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फ़रवरी, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

भाषा का प्रचार : प्रचार की भाषा

इसाई समुदाय सदियों से से क्षेत्रीय भाषाओं में अपने ईश्वर का संदेश प्रसारित प्रचारित करते रहा है। इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण है कि छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी के दस्तावेजीकरण के लिए आरंभिक रूप से जो प्रयास हुए वह मिशनरीज लोगों के द्वारा ही किए गए। चाहे वह छत्तीसगढ़ी भाषा के व्याकरण की बात हो या छत्तीसगढ़ी के शब्दकोश के प्रकाशन की बात हो या संग्रहण की बात हो। आज भी इन्होंने क्षेत्रीय भाषाओँ को अपने प्रचार का माध्यम बनाया हुआ है। नीचे दिए गए वेब साईट में कुछ वीडियो है जिसे देखें। यहाँ प्रचार उद्बोधन को इन्होंने छत्तीसगढ़ी में अनुवाद कर प्रस्तुत किया है। भाषा का प्रवाह, प्रस्तुतीकरण के साथ ही स्तरीय है जो शहरी छत्तीसगढ़ी का रूप है। निश्चित तौर पर इसका भावानुवाद किसी छत्तीसगढ़ी के जानकर ने (बिना डमडमा बजाये) किया होगा। यहाँ भाषा के प्रति इनका लगाव और मातृभाषी लोगों का अपनी भाषा के प्रति लगाव (प्रेम) में अंतर जरूर होगा। अपने ईश्वर और धर्म के प्रचार का इनका यह निजी मामला है किन्तु भाषा के प्रति इनकी रूचि स्तुत्य है। फेसबुक-व्हॉट्स एप के ज़माने में हम छत्तीसगढ़ी के प्रति अपने समर्पण और भक्ति का जम

आधुनिकता बोध या पतनशील लोक

एक जमाना था जब मोटियारी टूरी-टूरा मिथलेश साहू और ममता चंद्राकर के गाये ' मोर चढ़ती जवानी के दिन हो चिरईया ल के गोंटी मारंव' गाते थे। गांव के समरस से जब उकता जाते थे तो संत मसीदास के लिखे और शेख हुसैन के गाये 'गजब दिन होगे राजा तोर संग म नई देखेंव खल्‍लारी मेला ओ' भी गाने लगते थे। अइसई दिनों में टूरा लोग अपनी प्रेमिका को सइकिल म चढा के मेला-ठेला ले भी जाते थे। मेला-मड़ई में अकेली मोटियारी अनुराग ठाकुर के पान ठेला वाला के घूर-घूर निहारई को गुनगुनाती भी थी। उन दिनों अक्‍सर प्रेम म पड़ी टूरी लक्ष्‍मण मस्‍तूरिया के लिखे और संगीता चौबे के गाये गीत 'काबर समाये मोर बैरी नैना मा' गाना पसंद करती थी। टूरा लोग भी जादा से जादा पंचराम मिर्झा और कुलवंतिन बाई या फिर बैतल राम साहू के कुछ कड़कते-फड़कते गीत गाकर मर्यादा की सीमा बरकरार रखने का उदीम करते रहते थे। अब मीर अली मीर के 'नंदा जाही का रे' का जमाना है उनकी इस जायज चिंता के साथ ही लोक गायक और कवि छत्‍तीसगढ़ के आज को लिख रहे हैं। लोक गायक भी समय को गीतों में पिरो कर बाजार में परोस रहे हैं। समाज का बाजार है या