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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

धान के बालियों से बने झालर का छत्तीसगढ़ी नाम क्या है?

चित्र : दैनिक छत्तीसगढ़ से साभार प्रत्येक दीपावली में धान की बालियों से बना झालर छत्तीसगढ़ के बाजारों में नजर आता है। इसे छत्तीसगढ़ी में क्या कहा जाता है या इसके लिए छत्तीसगढ़ी में कोई शब्द है कि नहीं? यह प्रश्न हर साल *तमंचा रायपुरी* के सामने खड़ा होता है। राहुल सिंह जी और डॉ. निर्मल साहू जी भी इस प्रश्न का जवाब मुझसे पूछते रहे हैं और मैं भकुवाया हुआ इसका उत्तर ढ़ुढ़ते रहा हूँ। सिवाय एक शब्द 'सेला' मेरे दिमाग में आता है जो हल्बी शब्द है। सन्दर्भ यह कि, श्रद्धेय लाला जगदलपुरी की एक हल्‍बी गीत है ‘उडी गला चेडे’ – 'राजे दिना/धन धन हयं/उछी उडी करी आयते रला/बसी-बसी करी खयते रला/सेस्‍ता धान के पायते रला/केडे सुन्‍दर/चटेया चेडे/सरी गला धान/भारी गला चेडे/एबर चेडे केबे ना आसे/ना टाक सेला/कमता करबिस/एबर तुय तो ‘खड’ होयलिस/एबर तोके फींगीं देयबाय/गाय खयसी/चेडे गला/आउरी गोटे ‘सेला’ उगर ।‘ (लटक झूल रहा था नीचे धान की बालियों का एक झालर । टंगा हुआ था ‘सेला’ दरवाजे के चौंखट पर । अपनी शुभ शोभा छिटकाये दर्शनीय । एक दिन एक सुन्‍दर गौरैया आई, और उसने दोस्‍ती गांठ ली ‘सेला’ से । रोज रोज वह

एक मुलाकात : दाऊ रामचंद्र देशमुख से

सन् 1984-85 के जड़काले के किसी दिन हम ( जितेंद्र जैन और दो अन्य मित्रों के साथ) सिमगा से ट्रकों में लिफ्ट लेते हुए, दुर्ग आ गए। वहां से पूछते-पुछाते पैदल बघेरा आ गए। सड़क से थोडा अंदर एक बड़े से बाड़े के सामने जब हम थिराये, तब हाथ-पैर और कपड़ों पर नजर गई। धूल-धूसरित पैर और मुरकुटाये कपड़े में हम फुल गवईहां नजर आ रहे थे। तब तक, बाड़े के दरोगा तक नौकरों ने खबर पंहुचा दी थी और अब दरोगा, दरवाजे पर खड़ा हमें नजरों से तौल रहा था। हमने, झेंपते हुए बताया कि हम सिमगा से आये हैं और दाऊ रामचंद्र देशमुख जी से मिलना चाहते हैं। क्यों ? का उत्तर हम शब्दों में ढंग से दे नहीं पाये किन्तु लगा कि, दरोगा समझ गया। उसने अंदर बुलाया और बाजवट पर बैठा दिया, थोड़ी देर बाद हाथ-पांव धोने का आदेश दिया। उसके कुछ समय के बाद हमारे लिए खाने की थाली लग गई। हमने एक दूसरे का मुह देखा, सब अप्रत्याशित हो रहा था। हालांकि हम दोपहर को यहाँ पहुचे थे और हमें भूख भी जोरों की लगी थी फिर भी हमने सोचा नहीं था कि हमें यहाँ खाना भी मिलेगा। मैंने मौन तोडा और दरोगा जी से कहा कि भैया हमें दाऊ जी से मिला दो, खान-वाना रहने दो। भूख तो लग र

छत्तीसगढ़ी डायस्पोरा : शून्य से शिखर की यात्रा

छत्तीसगढ़ से रोजगार या सही शब्दों में कहे तो रोज़ी रोटी की  तलाश में लोगों के पलायन का इतिहास बहुत ही पुराना है . यह भी संभव है कि, पलायन करने वाले लोग शायद भुखमरी या ऐसे ही किन्ही अन्य आपदा के चलते पलायन करके ही छत्तीसगढ़ आये रहे हों. पलायन आम तौर पर ख़राब हालात से जन्मते है, जबकि आप्रवासन पैसे कमाने या व्यापार के लिए होते हैं. पर बेचारा छत्तीसगढ़ी अभी कुछ दशक पहले तक पहली वाली श्रेणी का ही होता था. ऐसा ही पलायन आज से लगभग 150 साल पहले, तब शुरू हुआ था जब यहाँ के लोग पेट बिकाली के लिए असम के चाय बागानों में मजदूरी करने जाना शुरू किये. उस समय चाय के बागान भी बस शुरू ही हुए थे या हो रहे थे और इन छत्तीसगढ़ियों ने पीढ़ी दर पीढ़ी उन बागानों में काम करते हुए ऐसी दक्षता अर्जित की कि आज वे पूरी दुनिया में सबसे बेहतरीन चाय के उत्पादक कहलाने लगे लेकिन तमगा आज भी वही टी गार्डन वर्कर या गार्डन लेबर का .  तब प्रवास के यातायात इतने सुगम नहीं थे, रास्ते में सुविधाओं का सख्त अभाव रहा होगा, कई दिनों में यहाँ से अपर असम पहुचा जाता रहा होगा, अनजाने लोग, अनजाना देश और अनजानी भाषा. हमारे उन पलायन करते भाई बहनों न

संस्‍कृति एवं पुरातत्‍व संचालनालय का आयोजन : राय बहादुर डॉ. हीरालाल 150 वीं जयन्‍ती समारोह

इतिहास, पुरातत्‍व, जनसंख्‍या, भाषा एवं नृतत्वशास्त्र के अद्वितीय विद्धान रायबहादुर डॉ. हीरालाल संस्कृति एवं पुरातत्व संचालनालय, छत्तीसगढ़ शासन द्वारा रायबहादुर डॉ. हीरालाल के कार्य एवं योगदान का पुनर्स्‍मरण करने के उद्देश्‍य से उनकी 150वीं जयंती समारोह का आयोजन आज 1 अक्‍टूबर, 2016 को किया गया। महंत घासीदास संग्रहालय, रायपुर में आयोजित इस कार्यक्रम के प्रथम सत्र में जबलपुर से आमंत्रित डॉ.हीरालाल के वंशज डॉ. छाया राय ने आधार वक्‍तव्‍य दिया। डॉ. छाया राय डॉ. हीरालाल की प्रपौत्री है। वे दर्शनशास्त्र की अंतर्राष्ट्रीय विदुषी हैं, उन्होंने हिंदी एवं अंग्रेजी में दर्शनशास्‍त्र के अनेक शोध लिखे हैं जो विभिन्‍न प्रतिष्ठित शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए है। जबलपुर विश्‍वविद्यालय की भूतपूर्व प्राध्‍यापिका डॉ. छाया राय नें अखिल भारतीय महिला दार्शनिक संघ की स्‍थापना की है। उन्‍होंनें अपने उद्बोधन में डॉ. हीरालाल के कार्यों पर विस्‍तृत प्रकाश डाला एवं वंशज होने के नाते उनके द्वारा लिखे गए ग्रंथों को पुन: प्रकाशित कराने में सहयोग करने की बात कही। उन्‍होंनें इस आयोजन के लिए संस्‍कृति एवं प