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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

जनकृति अंतर्राष्‍ट्रीय पत्रिका के लोकभाषा विशेषांक में छत्‍तीसगढ़ी


आप सब जानते हैं कि छत्तीसगढ़ी की उत्पत्ति अधर्मागधी - प्राकृत - अपभ्रंशों से हुई है। अर्ध मागधी के अपभ्रंश के दक्षिणी रूप से इसका विकास हुआ है। यह पूर्वी हिन्दी का एक रूप है जिस पर अवधी का बहुत अधिक प्रभाव है। अवधी के प्रभाव के कारण ही छत्ती्सगढ़ी भाषा के साहित्य का भी उत्तरोत्तेर विकास हुआ है। छत्तीसगढ़ी भाषा का व्याकरण सन् 1885 में हीरालाल काव्यो पाध्याय के द्वारा लिखा गया था जो हिन्दी के व्याकरण के पहले सन् 1890 में अंग्रेजी के व्याकरणाचार्य सर जार्ज ग्रियर्सन के अनुवाद के साथ छत्तीसगढ़ी-अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित हुआ था। जो छत्तीसगढ़ी भाषा की भाषाई परिपूर्णता को स्वमेव सिद्ध करती है।
भाषा का सौंदर्य और उसकी सृजनात्मकता उसके वाचिक स्वरूप और विलक्षण मौखिक अभिव्यक्तियों में निहित है। छत्तीतसगढ़ी का वाचिक लोक साहित्य सदियों से लोक गाथाओं और गीतों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित हो रही है। लिखित-मुद्रित अभिव्यक्तियों और औपचारिक साहित्य में यही वाचिक साहित्य़ क्रमश: रूपांतरित भी हुई है और रचनाकारों नें अपनी अनुभूति को समय व परिस्थितियों के अनुसार अभिव्ययक्त किया है। यहॉं का लिखित साहित्य संवत 1520 से कबीर के शिष्‍य धनी धर्मदास से मिलता हैं इसके बाद से लगातार विपुल साहित्य लिखे गए जो समय-समय पर प्रकाशित भी हुए हैं।
छत्तीगसगढ़ी में साहित्य के लगभग प्रत्येक विधा में साहित्य लेखन हुआ जिसमें महाकाव्य, खण्डकाव्य, उपन्यास, कहानी और नई विधा यात्रा संस्मरण, रिपोतार्ज भी शामिल है। छत्तीगसगढ़ में साहित्यिक सृजन की परम्परा गाथा काल सन् 1000 से पुष्पित है जो सरस्वती के संपादक पदुमलाल पन्नासलाल बख्शी और छायावाद के प्रर्वतक पद्मश्री मुकुटघर पाण्डेतय जैसे रचनाकारों से होते हुए नई पीढ़ी के रचनाकारों तक विस्तृत है। आधुनिक युग के आरंभिक छत्तीासगढ़ी रचनाकारों में महाकवि पं.सुन्दरलाल शर्मा रचित दानलीला उल्लेखनीय है। लिखित छत्तीसगढ़ी साहित्य का विकास इनके बाद ही असल रूप में आरंभ हुआ। इन्होंने छत्तीसगढ़ी काव्य को स्थापित किया एवं लघुखण्ड काव्‍य का सृजन कर प्रवन्ध काव्य लिखने की परम्परा को विकसित किया। इसी क्रम में पद्य के साथ ही गद्य लेखन भी आरंभ हुआ जिसमें पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय को छत्तीसगढ़ी गद्य लेखन का संस्थापक माना गया। इसके बाद सात्यिकारों की एक लम्बी श्रृंखला है जिसका उल्लेख करने से कई पन्ने  भर जायेंगें।
अपने माधुर्य गुणों के कारण अन्य भाषा-भाषियोँ को लुभाती छत्तीसगढ़ी भाषा में लोक जीवन के प्रेम, सौहार्द्र, पारस्परिकता, निश्छलता और सामाजिकता की मिठास भी बसी हुई है। इसके गीतों में इसकी छवि परिलक्षित होती है। छत्तीससगढ़ी गीतों में जहां रचनाकारों नें अपने इस पारंपरिक गुणों का बखान किया है वहीं समाज में व्याप्त  विद्रूपों पर तगड़ा प्रहार भी किया है। साहित्य में छत्तीसगढ़ी के लिए एक शब्द बहुधा प्रयोग में आता है 'गुरतुर-चुरपुर' जिसका अर्थ है मीठा और चरपरा। हमारे साहित्य में जहां माधुर्य है वहीं अन्याय और सामाजिक बुराईयों के प्रति तीखी प्रतिक्रिया भी है। आधुनिकीकरण, औद्यौगीकरण और भूमण्डलीकरण के दौर नें छत्तीसगढ़ी रचनाकारों को भी प्रभावित किया है और उन्होंनें इसके धमक को महसूस करते हुए उसके खतरों को अपनी रचनाओं में स्थान दिया है।
मैं विगत 2008 से इंटरनेट में छत्तीसगढ़ी भाषा की एकमात्र साहित्यिक और सांस्कृकतिक पत्रिका 'गुरतुर गोठ' का संपादन कर रहा हूं, जिसमें लगभग 7000 पन्नों का छत्ती्सगढ़ी साहित्य संग्रहित है। जिसमें साहित्य के सभी विधाओं की रचनायें संग्रहित है, पत्रिका की पृष्ट सीमा और पठनीय बोझिलता को ध्यान में रखते हुए हम साहित्य की कुछ प्रमुख विधाओं की रचनाओं को ही यहॉं इस पत्रिका में प्रस्तुत कर रहे हैं। जिसमें छत्तीसगढ़ी के कुछ चर्चित रचनाकारों के साथ ही नये युवा रचनाकारों की रचनायें शामिल है। इससे आप छत्तीसगढ़ी साहित्य से परिचित हो सकें।
आप सभी को ज्ञात है कि छत्ती्सगढ़ी भाषा की धमक, संपूर्ण विश्व में एडिनबरो नाट्य समारोह से लेकर पद्मश्री तीजन बाई के पंडवानी गीतों के रूप में गुंजायमान हो रही है। हमारी लोक कलायें व शिल्प का डंका संपूर्ण विश्व में बज रहा है ऐसे समय में हमारी लोक भाषा का साहित्य इस पत्रिका में स्थान पा रहा है यह हमारे लिये खुशी की बात है। वर्तमान समय में हमें हमारी लोक भाषा के साहित्य को विस्तारित करने के हर संभव प्रयास करने हैं। हम अपनी अस्मिता और स्वाभिमान के साथ अपनी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में जुड़ने का बाट जोह रहे हैं। हमें विश्वास है कि हमारी समृद्ध भाषा भी अब शीघ्र ही अपने वांछित सम्मान को पा लेगी। जनकृति के लोकभाषा विशेषांक में छत्तीासगढ़ी को स्थात देनें से न केवल हमारी भाषा वरन हमारी अस्मिता को हिन्दी पट्टी के वैश्विक परिदृश्य पर सामने रखने की एक शुरुआत हुई है। पत्रिका के संपादक कुमार गौरव मिश्रा को धन्य्वाद सहित।
- संजीव तिवारी 

इस विशेषांक को आप यहॉं पढ़ सकते हैं.
इस अंक में आलेख छत्तीसगढ़ी साहित्य में काव्य शिल्प-छंद: रमेश कुमार सिंह चौहान, भाषा कइसना होना चही?: सुधा वर्मा, यात्रा वृतांत वैष्णव देवी के दरसन: अजय अमृतांशु, कहानी लहू के दीया: कामेश्वर, परसू लोहार: डॉ. पारदेशीराम वर्मा, नियाँव: डॉ. पीसीलाल यादव, दहकत गोरसी: जयंत साहू, आजंत आजंत कानी होगे: सुशील भोले, तारनहार: धर्मेन्द्र निर्मल, बेंगवा के टरर टरर: विट्ठल राम साहू‘निश्छल’, मिटठू मदरसा (रविंद्रनाथ टैगोर की कहानी का छत्तीसगढ़ी अनुवाद): किसान दीवान, व्यंग्य त महूँ बनेव समाज सुधारक: आनंद तिवारी पौराणिक, अपराधी आश्रम में कवि सम्मलेन: कांशीपुरी कुन्दन, छूही के ढूढा: बांके बिहारी शुक्ल, दुर्योधन काबर फेल होथे ? मूल लेखक- प्रभाकर चौबे (हिंदी): अनुवादक- दुरगा प्रसाद पारकर, आवव बियंग लिखन- संजीव तिवारी, आलेख/जीवनी युगप्रवर्तक: हीरालाल काव्योपाध्याय- डॉ. पीसीलाल यादव नाटक चित्रगुप्त के इस्तीफा: नरेंद्र वर्मा, अनुवाद विष्णु भगवान् के पदचिन्ह (Marks of Vishnu)- खुशवंत सिंह: अनुवादक: कुबेर, पद्य- कविता/गीत डॉ. विमल कुमार पाठक, डॉ. जीवन यदु, आचार्य सरोज द्विवेदी, डॉ. पीसीलाल यादव, मुकुंद कौशल, बलदाऊ राम साहू, छत्तीसगढ़ी ग़ज़ल; मुकुंद कौशल, दोहा अरुण कुमार निगम, छत्तीसगढ़ी लोकगाथा अंश अहिमन कैना: संकलन- संजीव तिवारी, उपन्यास अंश आवा: डॉ. पारदेशीराम वर्मा संग्रहित हैं.  

टिप्पणियाँ

  1. आपकी पत्रिका अति उत्कृष्ट कोटि की है। हर अंक संग्रहणीय है। बधाई।

    https://www.google.co.in/search?q=mahavir+uttranchali&ie=utf-8&oe=utf-8&client=firefox-b&gfe_rd=cr&ei=_cg3WPKOKMOt8wfjlrfABQ#q=%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%B0+%E0%A4%89%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%9A%E0%A4%B2%E0%A5%80

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  2. वाकई, वैश्विक परिदृश्य पर सामने रखने की एक शुरुआत है...जय छत्तसगढ़ी। सादर
    चहलकदमी Chahalkadami: आमिर ने दिल और छोरियों ने जीते 'दंगल'

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