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मार्च, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

'पहुना संवाद' महानदी और बम्‍हपुत्र का मिलन

असम के छत्‍तीसगढ़ वंशियों नें आज 'पहुना संवाद' के दूसरे दिन सभा में अपना संस्‍मरण सुनाया और उद्गार व्‍यक्‍त किया। उन्‍होंनें कहा कि हम आपके अत्‍यंत आभारी हैं कि आपने अपने संस्कृति विभाग के माध्‍यम से हमसे संपर्क स्थापित करने का महत्वपूर्ण कदम उठाया। संस्कृति संचालनालय के बुलावे पर असम से यहां आने से हम सभी अभिभूत हुए हैं, क्योंकि हमारे पूर्वज सैकड़ो बरस पहले इस धरती से कमाने खाने चले गए थे। इसके इतने दिनों बाद हमको याद किया गया है। हमारे पूर्वजों ने उन दिनों में जो संघर्ष किया है उसकी कहानी दुखद है। उन्‍होंनें कठिन परिश्रम किये, दुख भोगा, दाने-दाने को मोहताज हुए। छत्‍तीसगढ़ वापस आने की तमन्‍ना रहते हुए भी वे अंग्रेजों या चाय बागानों के मालिकों के द्वारा बंधक बना लिए जाने या फिर पैसे नहीं होने के कारण वापस अपनी धरती आ नहीं पाये। उन्होंने कठिन परिस्थितियों में भी अपना जीवन जीया और हम सबको इस काबिल बनाया कि हम असम में अपने पैरों पर खड़े हो सकें। हम उनकी चौथी, पांचवी पीढ़ी हैं हमारे दिलों में आज भी छत्‍तीसगढ़ जीवित है। इस माटी की सोंधी खुशबू जो हमारे पूर्वजों के हृदय में

बदलते हुए गॉंव की महागाथा : बिपत

वर्तमान छत्तीसगढ़ के गाँवों में कारपोरेट की धमक और तद्जन्य शोषण और संघर्ष की महागाथा है कामेश्वर का उपन्यास ‘बिपत‘। इसमें गावों में चिरकाल से व्याप्त समस्याओं, वहाँ के रहवासियों की परेशानियों एवं गाँवों से प्रतिवर्ष हो रहे पलायन की पीड़ा का जीवन्त चित्रण है। आधुनिक समय में भी जमींदारों के द्वारा गाँवों में कमजोरों पर किए जा रहे अत्याचार को भी इस उपन्यास में दर्शाया गया है। इस अत्याचार और शोषण के विरुद्ध उठ खड़े होने वाले पात्रों ने उपन्यास को गति दी है। विकास के नाम पर अंधाधुंध खनिज दोहन से बढ़ते पर्यावरणीय खतरे के प्रति आगाह करता यह उपन्यास नव छत्तीसगढ़ के उत्स का संदेश लेकर आया है।  नये-नवेले इस प्रदेश में जिस तेजी से औद्योगीकरण हुआ है और इस रत्नगर्भा धरती के दोहन के लिए नैतिक-अनैतिक प्रयास हुए हैं वह किसी से छुपा नहीं है। इसका प्रत्यक्ष प्रभाव छत्तीसगढ़ के गाँवों पर पड़ा है। किसानों की भूमि जबरिया अधिग्रहण के द्वारा छीनी जा रही है। बची-खुची धरती अंधाधुंध औद्योगीकरण और खनिजों के दोहन से निकले धूल और जहरीली गाद से पट चुकी है या प्रदूषित हो रही है। पर्यावरण का भयावह खतरा चारो तरफ

आकाशवाणी रायपुर से चंदैनी गोंदा के छत्तीसगढ़ी गीतों का पहला प्रसारण

जैसा की आप सब जानते ही हैं कि चंदैनी गोंदा के गीत छत्तीसगढ़ में बहुत लोकप्रिय हो गए थे और पूरे छत्तीसगढ़ में इसे अपने-अपने ढंग से गाया-गुनगुनाया जाने लगा था। उस समय दाऊ रामचंद्र देशमुख चंदैनी गोंदा के गीतों को रिकॉर्ड करना नहीं चाहते थे। उनका मानना था कि चंदैनी गोंदा के गीतों को उसके लाइव कार्यक्रमों में आकर ही सुना जाय। समय में परिवर्तन आ रहा था और उस समय छत्तीसगढ़ी में तवा वाले रिकार्ड आने शुरू हो गए थे जिसमे रसिक परमार के द्वारा रिकार्ड कराये और केसरी बाजपेयी के द्वारा रिकार्ड कराये गीत, विवाह और अन्य समारोहों में बजने लगे थे। इसके बाद कैसेट का जमाना आया जिसमें कुछ छत्‍तीसगढ़ी गीत रिकार्ड कराए गए जो लाउडस्‍पीकरों में छट्ठी-छेवारी में बजने लगे। ऐसे ही किसी समय पर खुमान लाल साव को निर्मला राय नें सुझाव दिया। राजनांदगांव में कन्‍या स्कूल की प्रिंसिपल निर्मला राय खुमान साव और चंदैनी गोंदा की लोकप्रियता से परिचित थीं। वे चाहती थीं की चंदैनी गोंदा के गीतों की रिकॉर्डिंग हो और वे सभी गीत आकाशवाणी से प्रसारित किए जांए। रायपुर आकाशवाणी  केंद्र के केंद्रनिदेशक रमेश राय जी उनके भाई थे। निर्

छत्तीसगढ़ की संस्कृति के दो महत्वपूर्ण स्तम्भ : खुमान लाल साव और डॉ. पीसीलाल यादव

डॉ.पीसी लाल यादव छत्तीसगढ़ में साहित्य एवं संस्कृति के क्षेत्र में चित-परिचित नाम हैं। इन्होंने छत्तीसगढ़ की कला, संस्कृति और परंपराओं पर प्रचुर मात्रा में शोधपरक लेखन किया है। इन्होंने छत्तीसगढ़ की संस्कृति के सम्बन्ध में तथाकथित अध्येताओं के द्वारा स्थापित कर दिए गए भ्रामक जानकारियों का तथ्यपरक विश्लेषण (निवारण) भी प्रस्तुत किया है। यादव जी न केवल लेखक हैं वरन सांस्कृतिक धरातल पर प्रतिष्ठित और लोकप्रिय लोक मंच के संचालक हैं। जो छत्तीसगढ़ सहित देश के विभिन्न हिस्सों में छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति की प्रस्तुति दे चुकी है। वे आज भी लगातार छत्तीसगढ़ी सांस्कृतिक प्रस्तुति मंचों पर देते रहते हैं जिसमें लगभग 20 लोक कलाकार शामिल हैं। रेडियो और टेलीविजन में उनके कार्यक्रम लगातार आते रहते हैं। लेखन के क्षेत्र में यादव जी गद्य और पद्य के अन्यान्य विधाओं में, हिंदी एवं छत्तीसगढ़ी दोनों भाषाओँ में लिखते हैं। पंडवानी पर उनका विशद् शोध ग्रन्थ वैभव प्रकाशन से प्रकाशित है जो अब तक के प्रकाशित पंडवानी के किताबों में श्रेष्ठ है। छत्तीसगढ़ के लोक गाथाओं पर उनका महत्वपूर्ण कार्य है। उन्हो