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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

संतोष झांझी की कहानी : आश्रम

1 ‘जी कुल अडतीस लोग हैं’ , थर्टी एट औरत मर्द मिलाकर, बाकी चार पांच स्टाफ के लोग हैं खिदमतगार ... स्कूल की घंटी की तरह थाली पर चम्मच बजने की आवाज़ आने लगी | दोपहर के अढाई बज रहे थे | खाना खाकर शायद कुछ लोग अपने अपने वार्ड में आराम कर रहे थे, बाहर दो चार लोग धुप सेंक रहे थे | घंटी की आवाज़ से धीरे धीरे कदम रखते निर्विकार और पथराये चेहरे हाल में एकत्र होने लगे | कुछ औरतें और मर्द नीचे दरी पर बैठ गए | जो घुटनों और कमर दर्द के कारन नीचे नहीं बैठ पाए वो वहीँ रखी प्लास्टिक की कुर्सियों पर यंत्रवत बैठ गए | किसी के भी चेहरे पर कोई उत्सुकता नहीं थी | उन सब के लिए यह सब कोई नइ बात भी नहीं थी | प्रायः समाज सेवी कहलाने वाली संस्थाएं आये दिन यह सारे दिखावे के कार्यक्रम करती ही रहती थी | बुरा मत मानियेगा यह सब एक दिखावा ही तो है | कोई उनकी कहानी, उनकी आपबीती दुःख-दर्द , उनकी जरूरतें नहीं पूछता , बस कम्बल कपडे , खाने पीने का सामान देते हुए उनके साथ खड़े होकर सभी फोटो अवश्य खिंचवाते हैं ताकि पेपरों में छपवाकर वाह वाही लुट सकें | हमारे क्लब की भी महिलाऐं दो बुलेरो गाड़ियों में भरकर वहाँ कुछ सा

सीजी में अमन चैन है

केंद्र सरकार ने बड़े अफसरों को संपत्ति का व्यौरा देने से छूट दे दिया। बिरोधी लोगों को छत्तीसगढ़ में भी आंच जनाने लगा, फटा-फट विज्ञप्ति जारी होने लगे। यह जानते हुए भी कि बड़े अफसर इतने चूतिया नहीं हैं। वे संपत्ति अपने नाम पर नहीं ख़रीदते, अपने दोस्त - रिश्तेदारों के नाम खरीदते हैं। नगदी बिल्डरों के यहाँ खपाते हैं, नोटबंदी के बाद बेकार हुए नोटों से आग तापते हैं और सब कुछ छुपाते हैं। ये अलग बात है के लुकाने-छुपाने के बावजूद साहेब के घर-आफिस में कोई डायपर पहनाने वाला भी होता है जिसके सहारे पावर गेम को न्यूज मिलते रहता है और तमंचा को भी पता चल जाता है कि फलां प्राधिकरण के बड़े अफसर ने अपनी बहन के नाम से नया रायपुर के आसपास भारी मात्रा में जमीन ख़रीदा है.. या फलां जिले के सूबेदार ने मेटाडोर में पैसा भरकर दिल्ली तरफ भेजा है ब्लाँ.. ब्लाँ। हमारे जान लेने से साहेब लोगों को कोई फरक नहीं पड़ता, हाँ जे बात तो है भैया, जब से दबंग टाइप मुखिया ने एसीबी का चार्ज सम्हाला है, सबकी फटी हुई है। सभी ने एसीबी से बचे रहने का सुप्पर एंटीवायरस एक्टिव मोड़ में ले लिया है। सिरिफ दो झने का टेंसन है, सीएस और सीए

गूगल बाबा के सुन्‍दर-सुन्‍दर फोंट अब आपके ब्‍लॉग के लिए

गूगल बाबा नें इंटरनेट में हिन्‍दी के प्रचलित फोंट मंगल के अतिरिक्‍त देवनागरी के लगभग 40 सुन्‍दर-सुन्‍दर फोंट हिन्‍दी के पाठकों के लिए प्रस्‍तुत किया है जिसे आप अपनी सुविधानुसार अपने ब्‍लॉग या वेब साईटों में उपयोग कर सकते हैं। इसे आप डाउनलोड करके माईक्रोसाफ्ट वर्ड में भी उपयोग कर सकते हैं। गूगल बाबा के ये फोंट दिखने में बहुत सुन्‍दर हैं जिसे आप गूगल फोंट में यहां देख सकते हैं। इन फोंट से कविता या आलेख की सुन्‍दरता बढ़ जाती है। यदि आप ब्‍लॉग के कंटेंट के अलावा साज-सज्‍जा पर भी ध्‍सरन देते हैं तो यह आपके लिए सहयोगी होगा। मैं नें गूगल फोंट को अपने छत्‍तीसगढ़ी भाषा की वेब मैग्‍जीन गुरतुर गोठ डॉट कॉम पर एक दूसरे फोंट 'टिलाना' प्रयोग किया है। इस ब्‍लॉग के इस पोस्‍ट में मैं 'कलाम' नामक गूगल फोंट का उपयोग कर रहा हूं, यदि आपको यह फोंट स्‍टाईल पसंद है तो आईये इसे आपके ब्‍लॉग पोस्‍टों पर उपयोग करने का सरल तरीका मैं आपको बताता हूं - गूगल फोंट के साईट पर तकनीकि सक्षम व्‍यक्तियों के लिए ब्‍लॉग या वेब-साईट के हेड खण्‍ड में एवं सीएसएस कोड जोड़ने की विधि बताई गई है जिससे आ

संतोष झांझी की कहानी : अमानत

मोहनलाल चाय पीते हुए चुपचाप शरद की ओर देख रहे थे, जो पेपर पढऩे में मगन था। डाइनिंग टेबल के पास खड़ी नीलू ऋचा के स्कूल का टिफिन पैक करते हुए देख रही थी कि पापा शरद से कुछ बात करना चाहते हैं। नीलू वहीं से बोली। -‘कोई बात करनी है पापा, तो कर लीजिये न इतना सोच क्यों रहे हैं?’ मोहनलाल ने खाली कप सामने टेबल पर रख दिया। शरद ने पेपर चेहरे के सामने से हटाकर पापा की ओर देखा- ‘सुबह-सुबह गुरुदयाल सिंह चाचाजी आए थे। कोई खास बात थी?’ -‘हां... वह लाहौर नणकाणा साहब जा रहा है... वही... वही बताने आया था। सिक्खों का पूरा जत्था जा रहा है।’ मोहनलाल कुछ सोचते हुए बोले। -‘आप भी जाना चाहते हैं? पर आपकी तबीयत तो ठीक नहीं रहती पापा।’ -‘नहीं नहीं.... मैं चाहता था, एक आखिरी कोशिश करके देख लूं। चालीस साल हो गए, अभी तक मैं नाकामयाब रहा।’ तुम्हें भी परेशान कर रखा है मैंने। हमेशा इतने खर्च का बोझ तुम पर डाल देता हूं। -‘आप ऐसी बातें क्यों करते हैं। मैं भी वही चाहता हूं जा आप चाहते हैं।’ -‘मेरे दिमाग में एक नई योजना आई है।’ -‘बताइये क्या करना है।’ -‘गुरुदयाल लाहौर जा रहा है। मैं चाहता हूं हम कुछ पर

रवि श्रीवास्तव के व्यंग्य

डोम, तूफान और सरकार अभी तक बहस चल रही है। डोम कैसे गिरा? उसके पीछे षडय़ंत्र की बू तक लोगों ने सूंघ लिया। जबकि ऐसा कुछ नहीं है। हमें सही दिशा में सोचने की आदत नहीं है। डोम एक बार नहीं, दो बार भरभरा कर गिरा। चारों खाने चित हुआ। दबे हुए लोगों की कराह भी सुनी गई। हमें अपनी सोच को सही दिशा में केन्द्रित करना चाहिए। मुश्किल तो यही है कि सही दिशा नहीं मिल पाती। तेज तूफान आया बड़ा डोम था। दिल्ली वाला। मजदूरों के तो बाप-दादाओं ने इतना बड़ा डोम पहले कभी नहीं देखा था। याने अजूबा था। जल्दबाजी की तैयारी थी। कीलें, जमीन के भीतर ज्यादा गहराई तक नहीं गड़ी थीं। भारी-भरकम स्ट्रक्चर था, गिर गया। अचानक आए तूफान को झेल नहीं पाया। ठेकेदार भी कितनी मजबूती देता। हिस्से-बांटे के आधार पर काम तय होता है। इसमें उसका क्या दोष? वह बचने की पूरी कोशिश करेगा। कोशिश पूरी ईमानदारी से होगी तो यह तय है कि वह बच जाएगा। बचने की नई-नई टैक्निक सामने आ चुकी है। इसकी भी खूब चर्चा चली कि ठेकेदार दिल्ली का था। पार्टी के नेता का करीबी था। ये सब तो होते रहता है। ठेका करीबियों को ही मिलता है। रहा सवाल दिल्ली का? यह तो बेतुका

छत्तीसगढ़ी नाचा के अनूठे साधक कलाकार मंदराजी

1958 की गर्मियों में हबीब तनवीर अपने परिजनों से मिलने रायपुर आए। अंजुम कात्याल के साथ एक भेंटवार्त्ता के दौरान इसे याद करते हुए हबीब तनवीर ने बताया-- “ मुझे पता चला कि जिस स्कूल में मेरी पढ़ाई हुई थी, उसके मैदान में रात 9:00 बजे नाचा होने वाला है। मैंने रात भर नाचा देखा। उन्होंने तीन या चार प्रहसन पेश किए। कलाकारों में एक मदनलाल थे, बेहतरीन एक्टर। दूसरे ठाकुर राम थे। वे भी गजब के कलाकार थे। बाबूदास भी आला दर्जे के एक्टर थे। भुलवाराम उत्कृष्ट गायक-अभिनेता थे। ये सभी कलाकार अच्छे गायक होने के साथ बहुत अच्छे कॉमेडियन भी थे। उन्होंने चपरासी नकल और साधु नकल पेश किया। मैं तो मंत्रमुग्ध था। कार्यक्रम ख़त्म होने के बाद मैं उनके पास गया और कहा ‘मेरे साथ दिल्ली चलोगे नाटक में काम करने के लिए?’ वे तैयार हो गए। मैंने भुलवाराम , बाबू दास, ठाकुर राम, मदनलाल और जगमोहन को शामिल कर लिया। जगमोहन मोहरी बजाते थे।” आगे हबीब तनवीर बताते हैं कि बाद में वे राजनांदगाँव गए, जहाँ उनकी मुलाक़ात लालूराम से हुई। उनके घर में रात-भर उनके गाने सुनते रहे और अपनी मंडली में लालूराम को भी शामिल कर ल