ठीक पकड़े हैं, शौंचालय बनाना सस्ते का सौदा है सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

ठीक पकड़े हैं, शौंचालय बनाना सस्ते का सौदा है

आप बिलकुल ठीक पकड़े हैं आप शौचालय बनाने की सोच रहे हैं या शौचालय में एसी लगाने की सोच रहे हैं जिसके चलते शौचालय महंगा बनेगा। शौचालय महंगा होता ही नहीं है। गांवों में तो शौचालय बाहर जाने की परंपरा है। गांवों में कहा जाता है -
नदी नहाए पूरा पाए , तालाब नहाए आधा।
कुआंं नहाए कुछ न पाए, घर नहाए ब्याधा।।

कहने का सीधा मतलब है कि नदी नहाने से पूरा पुण्य मिलता है जबकि तालाब नहाने से आधा और कुंआ नहाने से कुछ भी पुण्य नहीं मिलता है । वहीं घर में नहाने वाले बीमार व्यक्ति होते हैं। नहाने के पूर्व शौच जाना और फिर शुद्ध होना गांंव की परंपरा है। इस परंपरा में सुबह की सैर नदी की धारा में कटि स्नान शामिल है। यानी पूरी तरह वैज्ञानिक सम्पूर्ण स्नान। अगर ऊपर के दोहे को ध्यान से देखें तो उसके साथ गांव के शांत जीवन और पर्याप्त समय की बात भी छुपी हुई है जिसके पास जितना समय होता है उस हिसाब से वह नहाने और शौच के लिए नदी या तालाब का विकल्प चुनता है।
लेकिन अब पहले के से गांव नहीं रहे । किसानों की जोत छोटी हो गई है उन्हें अपनी जीविकोपार्जन के लिए खेती के अलावा भी अन्य काम करने पड़ते हैं इसलिए अब गांवों में भी लोगो के पास समय नहीं है उन्हें भी जल्द से जल्द तैयार होकर अपने काम से जाना पड़ता है इसके कारण उनके पास भी अब न तो नदी जाने की फुरसत है और न तालाब जाने का समय । चूंकि गृह स्वामी को जल्दी तैयार होना होता है तो उससे पहले महिलाओं को तैयार होना जरूरी है क्योंकि आखिर गृह स्वामी के भोजन व नास्ते का प्रबंध जो उन्हें करना पड़ता है, इसलिए अब गांवों के कच्चे घरों में भी शौचालय विलासिता नहीं बल्कि जरूरत बन गई है।

घबराइए नहीं शौचालय बिल्कुल भी महंगा नहीं होता है बस आपको उसकी तकनीक का थोड़ा सा ज्ञान भर होना चाहिए। हम देखते हैं कि गांवों में सस्ते शौचालय बनाने की तकनीक सुलभ इंटरनेश्नल ने विकसित की है। इसके लिए आपके पास थोड़ी ज्यादा जमीन होनी चाहिए जिसमें सोख्ता शौचालय(सोक पिट) का निर्माण किया जा सकता है इसमें अंदाज से डेढ़ मीटर व्यास तथा उतनी ही गहराई का थोड़ी-थोड़ी दूरी पर दो गड्ढ़े बनाइए जाते हैं उसमें ईंटोंं से अंतर छोड़कर जोड़ाई करके पक्का निर्माण किया जाता है ताकि छोड़े गए स्थान से पानी आसानी से जमीन में चला जाए। इस गड्ढ़ा निर्माण में उसके ऊपर के स्थान पर सीमेंट से ढलाई कर ढक्कन बना दिया जाता है। इस दोनों सोक पिट को पाइप के सहारे एक छोटे से ब्लाक से जोड़ा जाता है इस ब्लाक से एक पाइप जुडा होता है जो शौचालय की सीट के सिस्टम से जुड़ा होता है जो जमीन से थोड़ी ऊंचाई पर बनाया जाता है। इस सिस्टम मेंं पहले एक गड्ढ़े में शौच चालू किया जाता है जब वह गड्ढा भर जाता है तो फिर दूसरे गड्ढ़े की तरफ की का पाइप खोल दिया जाता है और पहले वाले गड्ढे का उपयोग बंद रहता है। एक दो महीने बाद पहला गड्ढा सूख जाता है इस गड्ढ़े से बाद मेंं खोल कर सोनखाद निकाल ली जाती है जो खेतों के लिए उपयोगी है। यही क्रम बारी-बारी से चलता रहता है। इस निर्माण मेंं गड़्ढ़े में बनी गैस ईंट के किनारे के छोरोंं से अपने-आप निकलती रहती है। यह सबसे सस्ता सोकपिट शौचालय सिस्टम है।

आइए अब देखें सेप्टिक टैंक की तकनीक जिसे अज्ञानता वश लोग महंगा बना देते हैं। वास्तव में सेप्टिक टैंक ऐसी साधारण टंकी है जिसमें मानव मल के प्रबंधन की युक्ति से बनाई गई होती है। हम देखें तो मल की प्रकृति कच्चे में पानी में ऊपर बलबलाने की होती है । यही मल जब सड़ जाता है तो मलबे के रूप में नीचे बैठ जाता है, इसलिए टंकी में कच्चे मल को अलग और मलबा को अलग करने के खंड बनाए जाते हैं। टंकी के ऊपरी सतह से गैस पाइप दिया जाता है ताकि गंदी बास ऊपर वायुमंडल में उड़ जाए । वहीं सेप्टिक टैंक से पानी निकालने के लिए बीच के भाग से साइफन सिस्सटम से पाइप लगाया जाता है ताकि केवल भूरा पानी ही निकले और मल न निकल पाए। इस पानी को आप सीधे नाली,खेतों में या फिर सोक पिट में डाल सकते हैं।

सेप्टिक टैंक के आकार पर उसका खर्च निर्भर करता है समझ के अभाव में लोग टैंक को बड़ा और मजबूत बनाने के लिए भारी खर्च कर देते हैं जबकि सेप्टिक टैंक का आकार उसके उपयोग करने वालों की संख्या पर निर्भर करता है साधारणतया 700 गैलन का टैंक दो बाथरूम तक के लिए पर्याप्त होता है। आपके आत्म विश्वास के लिए यहां पर विभिन्न सेप्टिक टैंक क्षमता के बनावट की तालिका दी जा रही है ताकि आप निश्चिंत हो सकें कि कहीं कोई गड़बड़ी नहीं हो रही है। रही बात उसको बनाने की तो यह आप पर निर्भर करता है कि आप इसे छड़ सीमेंट से ढाल कर हल्की कांक्रीट का सिस्टम बनाते हैं या फिर एक ईंट की दीवार का बनाते हैं यह नहीं भूलना चाहिए कि आपको एक वाटर प्रूफ टंकी बनानी है जिसे जमीन में गड़े रहना है कोई बंकर या तहखाना नहीं बनाना है जिसमें न ही कोई विस्फोटक पदार्थ रखना हो। सेप्टिक टैंक मानव मल के प्रबंधन का एक साधारण संयत्र है जिसके भर जाने पर समय-समय पर साफ करवाना पड़ता है। विदेशों में तो अब प्लास्टिक के रेडीमेट सेप्टिक टैंक मिलने लगे हैं जिन्हें जमीन में गाड़ दीजिए और उपयोग करिए।

चलिए सेप्टिक टैंक से अलग बाथरूम की बात करते हैं तो बाजार में शौचालय में लगने वाली शीट की कीमत में बड़ा अंतर देखने को मिलता है। राजधानी के गुप्ता ट्रेडर्स के सौरभ गुप्ता ने चार गुणा साढ़े चार फिट के स्थान में बाथरूम की डिजाइन तैयार की है। उनके अनुसार इंडियन शीट 3 सौ रुपए से शुरु हो कर 50 हजार तक मिलती है जबकि इंग्लिश शीट 8 सौ रुपए से शुरु होकर 2 लाख रुपए तक बिकती है। अब तो बाजार में टच स्क्रीन टायलेट का विज्ञापन भी देखने को मिल रहा है। इसे ही कहते हैं जितना गुण उतना मीठा आपकी मर्जी आप कितना खर्च करना पसंद करेंगे।

आजकल टीवी में सरकार के द्वारा भी शौचालय के उपयोग की महत्ता से जुड़े विज्ञापन दिखा जा रहे हैं। लेकिन अपनी आदत को क्या कीजिएगा जहां कहीं सुनसान नदी देखता हूं शौच जाने के लिए मचल जाता हूं। आखिर बचपन के संस्कार कहीं छूटते हैं। मन और है और जरूरत और है क्या आप तथा-कथित सभ्य बनेंगे। आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार रहेगा।


-प्रमोद ब्रम्‍हभट्ट
रायपुर
प्रमोद ब्रम्‍हभट्ट जी वरिष्‍ठ पत्रकार हैं, वर्तमान में रायपुर के प्रतिष्ठित दैनिक अखबार 'जनता से रिश्‍ता' से जुड़े हैं।
इनसे आप फेसबुक पर यहॉं संपर्क कर सकते हैं। 

टिप्पणियाँ

  1. अब गाँव वाले भी समझ रहे हैं कि शौचालय आवश्यक है , सुलभ इन्टरनेशनल प्रणम्य है जो बरसों से सम्पूर्ण देश में इसी पावन कार्य में लगी हुई है । हम सभी का यह दायित्व है कि हम जन - जन के बीच जाकर उन्हें जागरूक करें ।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

भट्ट ब्राह्मण कैसे

यह आलेख प्रमोद ब्रम्‍हभट्ट जी नें इस ब्‍लॉग में प्रकाशित आलेख ' चारण भाटों की परम्परा और छत्तीसगढ़ के बसदेवा ' की टिप्‍पणी के रूप में लिखा है। इस आलेख में वे विभिन्‍न भ्रांतियों को सप्रमाण एवं तथ्‍यात्‍मक रूप से दूर किया है। सुधी पाठकों के लिए प्रस्‍तुत है टिप्‍पणी के रूप में प्रमोद जी का यह आलेख - लोगों ने फिल्म बाजीराव मस्तानी और जी टीवी का प्रसिद्ध धारावाहिक झांसी की रानी जरूर देखा होगा जो भट्ट ब्राह्मण राजवंश की कहानियों पर आधारित है। फिल्म में बाजीराव पेशवा गर्व से डायलाग मारता है कि मैं जन्म से ब्राह्मण और कर्म से क्षत्रिय हूं। उसी तरह झांसी की रानी में मणिकर्णिका ( रानी के बचपन का नाम) को काशी में गंगा घाट पर पंड़ितों से शास्त्रार्थ करते दिखाया गया है। देखने पर ऐसा नहीं लगता कि यह कैसा राजवंश है जो क्षत्रियों की तरह राज करता है तलवार चलता है और खुद को ब्राह्मण भी कहता है। अचानक यह बात भी मन में उठती होगी कि क्या राजा होना ही गौरव के लिए काफी नहीं था, जो यह राजवंश याचक ब्राह्मणों से सम्मान भी छीनना चाहता है। पर ऊपर की आशंकाएं निराधार हैं वास्तव में यह राजव

क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है?

8 . हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास? - पंकज अवधिया प्रस्तावना यहाँ पढे इस सप्ताह का विषय क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है? बैगनी फूलो वाले कंटकारी या भटकटैया को हम सभी अपने घरो के आस-पास या बेकार जमीन मे उगते देखते है पर सफेद फूलो वाले भटकटैया को हम सबने कभी ही देखा हो। मै अपने छात्र जीवन से इस दुर्लभ वनस्पति के विषय मे तरह-तरह की बात सुनता आ रहा हूँ। बाद मे वनस्पतियो पर शोध आरम्भ करने पर मैने पहले इसके अस्तित्व की पुष्टि के लिये पारम्परिक चिकित्सको से चर्चा की। यह पता चला कि ऐसी वनस्पति है पर बहुत मुश्किल से मिलती है। तंत्र क्रियाओ से सम्बन्धित साहित्यो मे भी इसके विषय मे पढा। सभी जगह इसे बहुत महत्व का बताया गया है। सबसे रोचक बात यह लगी कि बहुत से लोग इसके नीचे खजाना गडे होने की बात पर यकीन करते है। आमतौर पर भटकटैया को खरपतवार का दर्जा दिया जाता है पर प्राचीन ग्रंथो मे इसके सभी भागो मे औषधीय गुणो का विस्तार से वर्णन मिलता है। आधुनिक विज्ञ

दे दे बुलउवा राधे को : छत्तीसगढ में फाग 1

दे दे बुलउवा राधे को : छत्‍तीसगढ में फाग संजीव तिवारी छत्तीसगढ में लोकगीतों की समृद्ध परंपरा लोक मानस के कंठ कठ में तरंगित है । यहां के लोकगीतों में फाग का विशेष महत्व है । भोजली, गौरा व जस गीत जैसे त्यौहारों पर गाये जाने लोक गीतों का अपना अपना महत्व है । समयानुसार यहां की वार्षिक दिनचर्या की झलक इन लोकगीतों में मुखरित होती है जिससे यहां की सामाजिक जीवन को परखा व समझा जा सकता है । वाचिक परंपरा के रूप में सदियों से यहां के किसान-मजदूर फागुन में फाग गीतों को गाते आ रहे हैं जिसमें प्यार है, चुहलबाजी है, शिक्षा है और समसामयिक जीवन का प्रतिबिम्ब भी । उत्साह और उमंग का प्रतीक नगाडा फाग का मुख्य वाद्य है इसके साथ मांदर, टिमकी व मंजीरे का ताल फाग को मादक बनाता है । ऋतुराज बसंत के आते ही छत्‍तीसगढ के गली गली में नगाडे की थाप के साथ राधा कृष्ण के प्रेम प्रसंग भरे गीत जन-जन के मुह से बरबस फूटने लगते हैं । बसंत पंचमी को गांव के बईगा द्वारा होलवार में कुकरी के अंडें को पूज कर कुंआरी बंबूल की लकडी में झंडा बांधकर गडाने से शुरू फाग गीत प्रथम पूज्य गणेश के आवाहन से साथ स्फुटित होता है - गनपति को म