञान है। इस लिहाज से अग्रहरि जी के संपादकीय को गंभीरता से पढ़ना जरुरी हो गया। अग्रहरी जी ने हिंदी में बढ़िया संपादकीय लिखा है। चौपाल में छत्तीसगढ़ी मे संपादकीय लिखने की परंपरा रही है। शीर्षक शब्द 'अतिथि संपादक की कलम ले' से भी भान होता है कि आगे छतीसगढ़ी में बातें कही जाएँगी। किंतु इसमें हिंदी में भी संपादकीय लिखा ज

गूगल डॉक्स में आनलाईन बोल कर टाईप करने की सुविधा

रविशंकर श्रीवास्‍तव जी नें अपने ब्‍लॉग में जब गूगल डॉक्स में बोल कर हिंदी लिखने की उम्दा सुविधा उपलब्ध नाम से पोस्‍ट पब्लिश किया था तब से मित्रों के द्वारा लगातार इसके प्रयोग विधि के संबंध में मुझसे जानकारी मागी जा रही थी। किन्‍तु समयाभाव के कारण मित्रों के लिए इसे क्रमिक रूप से प्रस्‍तुत नहीं कर पा रहा था। लिजिये प्रस्‍तुत है, लैपटाप में बोलकर टाईप करने का तरीका - गूगल डाक्‍स में लाग ईन होवें. नया डाकूमेंट तैयार करने के लिए + को क्लिक करें. डिवाईस को क्लिक करें, एक पाप अप खुलेगा जिसमें से वाणी लेखन को क्लिक करें. ऐसा करने पर माईक का आईकान उस पेज पर आ जायेगा. इस आईकान को क्लिक करें, और बोलते जायें जो टाईप करना है - फिर डाकूमेंट आनलाईन सेव कर लें. संजीव तिवारी

छत्‍तीसगढ़ी की अभिव्यक्ति क्षमता : सोनाखान के आगी

छत्‍तीसगढ़ी के जनप्रिय कवि लक्ष्मण मस्तुरिया की कालजयी कृति 'सोनाखान के आगी' के संबंध में आप सब नें सुना होगा। इस खण्‍ड काव्‍य की पंक्तियों को आपने जब जब याद किया है आपमें अद्भुत जोश और उत्‍साह का संचार अवश्‍य हुआ होगा। पाठकों की सहोलियत एवं छत्‍तीसगढ़ी साहित्‍य के दस्‍तावेजीकरण के उद्देश्‍य से हम इस खण्‍ड काव्‍य को गुरतुर गोठ में यहॉं संग्रहित कर रहे हैं, जहां से आप संपूर्ण खण्‍ड काव्‍य पढ़ सकते हैं। यहॉं हम 'सोनाखान के आगी' पर छत्‍तीसगढ़ के दो महान साहित्‍यकारों का विचार प्रस्‍तुत कर रहे हैं  - छत्‍तीसगढ़ी की अभिव्यक्ति क्षमता : सोनाखान के आगी श्री लक्ष्मण मस्तुरिया प्रबल हस्ताक्षर के रूप में छत्‍तीसगढ़ी के आकाश में रेखांकित हैं। इनकी वाणी में इनकी रचनाओं को सुन पाना एक अनूठा आनंद का अनुभव करना है। प्रथम बार उनके खण्ड काव्य 'सोनाखान के आगी' को आज सुनने का अवसर मिला। छत्‍तीसगढ़ी की कोमलकान्त पदावली में वीररस के परिपूर्ण कथा काव्य को प्रस्तुत करते समय श्री मस्तुरिया स्वयं भाव-विभोर तो होते ही हैं, अपने श्रोता समाज को भी उस ओजस्वनी धारा में बहा ले जाने

द्रोपदी जेसवानी की ‘अंतःप्रेरणा’

अभी हाल ही में द्रोपदी जेसवानी की एक कविता संग्रह ‘अंत: प्रेरणा’ आई है। संग्रह की भूमिका डॉ. बलराम नें लिखी है, जिसमें द्रोपदी जेसवानी की संवेदशील प्रवृत्ति के संबंध में बताते हुए वे लिखते हैं कि उनकी रचनाओं में वेदना और संवेदना के छायावादी चित्र झलकते हैं। डॉ. बलराम लिखते हैं कि रचनाओं में सत्य की झलक है और कुछ में चुनौतियाँ भी हैं। भूमिका में डॉ. बलराम नें चंद शब्दों में ही पूर्ण दक्षता के साथ कवियित्री की संवेदना एवं उनकी कविताओं से हमारा परिचय करा दिया है। कवियित्री नें इस संग्रह को अपने आराध्य भगवान शिव को अर्पित किया है। साथ ही अपने स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बड़े पिताजी व पारिवारिक सदस्यों को और शुभचिंतकों को समर्पित किया है। ऐसे समय में जब परिवार नाम की ईकाई के अस्तित्व पर संकट हैं, प्रेम का छद्मावरण लड़कियों के मुह में स्कार्फ की भांति सड़कों में आम है। किसी रचना संग्रह को अपने परिवार जनों को समर्पित करना एक रचनाकार के संवेदनशीलता को प्रदर्शित करता है। 'फिर भी कुछ रह गया' में इस संग्रह के प्रति दो शब्द लिखते हुए कवियित्री अपने अंतरतम अनुभूति का उल्लेख करत

सामयिक प्रश्‍न: कोजन का होही

धर्मेंद्र निर्मल छत्तीसगढ़ी भाषा के साहित्य मे एक जाना पहचाना युवा नाम है। धर्मेंद्र निर्मल आजकल व्यंग, कहानी, कविता और छत्तीसगढ़ी के अन्यान्य विधाओं पर लगातार लेखन कार्य कर रहे है। उन्होंनें लेखनी की शुरुआत छत्तीसगढ़ी सीडी एल्बमों मे गाना लेखन के साथ आरंभ किया था। बाद में उन्‍होंनें नुक्कड़ नाटक एवं टेली फिल्मों में मे भी कार्य किया और स्क्रिप्ट रायटिंग में भी हाथ आजमाया। संभवत: रचनात्मकता के इन राहों नें उन्हें साहित्य एवं संस्कृति के क्षेत्र का सहज ज्ञान उपलब्ध कराया। छत्तीसगढ़ी साहित्य में कुछ गिने चुने युवा सार्थक व गंभीर लेखन कर रहे हैं उसमें से धर्मेंद्र निर्मल अहम हैं। धर्मेंद्र निर्मल सिर्फ छत्तीसगढ़ी में ही नहीं, हिन्दी के सभी विधाओं में निरंतर लेखन कर रहे हैं। उनकी लेखनी में हिन्दी साहित्य संस्कार का दर्शन होता है। जिससे यह प्रतीत होता है कि वे स्वयं बेहतर पाठक है और हिन्दी के साहित्य का लगातार अध्ययन करते रहते हैं। उन्हें साहित्य की नई विधाओं, आलोचना के बिन्दु और नवाचार का ज्ञान है। वे हिन्दी के नवाचारों का प्रयोग छत्तीसगढ़ी लेखन में करते नजर आते हैं। मैं उनकी व्यंग लेख