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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

एक मुलाकात : दाऊ रामचंद्र देशमुख से


सन् 1984-85 के जड़काले के किसी दिन हम (जितेंद्र जैन और दो अन्य मित्रों के साथ) सिमगा से ट्रकों में लिफ्ट लेते हुए, दुर्ग आ गए। वहां से पूछते-पुछाते पैदल बघेरा आ गए। सड़क से थोडा अंदर एक बड़े से बाड़े के सामने जब हम थिराये, तब हाथ-पैर और कपड़ों पर नजर गई। धूल-धूसरित पैर और मुरकुटाये कपड़े में हम फुल गवईहां नजर आ रहे थे। तब तक, बाड़े के दरोगा तक नौकरों ने खबर पंहुचा दी थी और अब दरोगा, दरवाजे पर खड़ा हमें नजरों से तौल रहा था। हमने, झेंपते हुए बताया कि हम सिमगा से आये हैं और दाऊ रामचंद्र देशमुख जी से मिलना चाहते हैं। क्यों ? का उत्तर हम शब्दों में ढंग से दे नहीं पाये किन्तु लगा कि, दरोगा समझ गया। उसने अंदर बुलाया और बाजवट पर बैठा दिया, थोड़ी देर बाद हाथ-पांव धोने का आदेश दिया। उसके कुछ समय के बाद हमारे लिए खाने की थाली लग गई। हमने एक दूसरे का मुह देखा, सब अप्रत्याशित हो रहा था। हालांकि हम दोपहर को यहाँ पहुचे थे और हमें भूख भी जोरों की लगी थी फिर भी हमने सोचा नहीं था कि हमें यहाँ खाना भी मिलेगा। मैंने मौन तोडा और दरोगा जी से कहा कि भैया हमें दाऊ जी से मिला दो, खान-वाना रहने दो। भूख तो लग रही थी, शरीर भोजन मांग रहा था और मन मांग को दरकिनार करते हुए, चंदैनी गोंदा के सर्जक से मिलना चाह रहा था।

दरोगा ने कहा कि अभी दाऊ जी सोये हैं, खाना खा लो तब तक दाऊ जी उठ जायेंगे फिर मिल लेना। ररूहा सपनाये दार-भात जैसे हमने भोजन किया, तृप्त हो गए। दीवारों के पार से छत्तीसगढ़ी संगीत की स्वर लहरियां गूंजने लगी, गीतों में थिरकते पांवों के घुंघरू बजने लगे। पं. रविशंकर शुक्ल, लक्षमण मस्तुरिया और संगीता चौबे, साधना, जयंती को गाते, खुमान लाल साव, गिरजा सिन्हां, केदार यादव को बजाते, पद्मा, बसंती, माया देवारों को नाचते, कई जाने अनजाने कलाकार हमारी स्मृतियों के बाड़े में जीवंत हो गए। हम चारों ने फिर एक-दूसरे की नजरों में देखा, सब वही देख-सुन रहे थे, झपकी आ गयी थी। लगभग एक घंटे बाद दरोगा ने हूंत करा कर उठाया और कोठार तरफ ले गया। वहां एक सफ़ेद रंग की अम्बेसडर खड़ी थी, ड्राइवर अपने सीट पर गाड़ी स्टार्ट करने के लिए तैयार बैठा था।

हम चारो दरोगा के साथ वहां खड़े हो गए। सफ़ेद धोती कुर्ते में एक बुजुर्ग, छड़ी पकडे गाड़ी की ओर आ रहे थे। उनका कपड़ा और उनका चेहरा दमक रहा था। उनके व्यक्तित्व से एक अदृश्य आभा निकल रही थी जिससे हम महसूस कर पा रहे थे कि यही दाऊ रामचंद्र देशमुख हैं। जब वे कार के पास आ गए तब हमने उनका चरण स्पर्श किया। उन्होंने क्रमशः हमारा नाम, गांव, पिता का नाम और पढाई के सम्बन्ध में प्रश्न किया, हमने सहमते हुए उत्तर दिया। अपनी जिंदगी में पहली बार हम किसी ऐसे शख्सियत से मिल रहे थे जिनसे मिलने का सपना हमने होश सम्हालते ही देखा था। वे सामने खड़े थे और हमारा बक्का नहीं फूट रहा था। लगभग 150 किलो मीटर दूर से मिलने के लिए इस तरह आने की हमारी उत्सुकता के सम्बन्ध में संक्षिप्त बात हुई। फिर उन्होंने कहा, गाड़ी में बैठो साथ में चलते हुए बात करेंगे। हम सब बैठ गए और कार सामने रेलवे क्रासिंग को पार करती हुई आगे बढ़ने लगी।

दिमाग में बहुत सारे प्रश्न कुलबुला रहे थे किन्तु वे प्रश्न का रूप धर, अभिव्यक्त नहीं हो पा रहे थे। हमने उनके साथ लगभग डेढ़ घंटे बिताये, हमने क्या पूछा और उन्होंने क्या बताया, अब याद नहीं है। उनकी कही एक बात याद है, उन्होंने वापस लौटते वक्त कहा था कि ‘एक सिद्ध निर्देशक की अस्वाभाविक कल्पनाशीलता ही कला के असल रूप को सामने ला पाती है।‘ यह कहते हुए उन्होंने कार रुकवाई थी, हम किसी बहुत बड़े फार्म हॉउस में थे। दूर तक फसलों की हरियाली बिखरी थी, आंतरिक सड़क के आजू-बाजू क्यारियों में कतार से गुलाब और अन्य प्रजाति के रंग बिरंगे फूल खिले थे। वे उतर कर एक गुलाब के पौधे तक गए, हम भी पीछे-पीछे पहुंचे। उन्होंने एक गुलाब फूल को दिखाया, और पूछा कैसे लग रहा है। हम चारों ने चलताऊ उत्तर दिया ‘सुन्दर’, ‘बहुत सुन्दर’, सुप्पर, ‘ब्यूटीफुल!’ उन्होंने कहा कि ‘मान लो यह फूल गंवई लोक कला है, कई फोटोग्राफर इस सुन्दर फूल का अलग-अलग एगंलों से फोटो खींचते हैं। सभी के फोटो सुन्दर ही होते हैं किन्तु कोई एक फोटोग्राफर इस फूल का फोटो कुछ इस तरह से खींचता है कि इसकी सुन्दरता सौ गुना बढ़ जाती है। ऐसा इसलिए होता है कि उस फोटोग्राफर का इमेजिनेशन, अन्य फोटोग्राफरों से अलग होता है। वह इस फूल को उस प्रकार से नहीं देखता जैसे हम-आप देख रहे हैं, इस फूल का प्रतिबिम्ब उसके मस्तिष्क में उसी तरह से बनता है जैसा कि फोटो में आयेगा या, जैसा कि वह दिखाना चाहता है।‘ हम सब मंत्रमुग्ध होकर उनकी बातों को सुनते रहे। कुछ बातें समझ में आई कुछ नहीं आई, हम बमुश्किल सत्रह-अट्ठारह साल के थे। लगभग आधा घंटा फार्म हाउस में और रूककर दाऊ जी और हम वापस बाड़ा की ओर निकल गए। शाम हो चली थी, पक्षियों का कलरव बढ़ गया था।

वह दौर पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी की कहानी ‘कारी’ के लगातार मंचन का था। हम जिस दिन पहुचे थे उसके तीसरे दिन कहीं कार्यक्रम होने वाला था और दूसरे दिन रिहल्सल के लिए तय था। दाऊ जी से मिलने वालों की भीड़ बाड़े में बढ़ने लगी थी। दाऊ जी कार से उतर कर बैठक की ओर आगे बढ़ गए, दरोगा हमें बाड़े के बड़े से हाल में ले आया जहां बहुत सारे बाजवट बिछे हुए थे। तब तक रात भी हो गई, हम बिना कोई पूर्व कार्यक्रम के यूं ही दुर्ग चले आए थे, रात रूकना हमारी मजबूरी थी। वहां कुछ देर रूककर जब हम बाहर टहलने निकले, बाहर दाऊ जी से मिलने वालों की सायकलें, मोटर सायकलें और एक-दो कार खड़ी थी। बाहर बैठे गांव के लोगों नें बताया कि अंदर राम हृदय तिवारी, परदेशीराम वर्मा, मुकुन्द कौशल हैं। हम उत्सुकतावश वहीं जमें रहे, जब वे बाहर निकले तो जी भर के देखा, कुछ इस तरह कि उन्हें हाथों में छूकर टटोल रहे हों।

हम चारों नें अलग-अलग जगहों में चंदैनी गोंदा और कारी देखी थी, हमारे एक साथी नें देवार डेरा भी देखा था। उस समय चंदैनी गोंदा जैसे कई लोक सांस्कृंतिक कार्यक्रम उभर कर सामनें आ रहे थे उनमें से कईयों को हमने साथ में ही देखा था। तब मैं गांव की राम-लीला और धार्मिक नाटकों में विभिन्न किरदार निभाता था। नाचा में काम करने से मॉं-बाबूजी रोकते थे किन्तु देखने की छूट मिल जाती थी। हम कभी-कभी गांव में लीला के दौरान ही हबीब तनवीर के नाटक चरणदास चोर और पोंगवा पंडि़त भी करते थे। मैंनें रायपुर में इन दोनों नाटकों को देखा था, तब हमारी कला की पारखी नजर नहीं थी, सिर्फ उत्सुकता थी और इन महान लोक कलाकारों से मिलनें का उद्देश्यी मित्रों में रौब गांठना ही था। उस दिन हम, बघेरा में रात भर चंदैनी गोंदा, डेवार डेरा और कारी के मंचन को देखने के अपने अनुभव के संबंध में गोठियाते रहे, खुमान-गिरजा के संगीतबद्ध गीतों को गुनगुनाते रहे। सुबह बिना नहाये-धोये सिमगा की ओर निकल चले, जाते जाते दाऊ जी से मिलने का भी हमारा ध्यान नहीं आया। आज जब दाऊ जी से मुलाकात के इस अभूतपूर्व अनुभव को महसूसता हूं तो रोमांचित हो जाता हूं। काश छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति के नागरी प्रदर्शन के वे स्वर्णिम दिन फिर लौट कर आ जाते। किन्तु यही सांस्कृतिक प्रगति का तकाजा है, इस निरंतर प्रवाहमान नद को रोका नहीं जा सकता।
- संजीव तिवारी

टिप्पणियाँ

  1. बघेरा गाँव में दाऊ जी के घर में उस दौर में जाने का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त हुआ है। आलेख पढ़कर तत्कालीन सारे परिदृश्य जीवन्त हो उठे। चंदैनी गोंदा के उस काल को यदि छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति का स्वर्णिम काल कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। सार्थक पोस्ट हेतु आभार संजीव भाई ।

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  2. बघेरा गाँव में दाऊ जी के घर में उस दौर में जाने का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त हुआ है। आलेख पढ़कर तत्कालीन सारे परिदृश्य जीवन्त हो उठे। चंदैनी गोंदा के उस काल को यदि छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति का स्वर्णिम काल कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। सार्थक पोस्ट हेतु आभार संजीव भाई ।

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  3. मालवी अउ भोजपुरी बुन्देली बघेली ।
    सबोच ले गुरतुर हे मोर छ्त्तीसगढी ॥
    मै रामह्रदय तिवारी अउ सुधा ल जानथव फेर रामह्र्दय ल धनाजी नाव से जानथव । सुधा हर रामचंद्र देश्मुख के बेटी ए । " चंदैनी गोंदा के शीर्षक हर मोला बहुत पसंद हे । " लागै झन काखरो नज़र रे चंदैनी गोंदा तोला लागय झन काखरो नज़र ।"

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