विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
असम के छत्तीसगढ़ वंशियों नें आज 'पहुना संवाद' के दूसरे दिन सभा में अपना संस्मरण सुनाया और उद्गार व्यक्त किया। उन्होंनें कहा कि हम आपके अत्यंत आभारी हैं कि आपने अपने संस्कृति विभाग के माध्यम से हमसे संपर्क स्थापित करने का महत्वपूर्ण कदम उठाया। संस्कृति संचालनालय के बुलावे पर असम से यहां आने से हम सभी अभिभूत हुए हैं, क्योंकि हमारे पूर्वज सैकड़ो बरस पहले इस धरती से कमाने खाने चले गए थे। इसके इतने दिनों बाद हमको याद किया गया है। हमारे पूर्वजों ने उन दिनों में जो संघर्ष किया है उसकी कहानी दुखद है। उन्होंनें कठिन परिश्रम किये, दुख भोगा, दाने-दाने को मोहताज हुए। छत्तीसगढ़ वापस आने की तमन्ना रहते हुए भी वे अंग्रेजों या चाय बागानों के मालिकों के द्वारा बंधक बना लिए जाने या फिर पैसे नहीं होने के कारण वापस अपनी धरती आ नहीं पाये। उन्होंने कठिन परिस्थितियों में भी अपना जीवन जीया और हम सबको इस काबिल बनाया कि हम असम में अपने पैरों पर खड़े हो सकें। हम उनकी चौथी, पांचवी पीढ़ी हैं हमारे दिलों में आज भी छत्तीसगढ़ जीवित है। इस माटी की सोंधी खुशबू जो हमारे पूर्वजों के हृदय में